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झारखंड ही नहीं, विदेशों तक पहुंची जालान सत्तू की खुशबू, जालान परिवार ने बनायी अपनी एक अलग पहचान
राजेश कुमार रांची : रांची सहित झारखंड ही नहीं, विदेशों तक अपने उत्पादन की पहुंच बनायी है. छोटे जगहों से आटा और बेसन की बिक्री शुरू की गयी. कई उतार-चढ़ाव देखे. आज यह प्रोडक्ट घर-घर तक पहुंच गया है. हम बात कर रहे हैं अपर बाजार निवासी जालान परिवार की. जालान परिवार का इतिहास काफी […]
राजेश कुमार
रांची : रांची सहित झारखंड ही नहीं, विदेशों तक अपने उत्पादन की पहुंच बनायी है. छोटे जगहों से आटा और बेसन की बिक्री शुरू की गयी. कई उतार-चढ़ाव देखे. आज यह प्रोडक्ट घर-घर तक पहुंच गया है. हम बात कर रहे हैं अपर बाजार निवासी जालान परिवार की. जालान परिवार का इतिहास काफी पुराना है.
1953 में की स्थापना
1953 में स्वर्गीय शंकर लाल जालान ने जालान फ्लावर मिल की शुरुआत की. अपर बाजार के वेस्ट मार्केट रोड में सरकार अवतार सिंह की चक्की थी. इसे जालान परिवार ने लिया. प्रारंभ में आटा और बेसन की बिक्री शुरू की गयी. उस समय कागज के पैकेट में इसकी बिक्री होती थी.
हर जगहों पर पहुंचाया जालान सत्तू
आज के समय में रांची ही नहीं, झारखंड की विभिन्न जगहों के अलावा पुणे, सूरत, बेंगलुरु, अहमदाबाद सहित विदेशों में भी जालान का प्रोडक्ट पहुंच रहा है. वर्तमान में चार उत्पादन केंद्र हैं. अपर बाजार, टाटीसिलवे इंडस्ट्रियल एरिया, हजारीबाग और बनारस में उत्पाद केंद्र हैं. उत्पादन, गुणवत्ता और मार्केटिंग का काम विष्णु जालान देखते हैं.
पिताजी के तीन सिद्धांत
ज्ञान प्रकाश जालान कहते हैं कि पिताजी के तीन सिद्धांत हमेशा याद रहते हैं. वे कहते थे कि व्यावसायिक लाभ के लिए ईश्वर के नाम या चित्र का ब्रांड में प्रयोग नहीं करना. कभी भी कम वजन नहीं तौलना. साथ ही कभी भी मिलावट नहीं करना. इसे कभी नहीं भूलता हूं.
60 के दशक में अमेरिका से आता था लाल गेहूं
भारत में खाद्यान्न का संकट था. लोगों की क्रय शक्ति भी पहले कम थी. 60 के दशक में करार के तहत अमेरिका से पीएल 480 लाल गेहूं आता था. वहीं ऑस्ट्रेलिया से ऑस्ट्रेलियन गेहूं आता था. भारत में सरबती गेहूं का ज्यादा प्रयोग होता था. बाजार में तीन प्रकार के आटा की बिक्री होती थी.
सरबती गेहूं का आटा शेर छाप के नाम से बिकता था. यह 50 पैसे प्रति किलो था. ऑस्ट्रेलियन गेहूं का आटा की बिक्री जहाज छाप के नाम से होती थी. यह 0.45 पैसा प्रति किलो था और अमेरिकन गेहूं का आटा लालटेन छाप से नाम से बिकता था. यह 0.38 पैसा प्रति किलो बिकता था. पहले कागज के दोने में बेसन की बिक्री की जाती थी.
समय के साथ होता गया परिवर्तन
वे कहते हैं कि जैसे-जैसे समय बीतता गया, परिवर्तन होता गया. 11 साल की आयु से किराना दुकान का काम देखने लगा. पिता को आगे बढ़ने की रुचि थी. 1970 में जब सिनेमा में स्लाइड चलता था. प्रचार के लिए एक विज्ञापन का निर्माण कराया गया. हिंदी में रूपाश्री में और अंग्रेजी के लिए प्लाजा में आटा और बेसन का प्रचार कराया गया. उसी समय प्रीमियम रेंज में कपड़े की नयी थैली में मास्टर छाप आटा की बिक्री शुरू की गयी.
छह माह से अधिक समय के लिए बंद करना पड़ा मिल
1967 के अकाल में ऐसा मौका आया कि लगभग छह माह से अधिक समय के लिए मिल को बंद भी करना पड़ा. उस समय अनाज का घोर संकट था. मिलावट चरम सीमा पर थी. उस समय टोपिको आटा मद्रास से आता था. राशन में गेहूं आने लगा, तो आटा की बिक्री समाप्त हो गयी. धीरे-धीरे आटा की बिक्री को बंद करना पड़ा.
1984 में सत्तू का उत्पादन हुआ शुरू
वे कहते हैं कि पिता और भाई ने 1984 में सत्तू का उत्पादन शुरू किया. ऑर्गेनाइज सेक्टर में सत्तू नहीं बनता था. पहली बार मशीन से चना को भूंज कर पैकिंग में सत्तू को बेचना शुरू किया गया. चुनौतियां बहुत थीं.
लोग पैकिंग कॉस्ट नहीं देना चाहते थे. कभी भी क्वालिटी, क्वांटिटी, पैकिंग मैटेरियल के मापदंड से समझौता नहीं किया गया. समय के साथ सत्तू की गुणवत्ता को उन्नत मशीनों तथा आधुनिक तकनीक द्वारा बढ़ाया गया. पैकिंग में गैस बेरियर तथा वेट बेरियर पर विशेष ध्यान दिया गया, जिससे सत्तू पैक होने के बाद भी इसके गुण विद्यमान रहे.
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