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पतरातू घाटी : नाम गुम जाएगा… चेहरा ये बदल जाएगा
बदल गया है पतरातू घाटी का नजारा, पहले लगते थे तीन घंटे, अब सरपट भागती हैं गाड़ियां रंजीव घाटियों के बीच से सरपट भागती गाड़ी कब रांची से पतरातू पहुंच गयी, पता ही नहीं चला. बमुश्किल अाधे घंटे का वक्त लगा यह सफर तय करने में. कभी इतना रास्ता तय करना वाकई पहाड़ चढ़ने जैसा […]
बदल गया है पतरातू घाटी का नजारा, पहले लगते थे तीन घंटे, अब सरपट भागती हैं गाड़ियां
रंजीव
घाटियों के बीच से सरपट भागती गाड़ी कब रांची से पतरातू पहुंच गयी, पता ही नहीं चला. बमुश्किल अाधे घंटे का वक्त लगा यह सफर तय करने में. कभी इतना रास्ता तय करना वाकई पहाड़ चढ़ने जैसा हुअा करता था.
घुमावदार सड़कों पर रेंगती बसें ढाई-तीन घंटे से पहले पतरातू नहीं पहुंचाती थीं. वैसे, तब के उस सफर में गजब का रोमांच था.वादियों की जोखिम भरी पर रोमांचक अौर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर यात्रा को कुछ साल पहले चौड़ी की गयीं सरपट भागती सड़कों ने लील लिया.चढ़ावदार घाटियां अौर उसके तीखे मोड़ गुम हो गये. रांची से पतरातू तक की घाटी पहले ही बदल चुकी थी- अब घाटियों के अंतिम छोर पर बसे पतरातू या यूं कहें कि पतरातू थर्मल की बारी है. फर्क यह कि घाटियों की तरह यह सिर्फ बदलेगा नहीं- पूरी तरह खत्म हो जाएगा.
सत्तर से नब्बे के दशक के दौरान जब मैं अौर मेरे दोस्त पतरातू में बचपन अौर फिर जवान होने के दिन बिता रहे थे, तब पुराने लोग बताते थे कि साठ के दशक में जब पतरातू में बिजली घर बना, तब पूरा इलाका जंगल था. जंगली जानवरों की भरमार हुअा करती थी.
बेहद दुरूह हालातों में जान जोखिम में डाल कर बिजली विभाग के इंजीनियरों ने जंगलों के बीच एक अौद्योगिक कॉलोनी बसा दी. 840 मेगावाट क्षमता का पतरातू बिजलीघर वर्षों तक पूर्वी भारत की शान रहा अौर कई शहरों को बिजली सप्लाई का अहम स्रोत.
यह दीगर बात है कि दुर्गम अौर दुरूह हालातों में जिन्होंने इस प्रोजेक्ट को बनाया, पतरातू डैम बनवाया, बिजलीघर को वर्षों चलाया- उन इंजीनियरों के योगदान को भुला कर पतरातू थर्मल को नाकारा ठहराने का गये कुछ वर्षों में फैशन सा चला.
कुछ यूं कि गाय जब तक दूध दे, तब तक उसकी खूब जय-जय अौर उसके बाद उसे उसके हाल पर छोड़ देना.बहरहाल सरकारी फैसले में पतरातू अब अपनी पारी खेल चुका.
ये कमबख्त यादें… : पतरातू की पूरी व्यवस्था अब नये हाथों में जा चुकी है. कायाकल्प की तैयारी है.झारखंड विद्युत उत्पादन निगम अौर एनटीपीसी ने मिलकर संयुक्त उपक्रम बनाया है. पतरातू में रहने वालों के बीच इन दिनों चल रहे संवाद में एक लाइन रह-रह कर अाती है- ‘एनटीपीसी अा रहा है.’ इसमें उम्मीद भी है, तो तमाम अाशंकाएं भी. बदलाव प्रकृति का नियम है अौर पुराने की जगह नये को अाना ही है-लिहाजा पतरातू की सूरत को भी एक न एक दिन तो बदलना ही था. पर इन कमबख्त यादों का क्या करें!
साठ के दशक में बने पतरातू थर्मल में गये दशकाें में कई पीढ़ियों का बचपन गुजरा- खेले-कूदे. वहीं जवान हुए.
इश्क के ढेरों किस्से परवान चढ़े. कुछ कामयाब, पर ज्यादातर अधूरे. जो उन यादों के गवाह बने, उन्हें तो वे तड़पाएंगी. एनटीपीसी या किसी के अाने अौर सब बदल देने से अाधी सदी की वे यादें छूमंतर तो नहीं हो सकती न! बीते सप्ताह पतरातू में सड़कों पर घूमते हुए जब यादों का उफान दिमाग को बहा ले जा रहा था अौर मन भारी हो रहा था, तब कई बार लगा- काश थर्मल पावर प्लांट अौर उसकी कॉलोनी की तरह यादों का भी कायापलट हो सकता. पर दिल-दिमाग मशीन तो नहीं कि पुरानी यादें हटाईं अौर नये में ढल गये! इसलिए ‘दिल तो बच्चा है’ कि तर्ज पर हर उस पतरातू वाले का दिल इन दिनों मचल रहा है.
एक बार-बस एक अाखिरी बार पतरातू को अपनी अांखों से उसी रूप में देख लें, जहां जिंदगी के सबसे खूबसूरत दिन बिताये. तभी तो खेप के खेप अा रहे हैं. रांची से पतरातू की सड़क पर हर दूसरे-तीसरे या चौथे दिन कुछ गाड़ियां ऐसी होती हैं, जिसके सवार यादों को ताजा करने- शायद अाखिरी बार- पतरातू जाने वाले होते हैं.
पतरातू के हाई स्कूल से पढ़ कर निकले- अलग-अलग बैच वाले. कोई उन्नीस सौ अस्सी का बैच तो कोई बयासी या फिर चौरासी का बैच. खेप में बैच वाले अा रहे हैं. कोई तीस पार तो कोई चालीस तो कई पचास छूने वाले. कोई मुंबई तो कोई दिल्ली से तो कई सूरत, कोलकाता लखनऊ तक से. जिनके फेसबुक या ट्विटर प्रोफाइल पर फ्रॉम की जगह अाज भी पतरातू लिखा है. ठौर बदल गया पर पहचान नहीं.
एक अाखिरी बार….
खेप में अाने वालों में सबकी ललक एक ही- अाखिरी बार पतरातू को उस रूप में देख लेने की जहां बचपन बीता- जवान हुए.एक अंतिम बार भर लेना उस पतरातू को अपनी निगाहों में जो अाने वाले दिनों में वैसा नहीं रहेगा. यह उस जगह को श्रद्धांजलि देने जाने जैसा है. जहां पीढ़ियां जवान हुईं. जहां बसी हैं कॉलोनी के रोड नंबरों से बनी पहचान अौर उनमें पिरोई यादों का मोहपाश. स्कूली जीवन की तमाम यादें तो अल्हड़ उम्र वाली सफल या नाकाम प्रेम कहानियों के असंख्य वाकयों की महक. इन्हें कोई दूसरा कैसे समझ सकेगा भला! फाइलों पर पतरातू का मालिकाना जरूर बदला गया पर यादों की फाइलें नहीं बदला करतीं.
पतरातू यानी घाटियों के बीच में बसी एक कॉलोनी जहां जिंदगी के तमाम रंग थे. एक छोटा बाजार. हर शनिवार को रांची से अानेवाली फिल्मों को बड़े से मैदान में देखना. बस से फिल्म का चक्का (रील) अा जाने की बाट जोहना.कौन सी फिल्म का चक्का अाया उसे जानने की जद्दोजहद अौर फिर फिल्म देखने जाने की उमंग. सिंघाड़ा, जलेबी अौर ‘कुछ मीठा हो जाए’ की जरूरत पड़ने पर उसे पूरा करने वाले संजय स्वीट हाउस अौर झा होटल. जहां दही न जमा हो, तो ग्राहक को बताया जाता था- अभी नहीं है- फरमंटेशन हो रहा है! डोसा खाने के लिए महीनों रांची जाने का इंतजार करना. अखबार-मैगजीन के लिए सिंह जी का इकलौता बुक स्टाल.
यह वह दौर था, जब थोड़ा था अौर थोड़े की जरूरत में ही पतरातू वाले संतुष्ट रहा करते थे. जहां अस्सी के दशक में टीवी अाया अौर सिग्नल पकड़वाने के लिए एंटिना को रांची की दिशा में घुमाने की जद्दोजहद हर क्वार्टर की छत पर दिखती थी.
चूंकि पतरातू घाटियों के बीच बसा था लिहाजा सिग्नल पकड़वा पाना टेढ़ी खीर होती थी. तब वैसे मौके अाते थे, जब घाटियां खराब भी लगतीं थीं- तुम्हीं से मुहब्बत, तुम्हीं से लड़ाई- ऐसा ही तो था पतरातू! पतरातू हाई स्कूल के जिस चौरासी बैच से मैं अौर मेरे कई दोस्त ताल्लुक रखते हैं उनमें से एक ने कहा- अच्छा हुअा, जो हम लोग एक अाखिरी बार के लिए अा गये अपने पतरातू को देखने. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं आैर पतरातू से जुड़े रहे हैं.)
(कल पढ़े दूसरी कड़ी. )
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