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सपा में ”महाभारत” : मुख्यमंत्री अखिलेश के विद्रोह के निहितार्थ

नीरजा चौधरी, राजनीतिक विश्लेषकसपा मुखिया मुलायम के कुनबे में मची राजनीतिक-पारिवारिक हलचल के बीच प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के विद्रोह के बड़े निहितार्थ हैं, खासतौर से समाजवादी पार्टी के लिए. पार्टी पर बड़े खतरे नजर आने लगे हैं. अखिलेश ने बहुत ही अच्छी तरह से बीते साढ़े चार-पांच साल से अपनी सरकार चलायी है […]

नीरजा चौधरी, राजनीतिक विश्लेषक
सपा मुखिया मुलायम के कुनबे में मची राजनीतिक-पारिवारिक हलचल के बीच प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के विद्रोह के बड़े निहितार्थ हैं, खासतौर से समाजवादी पार्टी के लिए. पार्टी पर बड़े खतरे नजर आने लगे हैं. अखिलेश ने बहुत ही अच्छी तरह से बीते साढ़े चार-पांच साल से अपनी सरकार चलायी है और इसी आधार पर अगले चुनाव में भी उन्हें पूरी उम्मीद है कि वे कुछ बेहतर करेंगे. लेकिन, इसी बीच मुलायम कुछ ऐसा बयान दे देते हैं, जो अखिलेश की सकारात्मक छवि को नुकसान पहुंचानेवाली होती है. अखिलेश के विद्रोही तेवर अपनाने के पीछे कई अन्य कारण भी हैं. एेसे मामलों से ही निकल कर अखिलेश का विद्रोह हमारे सामने आया है कि एक प्रदेश का मुख्यमंत्री अपने पिता के उलट बात कर रहा हो, जबकि वह पिता खुद पार्टी का मुखिया है. आज उत्तर प्रदेश के आदमी या औरतों से अगर आप अखिलेश सरकार के बारे में पूछें, तो ज्यादातर लोग यही कहेंगे कि बीते साढ़े चार-पांच साल में अखिलेश ने काफी अच्छा काम किया है. हां, यदि लॉ एंड ऑर्डर को छोड़ दें (जो कुछ कमजोर रहा है), तो बाकी विकास के रास्ते पर अखिलेश निरंतर आगे बढ़े हैं.

मुलायम की बड़ी भूमिका

उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव के लिए अखिलेश का काम और प्रदेश का विकास ही यूएसपी है और इसी आधार पर जब वे प्रदेश की जनता से वोट मांगने जा रहे हैं, तभी मुलायम सिंह आकर उनको लताड़ देते हैं. कभी पार्टी अध्यक्ष के पद से हटा देते हैं, तो कभी यह कह देते हैं कि अगला मुख्यमंत्री चुनाव बाद विधायक दल तय करेगा. यानी अखिलेश को कमजाेर करने की जो प्रक्रिया पिछले दिनों हुई है, वह समझ से परे है, क्योंकि इसमें मुलायम की बड़ी भूमिका है. अगर एक मिनट को भूल भी जाया जाये कि अखिलेश यादव मुलायम के पुत्र हैं, लेकिन यह तो नहीं भूलना चाहिए न कि अखिलेश प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं, ऐसे में मुलायम द्वारा अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री को कमजोर करने का क्या अर्थ है? ध्यान रहे, मुलायम के कुनबे में मची इस खींचतान की शुरुआत अखिलेश ने कतई नहीं की. ऐसे में अगर अखिलेश यह चाहते हैं कि पार्टी उनके नाम और काम पर ही वोट मांगने जा रही है, इसलिए उनको इस बात का पूरा हक हो कि उसमें उनकी निर्णायक भूमिका हो, तो उनका यह सोचना कहीं से भी गलत नहीं है. अब जो अखिलेश आगामी तीन नवंबर को ‘समाजवादी विकास रथ यात्रा’ की शुरुआत करने जा रहे हैं, तो इससे वे दबाव की राजनीति शुरू कर रहे हैं. जाहिर है, बीते पांच साल की अपनी मेहनत को वे पार्टी और परिवार की खींचतान में बरबाद नहीं कर सकते. इसलिए अब वे अकेले निकल पड़े हैं.

अखिलेश को कमजोर करने की कोशिश
इस पूरे मसले पर प्रदेश के बूढ़े-बुजुर्ग तो यहां तक कहने लगे हैं- आखिर मुलायम को हो क्या गया है? और मुझे यह बात बहुत अचंभित करती है कि महज कुछ महीनों में ही सपा में खुदकुशी करने की तमन्ना कैसे पैदा हो गयी है? मुलायम एक मंझे हुए नेता हैं. चुनाव के पहले एक मंझा हुअा नेता तो ऐसा कोई काम नहीं करता, जिससे पार्टी में विद्रोह की स्थिति बने और उसका राजनीतिक फायदा विपक्षी पार्टियों को मिले. यह हो सकता है कि बीते दिनों के मुलायम के कुछ बयानों के पीछे उन पर कोई दबाव काम कर रहा हो, जिसकी मुझे जानकारी नहीं है, लेकिन यह तो साफ है कि अखिलेश को कमजोर करने की कोशिशें हुई हैं. पार्टी में अमर सिंह को वापस लाना और कौमी एकता दल के विलय को लेकर काफी अटकलबाजियां हैं कि ये सब कैसे संभव हुआ और किसने किया? पार्टी में अखिलेश के खिलाफ जाकर उनके अपने लोगों को बाहर क्यों किया गया? ये सब सवाल कम, अटकलबाजियां ज्यादा हैं, जो एक पार्टी के रूप में सपा के लिए बहुत नुकसानदायक हैं. कुछ दिनों पहले एक सर्वे आया था कि प्रदेश में फिर से सपा की सरकार बनेगी, लेकिन घमसान शुरू होने के बाद लगने लगा है कि यह मुश्किल होगा.

सपा को हो सकता है नुकसान
इन सब खींचतान के चलते अगर सपा को थोड़ा-बहुत नुकसान होता है, तो इसका राजनीतिक फायदा भाजपा को होगा. लेकिन, अगर ज्यादा नुकसान होता है, तो मुसलिम वोट बसपा की ओर शिफ्ट हो जायेगा और बसपा मजबूत हो जायेगी. यहां एक और सवाल है, जिस पर ‘समाजवादी विकास रथ यात्रा’ की कामयाबी-नाकामयाबी के बाद ही कुछ कहा जा सकता है. वह यह कि अगर खींचतान नहीं थमी, अखिलेश का विद्रोह बढ़ गया और साल 2012 की तरह इस बार भी वे अपनी साफ छवि के दम पर अकेले चुनाव प्रचार में निकल पड़े, तो हाल-फिलहाल उत्तर प्रदेश की राजनीति का क्या कुछ होगा, कुछ कहना मुश्किल है, लेकिन आगामी लंबे समय के लिए अखिलेश की अपनी राजनीति बदल सकती है. लेकिन, इसके लिए एक बड़ा मसला संगठन का है, मजबूत संगठन के बिना मजबूत राजनीति संभव नहीं हो सकती. अगर अखिलेश का मनमुटाव शिवपाल यादव से होता है, तो 80 प्रतिशत पार्टी अखिलेश के साथ जायेगी. लेकिन, अगर अखिलेश का मनमुटाव मुलायम से होता है, तो ठीक इसका उल्टा होगा. फिलहाल पार्टी में गतिरोध बना हुआ है और इससे सपा की छवि भी खराब हुई है. अब यह स्थिति पार्टी को कितना नुकसान पहुंचायेगी और इस बीच अखिलेश अपनी राजनीति को कैसे बचायेंगे, यह तो आनेवाला समय ही बतायेगा. लेकिन, इसकी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इन सब विवादों के चलते आनेवाले दिनों में समाजवादी पार्टी को बहुत नुकसान होनेवाला है.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

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