जमशेदपुर : 1985 के पहले सरकारी जमीन पर बसे लोगों को लीज पर जमीन दिये जाने का सरकार ने निर्णय लिया है. 30 साल का लीज देने का सरकार ने सहमति बनायी है. इसके बाद बस्तियों के लोगों में इस बात की आस जगी है कि अगर मालिकाना हक नहीं मिला तो न सही, लेकिन 30 साल का लीज तो मिला. वहीं वर्ष 1985 के पहले के डेडलाइन को लेकर संशय की स्थिति भी उत्पन्न हो गयी है. कई बस्तियां वर्ष 1985 के बाद भी बसायी गयी है.
वर्ष 2005 के टाटा लीज समझौता के वक्त करीब 1600 एकड़ जमीन को टाटा लीज के शिड्यूल पांच से अलग कर दिया गया था और शिड्यूल चार की जमीन पर बसी बस्तियों का अलग से सर्वे कराया गया था. इस सर्वे के आधार पर रिपोर्ट सौंपी गयी है. इसके तहत कुल 107 बस्तियों की पूरी सूची सरकार के पास है. बस्तियों के घरों की चौहद्दी से लेकर बस्तियों की तमाम जानकारी रिपोर्ट में दी गयी है, जिसके आधार पर सभी लोगों को जमीन लीज पर दी जायेगी.
सरयू राय ने लाया था निजी विधेयक : मालिकाना हक को लेकर वर्तमान मंत्री और विधायक सरयू राय ने झारखंड विधानसभा में 22 दिसंबर 2006 को अपना निजी विधेयक लाया था.
रघुवर ने कहा था – लोगों का हक मिलेगा, लीज के रूप में मिला
बस्तियों का आंदोलन रघुवर दास ने भी करीब 20 साल से लड़ा था. वे विधायक बनते वक्त ही वादा किया था कि लोगों को जमीन का मालिकाना हक दिलायेंगे. अगर नहीं दिला पाये, तो लोगों को हक जरूर देंगे और कोई न कोई कानूनी पर्चा जरूर दे देंगे. सरकार के मुखिया बनने के बाद अपने विधानसभा के लोगों को जमीन का लीज के रूप में अधिकार दिलाया. हालांकि, रघुवर दास मंत्री रहते हुए टाटा लीज समझौता के वक्त ही लड़ाई लड़कर टाटा लीज से 1600 एकड़ की जमीन को अलग कराकर जमीन को सबसे पहले सरकारी घोषित कराया था.
टाटा लीज की खाली जमीन पर हुआ अतिक्रमण, बाद में हो गयी सरकारी
टाटा लीज की शिड्यूल चार और पांच की जमीन पर सर्वाधिक अतिक्रमण कर बस्तियां बसायी गयी हैं. 1600 एकड़ की जमीन 2005 के लीज समझौते के वक्त टाटा स्टील के कब्जे से बाहर कर उस जमीन को सरकारी बना दिया गया था.
टाटा लीज व सबलीज का क्या है इतिहास
भू-अधिग्रहण कानून 1984 के तहत टाटा स्टील (उस वक्ता टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी लिमिटेड-टिस्को) को प्रोविंसियल सरकार ने 18 गांव को अधिग्रहित करने का अधिकार दिया था. इसके तहत 15,725 एकड़ जमीन दी गयी थी. इसमें सोनारी, गम्हरियागोड़ा, उलियान, भाटिया, कदमा, खुंटाडीह, जुगसलाई, बेल्डीह, साकची, कालीमाटी, सुसुनिगडि़या, गोलमुरी, बारीडीह, बारा, नीलडीह, मोहरदा, मोराकाटी व जोजोबेड़ा शामिल है. इसके लिए तीन अलग-अलग समझौता सरकार के साथ उस वक्त हुआ था. पहला आठ जुलाई 1909, दूसरा नौ जुलाई 1918 एवं तीसरा 18 अक्तूबर 1919 को समझौता हुआ. वहीं दो रजिस्टर्ड डीड हुआ था,
जो 19 जनवरी 1912 व 23 सितंबर 1929 को भारत सरकार के काउंसिल के सचिव ने टाटा स्टील को दिया था. टाटा स्टील की स्थापना हुई, तो कंपनी और शहर का विस्तार हुआ. इसके बाद से ही लगातार सबलीज पर जमीन दी जाती रही. अब तक करीब नौ लाख की आबादी टाटा लीज एरिया के सबलीज जमीन पर बसते हैं, जिनके पास किसी तरह का लैंड राइट नहीं है.
बस्तियों को मालिकाना हक की चली है लंबी लड़ाई
बस्तियों को मालिकाना हक की लंबी लड़ाई चली है. इसको लेकर गोलीबारी तक हुई है. वर्ष 1991-92 के वक्त गोलमुरी नामदा बस्ती में जब टाटा स्टील की ओर से अतिक्रमण हटाया जाने लगा, तो उस दौरान गोलियां चल गयी थी. मालिकाना हक के लिए पहले कुंजल लकड़ा की अगुवाई में आंदोलन शुरू हुआ था. कुंजल लकड़ा के साथ बलविंदर सिंह, मनोहर सिंह, सतपाल सिंह सत्ते, जरनैल सिंह, भिखारी सिंह और बुजुर्ग किरपाल सिंह सत्ते थे. उस वक्त बस्ती विकास समिति का नाम केंद्रीय घर बचाओ समिति रखा गया था. गोलमुरी के आकाशदीप प्लाजा के बगल में खाली जमीन पर ही मीटिंग होती थी.
तब से अब तक लंबी लड़ाई का आगाज होता चला गया. इस आंदोलन में एमएस मांझी, पीके तमािया, पीएन गोप, सैमुअल दास समेत अन्य लोग भी शामिल हो गये. इसके बाद राज्य के मुख्यमंत्री रघुवर दास विधायक बनने के इस आंदोलन में उतर आये. वर्ष 1995 में ही रघुवर दास ने बड़ा आंदोलन कर डीसी ऑफिस का घेराव कर दिया था, जिसके बाद से यह आंदोलन तेज हुआ और सभी बस्तियों में अलग-अलग बस्ती विकास समिति बनायी गयी. इसके बाद से लगातार इसके लिए संघर्ष होते रहा है.