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चर्च के भारतीयकरण की प्रक्रिया और बहस

रांची: पिछले दिनों रांची के सिंगपुर पल्ली में मरियम तीर्थालय का उदघाटन हुआ, जिसमें माता मरियम की प्रतिमा लाल पाड़ की सफेद साड़ी में दर्शायी गयी है. उनकी गोद (स्थानीय भाषा में बेतरा) में बालक यीशु की प्रतिमा भी है. यह जानकारी मिलते ही कई सरना आदिवासी संगठनों ने विरोध किया और प्रतिमा हटाने की […]

रांची: पिछले दिनों रांची के सिंगपुर पल्ली में मरियम तीर्थालय का उदघाटन हुआ, जिसमें माता मरियम की प्रतिमा लाल पाड़ की सफेद साड़ी में दर्शायी गयी है. उनकी गोद (स्थानीय भाषा में बेतरा) में बालक यीशु की प्रतिमा भी है. यह जानकारी मिलते ही कई सरना आदिवासी संगठनों ने विरोध किया और प्रतिमा हटाने की मांग शुरू कर दी.

उनका आरोप है कि सरना आदिवासियों के बीच स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए मरियम व यीशु को आदिवासी दिखाने का प्रयास किया गया है़ यह खुद को आदिवासी रूढ़ियों व परंपराओं से जुड़ा दिखाने की कोशिश है. उधर, दूसरे पक्ष का कहना है कि प्रतिमा की स्थापना ईसाई आदिवासियों द्वारा अपनी आस्था को अपने परिवेश में जीने का प्रयास है. कपड़े के रंग या बच्चे को गोद लेने के तरीके को किसी धर्म-जाति से जोड़ना ठीक नहीं. देश में ईसाईयत का इतिहास दो हजार व झारखंड में 166 साल का है. इस लंबे सह अस्तित्व का एक-दूसरे पर असर स्वाभाविक है.

रॉबर्ट डिनोब्ली थे अग्रदूत
चर्च के भारतीयकरण की प्रक्रिया काफी पहले शुरू हुई. यह प्रार्थना, गीत व भजन की भाषा, पुरोहितों की पोशाक व रंग और रहन-सहन के तौर-तरीकों के संदर्भ में रही है. रॉबर्ट डिनोब्ली (1577- 1656) को दक्षिण भारत में चर्च के भारतीयकरण का अग्रदूत माना गया है.

उस समय, चर्च ने ही वर्ष 1740 में मालाबार राइट पर बंदिश लगा दी थी. ब्रह्नाबंधु उपाध्याय (1861- 1907) व साधु सुंदर सिंह (1889- 1929) ने भारतीय आध्यात्मिक परंपराओं के साथ मसीही विश्वास को जीने का प्रयास किया. स्वामी दयानंद (1906- 1993) ने भारतीय संन्यासियों की तरह आश्रम में रहने की परंपरा शुरू की. इस समय देश में 110 से अधिक मसीही आश्रम हैं.

चर्च में जब भी बदलाव हुए हैं, तब-तब अंदर और बाहर काफी बहस हुई है. दूसरी ओर, राजा राममोहन राय, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद व महात्मा गांधी की समाज सुधार से जुड़ी बातों में भी ईसा मसीह की नैतिक शिक्षा की झलक भी दिखी है.

सीखी कुड़ुख, मुंडारी
प्रोटेस्टेंट चर्च से जुड़े रेव्ह मनमसीह एक्का ने बताया कि 1845 में झारखंड आनेवाले प्रथम जर्मन मिशनरियों ने बांकुड़ा में रह कर हिंदी सीखी थी़ पर, जब छोटानागपुर पहुंचे, तब उन्होंने स्थानीय भाषाओं का महत्व समझा. इसलिए जर्मन मिशनरी फर्दीनंद हान (1846- 1910) ने उरांव व असुर भाषाओं का अध्ययन किया व बाइबल के कुछ हिस्सों का कुडुख में अनुवाद किया.

ऑल्फ्रेड नोत्रोत (1837-1924) ने भी बाइबल के पुराने व नये नियम का मुंडारी में अनुवाद किया. आज बाइबल का अनुवाद कई स्थानीय भाषाओं में हो चुका है. चर्च में आज उरांव, मुंडारी व सादरी मसीही गीत व भजन गाये जाते हैं. फादर जेपी पिंटो ने बताया क कैथोलिक चर्च में वर्ष 1970 से अंगरेजी, हिंदी व अन्य भाषाओं में मिस्सा चढ़ाने की परंपरा शुरू हुई.

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