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शहर बहक चुका है, गांव तुम्हें संभालना होगा
प्रणव प्रियदर्शी रांची : आज शहर और गांव के बीच एक लंबी खाई बन चुकी है. गांव व शहर के बीच एक संतुलन जरूरी है, जो कहीं दिख नहीं रहा है. सारा विकास अगर शहर में सिमट आयेगा, तो गांव कहां जायेगा. क्या गांव सिर्फ बेरोजगार व वृद्धों की कब्रगाह बनेगा. जी हां, हम जिस […]
प्रणव प्रियदर्शी
रांची : आज शहर और गांव के बीच एक लंबी खाई बन चुकी है. गांव व शहर के बीच एक संतुलन जरूरी है, जो कहीं दिख नहीं रहा है. सारा विकास अगर शहर में सिमट आयेगा, तो गांव कहां जायेगा. क्या गांव सिर्फ बेरोजगार व वृद्धों की कब्रगाह बनेगा. जी हां, हम जिस विकास की आबोहवा में दौड़ लगा रहे हैं, उससे ऐसा ही प्रतीत हो रहा है. यह विकास हमारे जीवन को एकांगी बनाता जा रहा है.
महात्मा गांधी ने भविष्य की इस अराजकता को अपने समय में ही भांप लिया था. इसलिए उन्होंने ग्राम स्वराज्य पर सबसे अधिक बल दिया था. खादी तो एक बहाना था, इसके माध्यम से वह एक समेकित व दूरदर्शी अर्थव्यवस्था की नींव रखना चाहते थे. मोरहाबादी में आयोजित खादी व सरस मेला ग्रामीण अर्थव्यवस्था की इसी अवधारणा को उजागर कर रहा है. इसमें ग्राम्य जीवन और उसका उद्योग कौन -सा रूप ले सकता है, इसे खूबसूरती से रेखांकित किया गया है.
झारखंड राज्य खादी ग्रामोद्योग बोर्ड के अध्यक्ष संजय सेठ ने बताया कि इस बार मेला में 1200 स्टाल लगे हैं, जबकि पिछले वर्ष 600 स्टॉल ही लगाये गये थे. इसमें अधिकतर स्टॉल लघु उद्योगों, कारीगरों और छोटे व्यवसायियों के हैं. वहीं, दूसरी ओर मुख्यमंत्री ने भी घोषणा की है कि 32,000 गांवों में विलेज कोर्डिनेटर नियुक्त होंगे, जिसका काम गांव की गरीब महिलाओं को चिह्नित करना और उसे कौशल विकास के कार्यक्रम से जोड़ना होगा.
मुख्यमंत्री रघुवर दास ने यह भी कहा है कि 2022 तक हर बीपीएल कार्डधारी के हर सदस्य को स्वरोजगार से जोड़े जाने का प्रयास होगा. पद्मश्री अशोक भगत ने कहा है कि खादी के जरिये गांव के जो पुराने धंधे खत्म हो रहे हैं, वे जीवित होंगे. यह सारी चीजें एक सुखद भविष्य की ओर संकेत कर रहे हैं.
महात्मा गांधी का खादी को प्रोत्साहित करने का यही उद्देश्य था कि खादी उद्योग भले ही लोगों की धनवान बनने की उच्च आकांक्षा को न पूरा कर सके, लेकिन गांवों को बेरोजगारी और बेकारी से दूर करेगा.
लोगों को स्वालंबी होने का सामर्थ्य प्रदान करेगा. हालांकि उनका खादी आंदोलन यहीं तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने इसके माध्यम से जाति, धर्म और अमीरी-गरीबी की खाई को पाटने का काम किया. समय की मांग है कि खादी के बहाने हस्त शिल्प व पारिवारिक उद्यम को भी बढ़ावा मिले. बाजार पर हमारी अधिक निर्भरता हमारी सेहत के साथ-साथ हमारी मनोभावना को भी प्रदूषित करती है. समय इसका गवाह है.
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