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झारखंड में स्थायित्व की तलाश

रांची: नवसृजित झारखंड राज्य ने अपने जन्म काल से ही राजनीतिक अस्थिरता की पीड़ा ङोली है. लगभग 13 साल के अपने अस्तित्व की अवधि में इस राज्य में आठ सरकारें बनी हैं. तीन बार राष्ट्रपति शासन लगा है. एक मुख्यमंत्री की सबसे ज्यादा दिनों की कार्यवाही 860 दिनों की रही है. शिबू सोरेन की सरकार […]

रांची: नवसृजित झारखंड राज्य ने अपने जन्म काल से ही राजनीतिक अस्थिरता की पीड़ा ङोली है. लगभग 13 साल के अपने अस्तित्व की अवधि में इस राज्य में आठ सरकारें बनी हैं. तीन बार राष्ट्रपति शासन लगा है. एक मुख्यमंत्री की सबसे ज्यादा दिनों की कार्यवाही 860 दिनों की रही है. शिबू सोरेन की सरकार तो मात्र 10 दिनों की थी.

बदस्तूर जारी राजनीतिक अस्थिरता ने छोटे राज्यों की अवधारणा पर ही सवाल खड़े कर दिये हैं. राजनीतिक विचारक छोटे राज्य की वकालत राज्य में अच्छे शासन व विकास के लिए करते हैं, लेकिन झारखंड में इसके विपरीत कुशासन, भ्रष्टाचार व छोटे दलों द्वारा राजनीतिक सौदेबाजी और भयादोहन के घृणित रूप को देखा है. इन वजहों से राजनीतिज्ञों और बुद्धिजीविओं में इस बात की बहस छिड़ चुकी है कि खनिज संपदा से संपन्न इस राज्य में राजनीतिक स्थिरता कैसे कायम की जा सके, ताकि विकास की गाड़ी निरंतर चलते रहे. एक विकल्प, जिस पर सभी राजनीतिक दल सहमत दिखते है, वह यह है कि अगर राज्य विधानसभा की सीटें बढ़ा दी जायें, तो शायद स्थिरता बहाल हो सके. राजनीतिज्ञों का यह मानना है कि अगर सीटें बढ़ती हैं, तो विविधताओं से भरे इस राज्य में लोगों को ज्यादा से ज्यादा भागीदारी मिलेगी. झारखंड विधानसभा ने तो पांच बार इस संदर्भ में प्रस्ताव पारित कर केंद्र को भेजा है.

यहां गौर करनेवाली बात यह है कि छोटे राज्य यथा छत्तीसगढ़, हरियाणा व हिमाचल प्रदेश में लोग कैसे स्पष्ट बहुमत देते हैं. इसलिए इस सवाल का जवाब झारखंड के चुनावी इतिहास, भौगोलिक परिस्थिति के व्यापक पैमाने पर ढूंढ़ना होगा. झारखंड में कहा जाता है कि चार दिल छोटानागपुर, सिंहभूम, पलामू और संताल परगना हैं. एक जगह की धड़कन को अन्य जगह के लोग महसूस नहीं कर पा रहे हैं. झारखंड परिक्षेत्र में, जो एकीकृत बिहार में दक्षिण बिहार के नाम से जाना जाता था, अक्सर (एक-दो चुनाव को छोड़ कर) खंडित जनादेश मिलता था. स्वतंत्रता के बाद क्षेत्रीय दल इसलिए फले-फूले, क्योंकि पटना में बैठे शासक दल झारखंड के इलाके पर ध्यान नहीं देते थे.

झारखंड पार्टी को 1951 के चुनाव में 32 सीटें मिली थीं. झारखंड गठन के बाद क्षेत्रीय पार्टियां व स्वतंत्र विधायक इसलिए बढ़े, क्योंकि मतदाता के सामने राष्ट्रीय दल विकास की बड़ी तसवीर पेश नहीं कर पाये. मतदाता कमोबेश व्यक्तिगत लाभ व कारणों से अपने मतों का प्रयोग करते रहे हैं. अगर बड़ी पार्टियां विकास की बड़ी लकीर खींचती हैं, एक बड़े विकास के मॉडल को सामने लाती हैं, जिससे पूरे समाज का भला हो और उस पर अमल करने का भरोसा दिला पाती हैं, तो मुङो लगता है कि मतदान करने के कारण बदल जायेंगे और उस पार्टी को बहुमत मिल सकता है, जिसका मॉडल ज्यादा विश्वास दिला पाता है. यह भी समझना होगा कि गंभीर क्षेत्रीय दल भी सिर्फ पहचानवादी राजनीति (पॉजिशन ऑफ आइडेंटिटी) नहीं कर रहे हैं. इस बात को भलीभांति जान चुके हैं कि पॉजिशन ऑफ आइडेंटिटी का कोई खास राजनीतिक महत्व नहीं है. बाबूलाल मरांडी की पार्टी भी विकास का राग गाती है. सुदेश महतो भी पहचान बचाने व विकास का वायदा कर रहे हैं, पर ठोस विकास का कोई मॉडल पेश नहीं कर पाये. नीतीश कुमार ने बिहार में, जहां कभी जातिवादी राजनीति करनेवालों का बोलबाला थो, विकास की बड़ी लकीर खींची.

झारखंड में यह भी विडंबना रही कि क्षेत्रीय दल भी लोगों की आकांक्षा पूरी करने में नाकाम रहे हैं. क्षेत्रीय दलों खासकर जेएमएम व झारखंड पार्टी में कई विभाजन हुए, क्योंकि इनके नेतागण लोगों की आकांक्षा पूरी नहीं कर सके.

झारखंड राज्य का गठन भी सिर्फ आदिवासी की पहचान बचाने के आधार पर नहीं हुई. इस राज्य का गठन तब हो सका, जब विभिन्न दल सदियों की उपेक्षा के कारण यहां के पिछड़ेपन से उबरने के लिए विकास की आवश्यकता पर सोचने को मजबूर हुए. (जारी ) (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

यह कतई नहीं मानना है कि क्षेत्रीय दल विकास नहीं कर सकते हैं, पर जो पार्टी विकास की नयी तसवीर पेश कर मत डालने के ट्रेंड में बदलाव लाती है, वह जनता को प्रिय हो सकती है और स्थायित्व ला सकती है.

विडंबना है कि कांग्रेस का इस इलाके पर हमेशा से वर्चस्व था, पर इस दिशा में कभी नहीं सोचा. इसकी सारी शक्ति क्षेत्रीय पार्टियों को विलय करने में लगी रहती थी, लेकिन इसका उलटा असर पड़ा. यह अनुमान था कि झारखंड पार्टी के विलय के बाद कांग्रेस बड़ी शक्ति के रूप में उभरेगी, पर इसका उलटा असर हुआ.

भाजपा ने वर्ष 2000 के चुनाव में 34 सीटें जीती. भाजपा को यह मत जनता से झारखंड निर्माण के वायदे के आधार पर मिले थे. भाजपा भी कोई ठोस विकास का मॉडल नहीं पेश कर सकी. इस पार्टी के नेतृत्व की सारी शक्ति छोटे दलों को सरकार चलाने के लिए मनाने में लगी रहती थी. जब कभी विकास की गाड़ी आगे बढ़ाने की कोशिश की, क्षेत्रीय दलों ने इसके चक्के को पंचर कर दिया.

विकास व स्थायित्व की ललक हाल में हुए उत्तर-पूर्व के तीन राज्यों त्रिपुरा, मेघालय व नागालैंड में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे से दिखती है. इन राज्यों में पहले कमजोर गंठबंधन की सरकारें बनती रहीं, जो अस्थिरता की मुख्य वजह रहती थी. अब वहां लोग जागरूक हो गये हैं. वे अपने मताधिकार के प्रयोग के महत्व को समझने लगे हैं. वहां की जनता ने ऐसी सरकार की आवश्यकता महसूस की, जो उसके जीवन स्तर को बढ़ाने के लिए परिस्थति पैदा कर सके.

अगर विकास का मंत्र उत्तर-पूर्वी राज्यों, जहां पॉलिटिक्स ऑफ गन हुआ करती थी, में काम कर सकता है, बिहार जैसे जातिवादी समाज (पॉलिटिक्स ऑफ आइटेंटिटी) में राजनीतिक स्थिरता दिखा सकता है, तो झारखंड में सफल क्यों नहीं हो सकता है! आवश्यकता इस बात की है कि बड़ी पार्टियां अपनी जिम्मेवारी समङो व विकास की बड़ी लकीर खींच कर पूरे झारखंड को एक माला में पिरोने का काम करें, तब राजनीतिक स्थिरता आयेगी. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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