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फोटो .. नॉर्थ.. लोकतंत्र में सुधारों की राजनीति

प्रो अरविंद कुमार सिन्हा जे जे कॉलेज, कोडरमाइंट्रो– समाजवादी की बुनियाद पर बात करने वाले लोग विचारधारा के कारण ही कई महान प्रतिमूर्ति अपने महान कार्यों व विचारों के कारण भारतीय इतिहास में कई प्रेरक अध्याय से जुड़े. परंतु लोकतंत्र का बदलता स्वरूप चुनाव व्यवस्था, दल व्यवस्था और सत्ता संचालन की संस्कृति इन तीनों ही […]

प्रो अरविंद कुमार सिन्हा जे जे कॉलेज, कोडरमाइंट्रो– समाजवादी की बुनियाद पर बात करने वाले लोग विचारधारा के कारण ही कई महान प्रतिमूर्ति अपने महान कार्यों व विचारों के कारण भारतीय इतिहास में कई प्रेरक अध्याय से जुड़े. परंतु लोकतंत्र का बदलता स्वरूप चुनाव व्यवस्था, दल व्यवस्था और सत्ता संचालन की संस्कृति इन तीनों ही मोरचा पर गंभीर रूप से अव्यवस्था की शिकार बनती दिखी. इसलिए चुनावी उलटफेर का असर अराजकता पैदा नहीं करता है. क्योंकि चुनावी अभियानों की जुगलबंदी ने जनचेतना और लोकशक्ति को अपने प्रभाव क्षेत्र में शामिल कर लिया है.भ्रष्टाचार के खिलाफ या जनलोभ के पक्ष में चलाये जा रहे आंदोलन या अन्य जन आंदोलन सभी एकजुट हो रहे हैं और इसी जन आंदोलन की ताकतों से एक नया समीकरण समन्वय में उपहार पर वैकल्पिक राजनीति का खाका तैयार करने में अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहा है. लोकतंत्र में सुधारों की राजनीति है. नया दौर दिखता पड़ रहा है. आज दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में हमें अपनी सफलता और असफलता को जांचने की कसौटी इस बात की याद दिलाता है कि 67-68 वर्षों में देश के सबसे कमजोर आदमी के आंसू पोंछ लोने के वादे से हम कितने पीछे हैं. जिस यात्रा की शुरुआत गांधी जी ने लोकतांत्रिक समता मूलक मान्यताओं को समाहित करते हुए की, उसमें धीरे-धीरे स्थानीय, जातिगत, धार्मिक, भाषाई या सामुदायिक वफादाररियों ने जगह ले ली. समाजवादी की बुनियाद पर बात करने वाले लोग विचारधारा के कारण ही कई महान प्रतिमूर्ति अपने महान कार्यों व विचारों के कारण भारतीय इतिहास में कई प्रेरक अध्याय से जुड़े. परंतु लोकतंत्र का बदलता स्वरूप चुनाव व्यवस्था, दल व्यवस्था और सत्ता संचालन की संस्कृति इन तीनों ही मोरचा पर गंभीर रूप से अव्यवस्था की शिकार बनती दिखी. इसलिए चुनावी उलटफेर का असर अराजकता पैदा नहीं करता है. क्योंकि चुनावी अभियानों की जुगलबंदी ने जनचेतना और लोकशक्ति को अपने प्रभाव क्षेत्र में शामिल कर लिया है. 1990 के दशक के बाद से 2014 के मध्य तक गंठबंधन का दौर चला, लेकिन नीतियों के स्तर पर कोई परिवर्तन नहीं दिखा. क्योंकि उसमें आर्थिक नीतियां तैयार करते वक्त मतदाताओं की अपेक्षाएं व आकांक्षाओं की जरूरतों को ध्यान में सही रूप से नहीं रखा गया. दोहरेपन के आरोपियों का कहना है कि उनके तब और अब से रुख में प्रत्येक परिस्थिति और राजनीति गतिविधि में हमेशा ऐसा होता है. यादों से इस खेल में कम्युनिस्ट पार्टी या अन्य क्षेत्रीय पार्टियां ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी चुनावी राजनीति से दूर रहने के बावजूद भी नैतिकता के धरातल पर विजेता बन उभर रहे हैं. जिसका सीधा फायदा भारतीय जनता पार्टी को मिल रहा है. भारतीय जनता पार्टी ने अपना रुख महात्वाकांक्षा की राजनीति से सुशासन की राजनीति की ओर कर लिया, जिसमें आज देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उद्यमशीलता और ढांचागत विकास को अपना कुंजी बनाया और इस बदलते राजनीतिक लोकतंत्र में नया नारा दिया सबका साथ, सबका विकास. पिछले चार वर्षों से उद्योग संगठनों और रेटिंग एजेंसियों ने पिछले सरकार की नीतिगत फैसलों को सामने लाने का काम किया और यही कारण था कि सुधारों की अनुपस्थिति के कारण लोगों का मोह भंग होने लगा. इस संकट के बावजूद यह महत्वपूर्ण होता चला गया कि सुधार राजनीतिक बिरादरी के शब्दकोष से दूर हो गया है. इसका सीधा असर भारत की अर्थव्यवस्था पर पड़ा, इसी का फायदा उठा कर भारतीय जनता पार्टी ने जनसमर्थन प्राप्त कर लिया. पिछले कुछ समय की राजनीति आम आदमी के हित में नये सिरे से बात करने की कोशिश में लगी है. यही कारण है कि निवेशकों और उच्च, मध्य वर्ग का भरोसा जीतने के लिए सुधारों की बात करना जरूरी है. फिर भी राजनीतिक समय यही कहता है कि चुनाव जिताऊ चीजें बंदरबांट और लोकप्रियता ही है. क्योंकि भारत की एकता और लोकतंत्र की मजबूती के लिए इस तरह के सवालों का लोकतांत्रिक हल निकाल कर ही देश की लोकतंत्र की धारा को मजबूत करने का रास्ता निकाला जा सकता है. इसलिए वक्त की जरूरत है कि गरीबी, भ्रष्टाचार, लिंगभेद, जात-पात, धार्मिक उन्माद जैसी अवधारणा को समाप्त कर वर्तमान राजनीति का जो दौर चला है, उसमें बुनियादी सोच लाकर आम आदमी के हित में नीतियां तैयार की जाये. किसी भी देश की विचारधारा आर्थिक प्रयोग पर आधारित होते हैं. भारत में आर्थिक प्रयोग परिस्थितियों के अनुकूल रहे भी है, तो उन्हें प्रोत्साहन नहीं मिला. मिसाल के तौर पर समाजवाद को लीजिए. इसने 1960 के दशक तक आते-आते दम तोड़ दिया. राजनीतिक समझ यही कहती है कि चुनाव जिताऊ चीजें बंदरबांट और लोकप्रियता है. जब जन मानस बदलेगा, सुधारों की राजनीति अपनी पहचान स्वयं बना लेगी. आज राजनीतिक विकल्प के रूप में देश मजबूत हो रहा है. भ्रष्टाचार के खिलाफ या जनलोभ के पक्ष में चलाये जा रहे आंदोलन या अन्य जन आंदोलन सभी एकजुट हो रहे हैं और इसी जन आंदोलन की ताकतों से एक नया समीकरण समन्वय में उपहार पर वैकल्पिक राजनीति का खाका तैयार करने में अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहा है. लोकतंत्र में सुधारों की राजनीति है. नया दौर दिखता पड़ रहा है.

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