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दवाई दोस्त-1 : ऐसे हुई दवाई दोस्त की शुरुआत

गरीब भारतीयों का संघर्ष देख मिली प्रेरणा लंदन से रांची आ कर एक प्रवासी भारतीय राजीव बरोलिया और रांची के व्यवसायी पुनीत पोद्दार ने संयुक्त रूप से चैरिटी के तहत दवाई दोस्त नाम से दुकान खोली. इस दुकान में सिर्फ जेनरिक दवाएं ही मिलती हैं. जो काफी सस्ती हैं.ब्रांडेड के मुकाबले जेनरिक दवाइयां कैसे सस्ती […]

गरीब भारतीयों का संघर्ष देख मिली प्रेरणा
लंदन से रांची आ कर एक प्रवासी भारतीय राजीव बरोलिया और रांची के व्यवसायी पुनीत पोद्दार ने संयुक्त रूप से चैरिटी के तहत दवाई दोस्त नाम से दुकान खोली. इस दुकान में सिर्फ जेनरिक दवाएं ही मिलती हैं. जो काफी सस्ती हैं.ब्रांडेड के मुकाबले जेनरिक दवाइयां कैसे सस्ती होती हैं और आम लोग कैसे इससे लाभान्वित हो सकते हैं, उस पर राजीव बरोलिया की ही रिपोर्ट.
मैं 1976 से यूके में रहनेवाला प्रवासी भारतीय हूं. मेरी उम्र 51 वर्ष है और मैं फोरेंसिक अकाउंटिंग में एक चार्टर्ड अकाउंटेंट हूं. मेरे पिता सेवानिवृत्त (रिटायर्ड) डॉक्टर हैं और 1974 में भारत से इंग्लैंड आ गये. मुङो टाइप टू डायबिटीज (मधुमेह) है.
पिछले कुछ वर्षो से अक्सर मेरा रांची आना-जाना होता रहा है. वहां मेरे कुछ अच्छे पारिवारिक मित्र हैं. इनमें से मेरे कुछ परिजनों/मित्रों की दवा की दुकानें हैं, जहां मैं कुछ घंटे बिताता भी हूं.
डायबिटिक (मुधुमेह रोगी) होने के कारण मुङो भी इस रोग के लक्षणों और इसकी दवाओं की थोड़ी-बहुत जानकारी हो गयी है. इसी दौरान मुङो पता चला कि गरीब भारतीयों को इन दवाओं का खर्च वहन करने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता है. एक मधुमेह रोगी के लिए सबसे बड़ी निराशा की बात है कि उसे जीवन भर दवाओं का सेवन करना पड़ता है. गरीब परिवारों, जहां बहुत बार कमानेवाला सिर्फ एक व्यक्ति होता है, वहां इसका सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है.
एक व्यक्ति जिसकी कमाई प्रति माह 10 हजार रुपये है, उसके लिए परिवार के कई मधुमेह रोगियों पर खर्च करना बहुत ही कठिन है. ऐसे में बीमार व्यक्ति खर्च के कारण नियमित रूप से दवा नहीं ले पाते हैं. भारत में मधुमेह रोगियों की संख्या बहुत अधिक है और मधुमेह की दवाइयां काफी दिनों से मिल रही हैं. ये दवाइयां काफी सस्ती होनी चाहिए.
इन दवाओं के निर्माण की लागत काफी कम होती है-इन दवाइयों के केमिकल इतने सस्ते हैं कि अक्सर इसकी पैकिंग का खर्च दवाई से ज्यादा होता है.
भारत में जेनरिक दवाएं इतनी महंगी क्यों हैं? फोरेंसिक अकाउंटेट होने के नाते और मेरे पास पर्याप्त समय होने के कारण मैंने इस प्रश्न की गहराई तक जाने के लिए सोचा. भारत में दो तरह की दवाएं बिकती हैं – ब्रांडेड और जेनरिक.
वैश्विक संदर्भ में देखें, तो कोई भी कंपनी ब्रांडेड दवाओं के निर्माण के लिए काफी शोध, जांच, जानवरों पर इनके प्रयोग, कई तरह के परीक्षण करती है और विभिन्न देशों में इसके प्राधिकरण खरीदती है. इनमें से अधिकतर प्रयास विफल होते हैं और उन्हें फिर से शुरुआत करनी पड़ती है और तब तक यह प्रयास जारी रहता है, जब तक वे एक उपयोगी और सुरक्षित दवा न खोज सकें.
इस प्रक्रिया में अक्सर 10 वर्ष या उससे अधिक का समय और करोड़ों/अरबों डॉलर खर्च हो जाते हैं. कंपनियों को नयी दवाओं की खोज में निवेश करने व प्रोत्साहित करने के लिए दवा कंपनियों को इसका अधिकार (पेटेंट) मिलता है, जिसका मतलब होता है कि अगले 15-20 वर्षो तक कोई दूसरा इस संयोजन से नया प्रोडक्ट नहीं ला सकता है. इसके पीछे कंपनी द्वारा निवेश और उससे मिलनेवाले लाभ मुख्य कारण होते हैं. मुङो बताया गया कि भारत में ऐसी सिर्फ एक दवा की खोज की गयी है.
वास्तव में भारत में लगभग सभी ब्रांडेड दवाएं जेनरिक दवा ही हैं. इन दवाओं की वास्तविक खोज करनेवाली कंपनियों के पेटेंट खत्म होने के बाद भारतीय कंपनियां इनका निर्माण करती हैं.
भारतीय डॉक्टर ब्रांड नाम से इन दवाओं को लिख रहे हैं. कंपनियां इनके फॉमरूले लेकर इन दवाओं को बनाती हैं और अपने ब्रांड नाम के साथ बाजार में उतारती हैं. इजिथ्रोमाइसिन (एक आम एंटीबायोटिक) के अलग-अलग तरह के 1300 से अधिक ब्रांड बाजार में उपलब्ध हैं और 0.73 रुपये /टैबलेट से लेकर 50 रुपये तक में मिलते हैं.
भारत में मधुमेह के टाइप टू की सबसे आम दवा मेटफॉर्मिन के 270 से अधिक ब्रांड उपलब्ध हैं, जिनकी कीमत 0.08/टैबलेट से लेकर 10.00/टैबलेट है. दवाओं में सबसे अधिक खर्च करनेवाले देश अमेरिका से 30 गुणा अधिक ब्रांड भारत में उपलब्ध हैं. आखिर हमें भारत में इतने ब्रांड की जरूरत क्यों पड़ती है? इसे ब्लूमबर्ग के इस बयान से आसानी से समझा जा सकता है.
‘आवश्यक दवाओं की बिक्री के बारे में विस्तृत सूचना रखनेवाली रिपोर्ट के अनुसार भारत में 92000 से अधिक प्रकार की दवा (औषध) सरकार से रजिस्टर्ड हैं. इसकी तुलना में वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन सिर्फ 340 दवाओं को मान्यता देता है. अमेरिका और यूरोप में बिकनेवाली दवाओं से कम से कम 30 गुणा अधिक ब्रांड्स की दवाई भारत में बिकती हैं.
लगभग 90 प्रतिशत स्थानीय प्रिसक्पिसन में जेनरिक दवाएं प्रेसक्राइब की जाती हैं और दवा निर्माता इन्हें अनोखे नाम से इनमें विभेद करते हैं. उदाहरण के लिए कोलेस्ट्रॉल के लिए मर्क की गोली ‘जोकोर’ को रैनबैक्सी सिमवाटिन, सिप्ला सिमकार्ड और लुपिन स्टारस्टैट के नाम से बेचती है. मिम्स (एक मेडिकल डैरेक्टरी के अनुसार ब्रांडेड जेनरिक दवाओं की कीमत में पांच गुना तक का अंतर आ जाता है.
इन ‘ब्रांडेड’ दवाओं का महंगा होने का एक मुख्य कारण यह है कि कंपनियां अपने प्रतिनिधियों को डॉक्टरों के पास भेजती हैं, ताकि वह डॉक्टरों को दूसरी कंपनियों के बजाय उनकी दवा लिखने के लिए राजी कर सकें. विभिन्न ब्रांडों के बीच जबरदस्त प्रतियोगिता होती है और बताया गया कि मरीजों को दवा लिखने के लिए डॉक्टरों को कंपनियां प्रेरित भी करती हैं.’ इन महंगी दवाओं का मूल्य कौन चुकाता है? जाहिर है-आम गरीब पर यह बोझ पड़ता है.
जेनरिक दवाएं भी उपरोक्त दवाओं की तरह होती हैं. इनका निर्माण भी अक्सर यही कंपनियां करती हैं. इन दवाओं का थोक मूल्य ब्रांडेड दवाओं के अंश के बराबर होता है, क्योंकि इन दवाओं को प्रोत्सहन के लिए डॉक्टरों के पास मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव नहीं भेजा जाता और इनके प्रचार में भी ज्यादा खर्च नहीं किया जाता है. यहां दिया गया कंपरिजन चार्ट भारत में बिकनेवाली दवाओं का सार दर्शाता है. (जारी)
(स्व प्रेम कुमार पोद्दार और स्व रुक्मानंद बरोलिया की स्मृति में)
क्या है ‘दवाई दोस्त’?
एक गैर लाभकारी संगठन है, जहां ब्रांडेड जेनरिक दवाओं पर 50 से लेकर 85 प्रतिशत तक की छूट दी जाती है.

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