गोरखालैंड आंदोलन ने अपनों के बीच ही लकीरें खींच दी हैं. जो लोग गोरखालैंड की मांग के साथ नहीं हैं, उनके लिए पहाड़ पर रहना नामुमकिन हो गया है. सबसे ज्यादा मुश्किल में तृणमूल समर्थक और ममता सरकार द्वारा पहाड़ गठित विभिन्न विकास बोर्डों के प्रतिनिधि हैं. अगर गोरखालैंड का समर्थन करें तो पार्टी से […]
गोरखालैंड आंदोलन ने अपनों के बीच ही लकीरें खींच दी हैं. जो लोग गोरखालैंड की मांग के साथ नहीं हैं, उनके लिए पहाड़ पर रहना नामुमकिन हो गया है. सबसे ज्यादा मुश्किल में तृणमूल समर्थक और ममता सरकार द्वारा पहाड़ गठित विभिन्न विकास बोर्डों के प्रतिनिधि हैं. अगर गोरखालैंड का समर्थन करें तो पार्टी से जायें और समर्थन न करें तो पहाड़ छोड़ें. दार्जिलिंग, कालिम्पोंग, कर्सियांग, मिरिक क्षेत्र से खदेड़े गये सैकड़ों तृणमूल समर्थकों ने सिलीगुड़ी और समतल की अन्य जगहों पर शरण ले रखी है. सिलीगुड़ी के खालपाड़ा स्थित एक भवन में शरण लिये ऐसे ही लोगों से विस्थापन की व्यथा जानी प्रभात खबर के प्रतिनिधि ने. आज पढ़ें ‘गोरखालैंड आंदोलनः अपनों ने ठुकराया, गैरों ने गले लगाया’ की दूसरी किस्त
सिलीगुड़ी: दार्जिलिंग जिले के तकवर फर्स्ट डिवीजन के मोथाभूरा निवासी सहदेव मुखिया तृणमूल कांग्रेस (तृकां) अंचल कमेटी के अध्यक्ष हैं. पहाड़ पर हिंसक हो उठे कथित मोरचा आंदोलनकारियों की बर्बरता से सहदेव अपने पूरे परिवार के साथ अपनी पैतृक जमीन छोड़ कर सिलीगुड़ी में बीते 27 दिनों से शरणार्थी जिंदगी काटने को मजबूर हैं. उन्होंने ‘पहाड़ पर हिंसक आंदोलन की दर्दनाक कहानी’ जब प्रभात खबर के प्रतिनिधि के साथ साझा किया तो वह सिहर उठे. डबडबाई आंखों और दबी जुबान से उन्होने कहा कि जिस रात वह अपनी 75 वर्षीय बुढ़ी मां हर्क माया, पत्नी सुनीता और मानसिक रुप से कमजोर छोटा बेटा युगांत को लेकर पहाड़ छोड़ने को मजबूर हुए वह हमारे लिए आफत की रात ही नहीं बल्कि काली रात थी. हमारे लिए एक तरफ कुंआ है तो दूसरी तरफ खाई वाली स्थिति है. श्री मुखिया ने कहा कि हमें पहले ही भनक लग गयी थी कि मोरचा के हथियारबंद आंदोलनकारी जान से मारने और मकान को जलानेवाले है. आंदोलनकारियों के हमला करने से पहले ही वह पूरे परिवार को लेकर रात करीब दो बजे गांव छोड़ निकल गए. अंधेरी रात में नदी के रास्ते पहाड़ की तलहटी होते हुए तकरीबन 25-30 किमी पैदल चलते हुए सुबह करीब पांच बजे दार्जिलिंग पहुंचे. यहां हिल्स तृकां के उपाध्यक्ष राजन तामंग उर्फ अप्पा से संपर्क साधा और पूरी घटना की जानकारी दी.
अप्पा ने ही उनलोगों को दार्जिलिंग से सिलीगुड़ी पहुंचाने का इंतजाम किया. श्री मुखिया का कहना है कि उनलोगों के पहाड़ छोड़ने के बाद आज उसके पैतृक गांव में सबकुछ शेष हो गया. मोरचा आंदोलनकारियों ने उसके पूरे मकान को जलाकर स्वाहा कर दिया. उनकी जमीन भी दखल कर लेने की खबर है. गांव में अब उनका कुछ भी नहीं बचा. अगर वापस पहाड़ लौटते हैं तो आंदोलनकारी उसे और उसके पूरे परिवार को ही जान से मार देंगे. यहां भी उनके पास कुछ नहीं है अपने पूरे परिवार का जीविकोपार्जन कैसे करेंगे यहीं चिंता खाये जा रही है.
श्री मुखिया का कहना है कि अप्पा ने सरकार के माध्यम से उन्हें सिलीगुड़ी या आसपास कहीं दो कट्टा जमीन दिलाने और कामकाज के लिए सिविक वोलेंटियर की नौकरी दिलाने का आश्वासन दिया है. लेकिन सिविक वोलेंटियरों की तनख्वाह को लेकर पहले से ही सरकार की अवस्था खराब है. पहाड़ से विस्थापित हुए गोरखा समुदाय के लोगों को नये सिरे से सिविक वोलेंटियरों को सरकार कैसे तनख्वाह देगी. श्री मुखिया का कहना है कि वह पहले मोरचा के कार्यकर्ता थे.
पहाड़ पर जीटीए गठित हो जाने के बाद मोरचा के नेताओं ने विकास के नाम पर जमकर घपला किया. खासकर चाय श्रमिकों और अन्य सेक्टरों के मजदूरों का खूब शोषण भी किया. मोरचा की मनमानी का विरोध करना और तृकां का दामन थामने का खामियाजा बीते तीन वर्षों में उन्होंने जो भोगा है वह इससे पहले कभी नहीं हुआ. तृकां छोड़कर मोरचा में वापस शामिल होने के लिए उनपर खूब दबाव बनाया गया. उनपर कई बार जानलेवा हमले किये गये. मकान में तोड़फोड़ की गयी. लेकिन वह भगवान की कृपा से हमेशा बाल-बाल बचते गये.उन्होंने कहा कि तीन वर्ष पहले पहाड़ पर अपनी ऑर्केस्ट्रा ग्रुप चलाते थे. मोरचा के नेताओं ने उसे बंद करवा दिया. उन्हें पहाड़ पर कोई काम नहीं करने दिया जाता. इस वजह से उसके बड़े बेटे उदित को भी स्कूल छोड़ देना पड़ा. आज वह सिक्किम में मिस्त्री, मजदूरी का काम करने को मजबूर है.
विस्थापन की व्यथा की अगली किस्त में पढ़ेःं- अब हमारा क्या होगा, राम जाने