।।निखिल सिन्हा।।
जमशेदपुरः सोने की चिडि़या हरी-हरी खेत, सोने की चिडि़या हरी-हरी खेत, चिडि़या उड़ गयी चूग के खेत…
यह गीत सामाज से विलुप्त होते जा रही उस जनजाति की बच्चियों की है, जिनका आज के दिन में केवल नाम ही रह गया है. जो कल तक जंगल में लकड़ी चूनने का काम करती थीं. उन बच्चियों के हाथ में आज लेखनी है. अब वे अपना समय जंगल के बजाय स्कूल में बिताती हैं. यह गीत यही सबर बच्चियां अब रोजाना स्कूल के प्रार्थना में गाती हैं. सरायकेला जिला अन्तर्गत राजनगर स्थित एनजीओ सहयोगी महिला के तत्वावधान में सबर बच्चियों के लिए विषेश प्रशिक्षण स्कूल चलाया जा रहा है. वर्ष 2010 में प्रारंभ में इस विद्यालय में मात्र 20 छात्राएं थीं, लेकिन आज 98 हैं. इस संस्था की संचालिका व प्रमुख चामी मर्मू ने बताया कि सबर बच्चियों को पढ़ाने के लिए आवासीय विद्यालय चलाया जा रहा है. इन बच्चियों को शिक्षा प्रदान करने के लिए दो शिक्षिका हैं, जो नियमित रूप से बच्चों को पढ़ाती हैं. इनके रहने-खाने व पढ़ने की व्यवस्था सहयोगी महिला एनजीओ के द्वारा किया जात है.
कस्तूरबा में मिलता है अवसर
इस विद्यालय में कक्षा पांचवी तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद यहां की छात्राओं को कस्तूरबा आवासीय विद्यालय जाने का मौका मिलता है. चामी ने बताया कि प्रति वर्ष यहां से कम से कम दो छात्राओं को कस्तूरबा आवासीय विद्यालय में नामांकन मिल जाता है.
व्यावहारिक ज्ञान भी
सबर बच्चियों को शिक्षा प्रदान करने के अलावे सप्ताह के अंतिम दिन व्यावहारिक ज्ञान भी दिया जाता है. उन्हें पर्यावरण का महत्व और उनकी रक्षा के बारे में बताया जाता है. पौध रोपण, साफ सफाई, व्यायाम आदि के बारे में भी जानकारी दी जाती है. बीच-बीच में आस पास के गांव में घूमाने के लिए भी ले जाया जाता है, ताकि उनका मानसिक विकास सही ढंग से हो.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)