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सरकारी कर्मियों को कितनी बार दिया महंगाई भत्ता : कोर्ट

कोलकाता : राज्य के सरकारी कर्मचारियों के संगठनों द्वारा महंगाई भत्ते (डीए) के लिए दायर मामले में कलकत्ता हाइकोर्ट ने कई सवाल उठाये हैं. कलकत्ता हाइकोर्ट के न्यायाधीश देवाशीष कर गुप्त तथा न्यायाधीश शेखर बॉबी सराफ की खंडपीठ ने राज्य सरकार से पूछा है कि वर्ष 2009 के बाद से राज्य सरकार के कर्मचारियों को […]

कोलकाता : राज्य के सरकारी कर्मचारियों के संगठनों द्वारा महंगाई भत्ते (डीए) के लिए दायर मामले में कलकत्ता हाइकोर्ट ने कई सवाल उठाये हैं. कलकत्ता हाइकोर्ट के न्यायाधीश देवाशीष कर गुप्त तथा न्यायाधीश शेखर बॉबी सराफ की खंडपीठ ने राज्य सरकार से पूछा है कि वर्ष 2009 के बाद से राज्य सरकार के कर्मचारियों को कितनी बार महंगाई भत्ता दिया गया है. इस संबंध में विस्तृत सूची तैयार करके अगली सुनवाई में इसे पेश करने का निर्देश दिया गया है. साथ ही अदालत ने राज्य के प्रशासनिक ट्राइब्यूनल (एसएटी) द्वारा दिये गये फैसले की व्याख्या भी मांगी है.
उल्लेखनीय है कि एसएटी ने फैसला दिया था कि महंगाई भत्ता पाने का अधिकार सरकारी कर्मचारियों को नहीं है, लेकिन एसएटी ने यह फैसला किस आधार पर दिया है, इसकी व्याख्या खंडपीठ ने मांगी है.
मंगलवार को डीए को लेकर हुई सुनवाई में राज्य के एडवोकेट जनरल किशोर दत्त ने कहा कि डीए पाने का अधिकार सरकारी कर्मचारियों को नहीं है. डीए राज्य का अनुदान है. इस संबंध में खंडपीठ ने कहा कि राज्यपाल ने डीए को मान्यता दी है. तब किस आधार पर राज्य सरकार इसे अनुदान कह रही है. राज्यपाल ने यदि डीए को मान्यता दी है, तो फिर यह राज्य की इच्छा पर कैसे निर्भर रह सकता है.
खंडपीठ ने यह भी कहा कि राज्य के मुताबिक सरकारी कर्मचारियों का कोई डीए बकाया नहीं है. लेकिन डीए यदि दिया गया है, तो यह किस प्रक्रिया के तहत दिया गया, यह बताना होगा. इसपर एडवोकेट जनरल का कहना था कि 1952 से सरकारी कर्मचारियों को डीए नीतिगत कारणों के तहत दिया जा रहा है. डीए के लिए ‘रोपा रूल’ वर्ष 2009 से चालू किया गया था. लेकिन डीए देने का कोई नियम नहीं है. डीए देना अनिवार्य है, यह कहीं लिखा नहीं गया है. इसलिए दायर किये गये मामले का कोई औचित्य नहीं है.
इसपर खंडपीठ ने राज्य को निर्देश दिया कि वर्ष 2009 से कब और कितना डीए दिया गया है, उसकी सूची मामले की अगली सुनवाई में पेश की जाये. मामले की अगली सुनवाई गुरुवार को होगी.

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