चैनपुर (पलामू) : सत्ता का विकेंद्रीकरण होगा. गांव की सरकार गांव में रहेगी. गांवों में स्वराज आयेगा. पंचायत चुनाव के पहले इस तरह के स्लोगन सुनने को मिले. जब कोई गांव की उपेक्षा की बात करता था, तो उसे यही कहा जाता था कि पंचायत चुनाव होने दो, समस्या दूर हो जायेगी. विधायक नहीं आते, सांसद नहीं आते, कोई बात नहीं.
मुखिया तो गांव-पंचायत का होगा. वह तो आयेगा, अपने बीच का होगा. पर इन सब के बाद अगर आपसे कोई कहे कि एक गांव ऐसा भी है, जहां सांसद-विधायक की बात छोड़ दीजिए, मुखिया तक नहीं पहुंचते, तो सहसा आप यकीन नहीं करेंगे. पर वहां रहने वाले लोग जब इस बात को कहेंगे, तो निश्चित तौर पर यकीन तो करना ही पड़ेगा. जी हां, यह व्यथा चैनपुर प्रखंड के आदिवासी बहुल करमा गांव की है. चैनपुर प्रखंड मुख्यालय से करीब 12 किलोमीटर की दूरी पर है यह गांव. जैसे ही आप गांव का रूख करेंगे, वैसे ही गांवों की बदहाली का अंदाज होने लगेगा. उबड़-खाबड़ सड़कें ही गांव तक जाती है. गांव में एक कुआं है. वहां महिलाएं जुटी थीं.
कुछ कुएं से पानी भर रही थी. कुछ महिलाएं वहां कपड़ा धो रही थी और कुछ बरतन साफ कर रही थी. पानी की किल्लत होने पर गड्ढे में जमा पानी पीने के भी काम आता है. गरमी के दिनों के अक्सर इस गांव में जल संकट हो जाता है. इसलिए गंदे जल का सेवन करना यहां के लोगों की नियति ही है. कहने के बाद भी कोई सुनता नहीं है. गांव की आबादी करीब 800 है. आदिवासी समुदाय के मुंडा और आदिम जनजाति के परहिया समुदाय के लोग यहां रहते हैं. 14 वर्ष पहले इन्हीं दो समुदायों की बेहतरी के नाम पर झारखंड भी बना है. झारखंड बनने के बाद विलुप्त हो रही आदिम जनजाति के संरक्षण और संवर्धन के लिए कई योजनाएं भी चली हैं.
लेकिन करमा गांव के आदिवासी और आदिम जनजाति वर्ग की स्थिति देखने के बाद ऐसा लगता है कि शायद करमा गांव के लोगों के लिए यह योजना नहीं थी. गांव के तीन चापानल में से दो खराब हैं. इंदिरा आवास के लिए 11 लोगों का चयन किया गया,11 में से पांच लाभुक प्रदीप परहिया, कमली देवी, बिरसी भेंगरा, राहील भेंगरा को यह कह कर उनका आवास रद्द कर दिया गया कि उन्हें पूर्व में आवास मिल चुका है, जबकि ऐसा नहीं था. अभी यह परिवार झोपड़ी में रहते हैं. लेकिन कोई सुनने वाला नहीं है. शेष बचे छह लाभुकों का भी पैसा खाते में नहीं आया. वह कब तक आयेगा, यह भी पता नहीं.
पलायन की मजबूरी
आदिवासी और आदिम जनजाति बहुल करमा गांव में मनरेगा भी फेल है. 2010-11 में इसके तहत एक रोड बना था. योजना के मेठ रहे सुरेश परहिया का कहना है कि 32 मजदूरों का भुगतान ही नहीं हुआ. निराश होकर लोग पलायन कर गये. अभी गांव में स्थिति यह है कि 8-10 युवक ही गांव में बचे हैं. बाकी सब रोजगार के लिए बाहर चले गये हैं. महिलाएं ईंट भट्ठा में काम करती हैं या लकड़ी बेच कर किसी तरह अपनी रोजी-रोटी चला रही है.
मुखिया भी नहीं आते
वार्ड सदस्य बसंती देवी कहती हैं कि मुखिया भी इस गांव में नहीं आते. राहील भेंगरा व फुलेश्वर परहिया का कहना है कि कार्यक्रम में आने का आमंत्रण देते हैं, फिर भी नहीं आते. क्या कहा जाये. बसंती का कहना है कि स्थिति के बारे में प्रशासन को भी जानकारी दी थी, लेकिन स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ.