Holi 2023: उत्तर प्रदेश सहित पूरे देश में होली की तैयारियां शुरू हो गई हैं. रेलवे ने इस पर्व पर लोगों की सुविधाओं के मद्देनजर कई होली स्पेशल ट्रेन चलाने का फैसला किया है तो बाजार भी रंगों के पर्व को लेकर तैयार है. होली के मौके पर लोक परंपराएं एक बार फिर जहां इस पर्व का आंनद कई गुना बढ़ाती नजर आएंगी, वहीं वीर बुंदेलों की धरती बुंदेलखंड में होली का अलग रूप ही देखने को मिलेगा.
बुंदेलखंड में यहां जुदा है होली मनाने का अंदाज
बुंदेलखंड के विभिन्न इलाकों में होली को लेकर अपनी मान्यताएं हैं, जिनका पालन आज भी लोग कर रहे हैं. इस वजह से यहां इस पर्व को मनाने का अंदाज अन्य क्षेत्रों से अलग है. पूरे देश में जहां होली के मौके पर लोग अबीर गुलाल और रंगों से सने होते हैं, वहीं बुंदेलखंड के बांदा जनपद में लोगों के चेहरे और कपड़ों पर धूल और कीचड़ ही नजर आता है.
धूल-कीचड़ से हर कोई रहता है सराबोर
पहली नजर में देखने पर लगता है कि लोग कहीं धूल-गुबार वाले इलाकों से होकर आ रहे हों. लेकिन, जब हर शख्स ऐसा ही दिखता तो पता चलता है कि इसके पीछे की हकीकत कुछ और है. दरअसल बुंदेलखंड की धरा पर होली जलने के साथ पहले दिन धूल-कीचड़ से ही इस पर्व को उत्साह के साथ मनाया जाता है. वहीं भाईदूज से रंगों की बौछार होती है.
झांसी जनपद का एरच होली के लिए इसलिए है खास
मान्यता है कि बुंदेलखंड के झांसी जनपद में एरच धाम होली का उद्गम स्थल है. एरच ही पूर्व में हिरण्यकश्यप की राजधानी एरिकेच्छ था और यहीं होलिका ने भक्त प्रहलाद को गोद में बैठाकर जलाने की कोशिश की थी. होलिका के जलकर भस्म होने और प्रहलाद के सकुशल बचने के बाद लोगों ने धूल की होली खेलकर अपनी खुशी का इजहार किया था, तभी से ये इस क्षेत्र की परंपरा का हिस्सा बन गया, जिसका लोग आज तक पालन कर रहे हैं.
परेवा में पूरे दिन कीचड़ और धूल की खेली जाती है होली
होलिका दहन के बाद स्थानीय लोग होलिका की पूजा और परिक्रमा करते हैं. इसके बाद पूरे देश में जहां लोग रंगों से सरोबार होने लग जाते हैं, वहीं इसके विपरीत बुंदेलखंड के इस हिस्से में युवा रात से ही कीचड़ और धूल को रंगों की तरह इस्तेमाल करते नजर आते हैं. प्रतिपदा यानी परेवा में पूरे दिन कीचड़, गोबर और धूल की ही होली खेली जाती है. लोग खुशी से एक दूसरे पर धूल-मिट्टी, कीचड़, गोबर लगाकर होली का आंनद मनाते हैं. इसके पीछे एक तर्क ये भी दिया जाता है कि अन्नदाताओं की फसल पकने के बाद घर आने की खुशी वह इस तरह मनाते हैं. कीचड़ और गोबर की होली में बुंदेलों में सौहार्द और प्रेम झलकता है, इसलिए इसकी खुशी वह बढ़चढ़कर मनाते हैं.
पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही परंपरा
कुछ बुजुर्गों के मुताबिक यूं तो धूल की होली का कहीं पौराणिक जिक्र नहीं मिलता है. लेकिन, वर्षों से ऐसा ही होता चला आ रहा है और एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को ऐसा करते देख आज भी इसका पालन कर रही है. बच्चे ने पिता को, पिता ने दादा और दादा ने परदादा को ऐसा करते देखा और होली के मौके पर धूल, मिट्टी, गोबर कीचड़ से लथपथ होकर आंनद महसूस करना एक अटूट परंपरा का हिस्सा बन गया. आज युवा भी इसका पालन कर रहे हैं. इसके बाद भाईदूज को सभी लोग सुबह से ही नए कपड़े पहनकर रंग-गुलाल की होली खेलते हैं. फगुआ महोत्सव के बीच जमकर रंगों का भी आंनद उठाते हैं.