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आलोचना के बिना अध्यात्म, राजनीति, दर्शन की कल्पना भी बेमायने : अशोक
आसनसोल : कवि सह आलोचक अशोक बाजपेयी ने कहा कि बंगाल में बहस की बहुत पुरानी परंपरा रही है. काजी नजरूल विश्वविद्यालय (के एनयू) के नजरुल सेंटर फॉर सोशल एंड कल्चरल स्टडीज तथा हिंदी विभाग की संयुक्त पहल पर सोमवार को विद्या चर्चा भवन में आयोजित ‘आलोचना क्यों’ विषय पर विशेष व्याख्यान देते हुए उन्होनें […]
आसनसोल : कवि सह आलोचक अशोक बाजपेयी ने कहा कि बंगाल में बहस की बहुत पुरानी परंपरा रही है. काजी नजरूल विश्वविद्यालय (के एनयू) के नजरुल सेंटर फॉर सोशल एंड कल्चरल स्टडीज तथा हिंदी विभाग की संयुक्त पहल पर सोमवार को विद्या चर्चा भवन में आयोजित ‘आलोचना क्यों’ विषय पर विशेष व्याख्यान देते हुए उन्होनें कहा ा कि आलोचना लोकतंत्र की स्वाभाविक प्रवृति है. इसका सीधा रिश्ता कर्म, वचन, विचार से है.
श्री वाजपेयी ने कहा कि विश्व में भारतीय समाज ही एकमात्र ऐसा समाज है, जहां विचारों की प्रस्तुति करने से पहले उसके पूर्वपक्ष को देखा जाता है. सच्चई को देखने के एक से अधिक उपाय खोजना ही आलोचना का अर्थ है. आलोचना की इस दौर में काफी प्रासंगिकता है. क्योंकियह औसत घटिया लोगों के उन्नयन का समय है, इसकी आलोचना से वे उभरते है. उन्होनें कहा कि अध्यात्म, राजनीति आदि की कल्पना बिना आलोचना के हो ही नहीं सकती है. उन्होनें स्टूडेंट्सों में सवाल पूछने की लत बनाने की सलाह दी. उनका तर्क था कि खुद और अन्य की सार्थक आलोचना से मजबूती मिलती है.
उन्होनें कहा कि विश्वविद्यालय परिसर के लिए आलोचना आवश्यकता ही नहीं, निवार्यता है.इससे विचारों की बहुलता मिलती है. उन्होनें आलोचना का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा कि इससे सच्चई के एक से अधिक उपाय खोजने में काफी मदद मिलती है. उन्होंने आलोचना के निहितार्थ की चर्चा करते हुए कहा कि संवाद स्थापित करना, साहस बढ़ाना, अवसर देना, जिज्ञासा प्रस्तुत करना, प्रश्न वाचक की पुरानी परम्परा को फिर से जगाना, भाषा के प्रयोग को जगाना ही आलोचना है. उन्होंने कहा कि आमतौर पर आ लोचना का अर्थ किसी की प्रशंसा या किसी की निंदा समझा जाता है. लेकिन यह गलत व सतही धारणा है. गंभीर आ लोचना रचना की अर्थवत्ता से नहीं, रचना की सार्थकता से जुड़ी होती है.
समाज में अब पुरानी स्थिति नहीं रही. विकास के ना म पर समाज से सहिष्णुता घट रही है. झूठ का प्रभाव इतना अधिक हो गया है कि सच कहना अपराध लगने लगा है. इस स्थिति में आलोचना और अधिक अनिवार्य व प्रासंगिक बन जाती है. कवि श्री वाजपेयी ने इसे लोकतंत्र के लिए भी जरूरी बताया. उन्होंने इसे भारतीय परम्परा को बनाये रखने, संवाद की जिम्मेवारी निभाने, साहित्य को जिम्मेदारी, प्रभाविकता, विश्वनियता से जोड़ने वाला बताया.
इस मौके पर श्री बाजपेयी ने हिन्दी विभाग की पत्रिका ‘दीवार’ के विशेषांक ‘अभिव्यक्ति’ का विमोचन किया. मंच संचालन हिन्दी विभागाघ्यक्ष प्रो. विजय कुमार भारती तथा धन्यवाद ज्ञापन केएनयू के अंग्रेजी विभागाध्यक्ष डॉ शांतनु बनर्जी ने किया. श्री वाजपेयी को डॉ प्रतिमा प्रसाद ने सम्मानित किया. हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. भारती ने कहा कि श्री वाजपेयी की आलोचना में संवेदना और प्रेम दोनों है. ये अपनी लेखनी में ज्ञान का आतंक पैदा नहीं करते है, बल्कि पाठक को स्वयं पढ़ने हेतु प्रेरित करते है. रचना की आलोचना का उनका समवाय संबंध रहा है.
अंग्रेजी विभागघ्यक्ष डॉ बनर्जी ने श्री वाजपेयी की भाषण को सर्वश्रेष्ठ बताया है. मौके पर काजी नजरुल इस्लाम के भतीजे मजहर हुसैन, कथाकार सृंजय, डॉ महेन्द्र प्रसाद कुशवाहा, डॉ केके श्रीवास्तव, पूजा पाठक, मघुलिका सिंह, पुष्पा कुमारी आदि उपस्थित थी. सरस्वती वंदना हिन्दी विभाग के प्रथम वर्ष की स्टूडेंट्स नेहा कुमारी, पुष्पा थापा, अमन विश्वकर्मा आदि ने किया. कविता पाठ प्रीति सिंह ने किया. मिली वर्मा,अर्चना पाल, रुपेश साह, आशिष प्रसाद, प्रतिमा सिंह आदि सक्रिय थी.
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