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दीपावली में होती है महिषासुर की पूजा

परंपरा. 12 साल में एक बार महिषासुर की सवारी भैंसा (काड़ा) की पूजा होती है गुमला के पहाड़ों में रहनेवाले असुर जनजाति के लोग मिट्टी का महिषासुर बना कर पूजा करते हैं. महिषासुर का आकार पिंड की तरह होता है. महिषासुर के साथ पूर्वजों की भी पूजा करने की परंपरा जीवित है. दुर्जय पासवान गुमला […]

परंपरा. 12 साल में एक बार महिषासुर की सवारी भैंसा (काड़ा) की पूजा होती है
गुमला के पहाड़ों में रहनेवाले असुर जनजाति के लोग मिट्टी का महिषासुर बना कर पूजा करते हैं. महिषासुर का आकार पिंड की तरह होता है. महिषासुर के साथ पूर्वजों की भी पूजा करने की परंपरा जीवित है.
दुर्जय पासवान
गुमला : गुमला जिले में आज भी असुर जनजाति के लोग महिषासुर की पूजा करते हैं. श्रीदुर्गा पूजा के बाद दीपावली में महिषासुर की पूजा करने की परंपरा है. ऐसे महिषासुर की मूर्ति बनाने की परंपरा नहीं है, लेकिन जंगलों -पहाड़ों में रहनेवाले असुर समाज दीपावली पर्व की रात महिषासुर (मिट्टी का छोटा पिंड बना कर) की पूजा करते हैं. इस दौरान असुर जनजाति अपने पूर्वजों को भी याद करते हैं.
असुर जनजाति के लोग बताते हैं कि वे लोग सुबह में मां लक्ष्मी, गणेश की पूजा करते हैं. इसके बाद रात को दीया जलाने के बाद महिषासुर की पूजा करते हैं. दीपावली में गोशाला की पूजा असुर जनजाति के लोग बड़े पैमाने पर करते हैं. जिस कमरे में पशुओं को बांध कर रखा जाता है, उस कमरे की पूजा असुर करते हैं. हर 12 वर्ष में एक बार महिषासुर की सवारी भैंसा (काड़ा) की भी पूजा करने की परंपरा है. इस साल 12 वर्ष पूरा हो गया है. गुमला जिले के बिशुनपुर, डुमरी, घाघरा, चैनपुर, महुआडाड़ इलाके में भैंसा की पूजा की तैयारी चल रही है. बिशुनपुर प्रखंड के गुरदरी में पूजा होती है. इस दौरान मेला भी लगता है.
टांगीनाथ धाम से जुड़ा है इतिहास
असुर जनजाति की मान्यता है कि गुमला जिला अंतर्गत डुमरी प्रखंड के टांगीनाथ धाम में महिषासुर का शक्ति स्थल है. असुर जनजाति मूर्ति पूजक नहीं है. महिषासुर की मूर्तियां नहीं बनायी जाती है. पूर्वजों के समय से पूजा करने की जो परंपरा चली आ रही है, आज भी वह परंपरा कायम है.
जोभीपाट में होती है बड़े पैमाने पर पूजा
बिशुनपुर प्रखंड के पहाड़ में जोभीपाट गांव है. यहां पूजा करने की प्राचीन परंपरा है. यहां बड़े पैमाने पर पूजा की जाती है. दीपावली में यहां पूजा को लेकर विशेष माहौल रहता है. जहां- जहां असुर जनजाति रहते हैं, उन गांवों में पहले से ही तैयारी शुरू हो जाती है.
12 साल में एक बार काड़ा पूजा करने की परंपरा है. गुरदरी गांव में मेला लगता है. यहां बड़े पैमाने पर पूजा की जाती है. इसकी तैयारी चल रही है. आदिम जनजाति के सभी लोग काड़ा पूजा में भाग लेते हैं.
अनिल असुर, बिशुनपुर प्रखंड
पूर्वजों के साथ महिषासुर की भी पूजा की जाती है. बैगा पहान सबसे पहले पूजा करते हैं. उसके बाद घरों में पूजा करने की परंपरा है. असुर जनजाति के लोग पशुओं की भी पूजा करते हैं.
विमलचंद्र असुर, पोलपोल पाट

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