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बचपन बीता मुक्तांगन में, भटक रहा दर-दर
आसनसोल स्टेशन परिसर में बंदर के काटने के बाद गया था चिकित्सा कराने मुक्तांगन से लेकर आरपीएफ तक ने नहीं की मदद, हर कोई दिखा रहा प्रावधान आसनसोल. लावारिस बच्चे के पास अपने गाजिर्यन का नाम नहीं होने के कारण ही उसे सरकार संचालित आसनसोल जिला अस्पताल में चिकित्सा सुविधा नहीं मिली. वह अपनी पहचान […]
आसनसोल स्टेशन परिसर में बंदर के काटने के बाद गया था चिकित्सा कराने
मुक्तांगन से लेकर आरपीएफ तक ने नहीं की मदद, हर कोई दिखा रहा प्रावधान
आसनसोल. लावारिस बच्चे के पास अपने गाजिर्यन का नाम नहीं होने के कारण ही उसे सरकार संचालित आसनसोल जिला अस्पताल में चिकित्सा सुविधा नहीं मिली. वह अपनी पहचान के लिए दर-दर भटकने को मजबूर है.
लेकिन निष्ठुर समाज तथा संवेदनशून्य व्यवस्था तंत्र के पास उसके इस सवाल को कोई जबाब नहीं है कि आखिरकार बिना मां-बाप के वह धरती पर आया कैसे और पैदा करनेवालों ने जब उसे लावारिस छोड़ दिया तो समाज के ठेकेदारों व इस तंत्र ने उनसे जबाब क्यों नहीं मांगा? जब उनसे जबाब मांगने की हिम्मत नहीं है तो फिर लावारिस बच्चे की पहचान उससे क्यों मांगी जा रही है? किसी के पास इसका जबाब नहीं है. राजू कुमार बचपन से ही लावारिस है. आसनसोल स्टेशन वह कैसे पहुंचा, वह खुद ही नहीं जानता है.
अनाथ व लावारिस बच्चों की तरह वह भी लंबे समय तक आसनसोल स्टेशन परिसर में एनजीओ द्वारा संचालित ‘मुक्तांगन’ में पलता-बढ़ता रहा. 15 साल की उम्र होने के बाद राजू को मुक्तांगन से जाना पड़ा, क्योंकि संस्था का नियम है कि वह 15 वर्ष से अधिक उम्र के बच्चों को संरक्षण नहीं देती है. उसका तर्क है कि इस उम्र में आने के बाद बच्चा स्वनिर्भर हो जाता है.
राजू आसनसोल स्टेशन में ही छोटे मोटे काम कर गुजर बसर करने लगा. उसने बताया कि शनिवार को आसनसोल स्टेशन के प्लेटफॉर्म संख्या सात पर उसे एक बंदर ने काट लिया. वह अपना इलाज कराने आसनसोल जिला अस्पताल गया. वहां उसे चिकित्सा स्लीप में पूरे ब्यौरे के साथ अभिभावक का नाम लिखने को कहा गया. लेकिन वह अपने गाजिर्यन या मां-बाप का नाम नहीं लिख सका. सच्चाई यह है कि उसका कोई गाजिर्यन है ही नहीं. अस्पताल के अधिकारियों ने इलाज करने से इंकार कर दिया. कहा कि गाजिर्यन के नाम के बिना इलाज नहीं होगा. विवश होकर वह ‘मुक्तांगन’ में गया परंतु इस मामले में संस्था के प्रतिनिधियों ने उसकी मदद करने से इंकार कर दिया.
उनका कहना था कि वे उसकी जिम्मेवारी नहीं ले सकते. वह अपना दु:ख लेकर आसनसोल आरपीएफ वेस्ट पोस्ट भी गया परंतु वहां भी किसी प्रकार का सहयोग नहीं मिल पाया. जिससे वह अपना इलाज नहीं करा सका. जिला अस्पताल के अधीक्षक डॉ निखिल चन्द्र दास ने कहा कि बंदर काटने के बाद इलाज के लिए दो इंजेक्शन लगाये जाते हैं. इनकी शक्ति अधिक होने के कारण साइड इफेक्ट की आशंका रहती है. नाबालिग होने पर गाजिर्यन की सहमति जरूरी है. हालांकि बालिग होने पर इसकी जरूरत नहीं पड़ती. उन्होंने कहा कि संभवत: कर्मियों ने उसे नाबालिग समझा होगा. उनकी जानकारी में यह मामला नहीं है. वे इसकी जांच करेंगे. मुक्तांगन के शिक्षक अभिक राय ने कहा कि राजू की वर्तमान उम्र 21 साल है. वह पहले मुक्तांगन में ही रहता था.
सात साल पहले बालिग होने पर उसे मुक्तांगन से जाना पडा. उन्होंने कहा कि उसके माता पिता कल्याणोश्वरी में रहते हैं. कई बार वह घर से भाग जाता था और सूचना मिलने पर उसे वापस लाया गया. अगर वह बच्चा होता तो उसके इलाज की पूरी व्यवस्था की जाती. आरपीएफ के दायित्व प्राप्त प्रभारी दिपंकर दे ने कहा कि उन्हें ऐसी कोइ जानकारी नहीं मिली है और न ही कोई उनसे इलाज के लिए मदद मांगने आया. उन्होंने कहा कि राजू के माता-पिता जीवित हैं.
वरिष्ठ मंडल सुरक्षा आयुक्त डॉ एएन झा ने कहा कि आरपीएफ का मुक्तांगन के साथ सहयोग है. घर से भागे बच्चों को दिशा दिखाना और वापस उन्हें घर तक पहुंचाने में मदद करना आरपीएफ का कर्तव्य है. उन्होंने ऐसे किसी सूचना से इंकार करते हुए कहा कि अगर कोई मदद के लिए गया था तो मुक्तांगन को मदद करनी चाहिए थी. मुक्तांगन में कितने बच्चे वर्तमान में रह रहे हैं जांच की जायेगी. पूरे घटना के बारे में पूछताछ की जायेगी.
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