धनबाद: पढ़ाई के साथ परिवार चलाने के लिए जद्दोजहद के बीच लिखने-पढ़ने की जो आदत बचपन में लगी उस ललक को आज भी कायम रखनेवाले शायर व पत्रकार तैयब खान क विता को जिंदगी का तरजुमा मानता हैं.
वे कहते हैं कि जानता हूं कि क विता से कोई इनकलाब नहीं आता है. हां, इनकलाब की प्रक्रिया में क विता धार का काम करती है. कबीर, निराला मुक्तिबोध नागाजरुन मेरे आदर्श क वि हैं. फैज अहमद फैज, गालिब मीर तकी मीर और इकबाल की परंपराओं को बिना आत्मसात किये बड़ी शायरी संभव नहीं है. बहुत वाजिब ढंग से उन्होंने कहीं यह कसक जाहिर की है..मैं अपने शहर को जुबां दे न सका.
बकौल तैयब खान पिता कट्टर क्रांगेसी थे. इस्ट इंडिया कंपनी में माइनिंग सरदार थे. घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने से पढ़ाई कभी नियमित नहीं रही. घर चलाने के लिए कभी टैक्सी धोता, तो कभी ठेकेदार के यहां काम करता. अभाव में 1969 में मैट्रिक परीक्षा नहीं दे पाया. फिर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया. ऐसे ही दौर में सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर (एसयूसी) से जुड़ा. सर्वहारा आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लेने लगा. समय गुजरता जा रहा था. 1980 में दोस्तों ने मैट्रिक का फार्म भरवाया. जब परीक्षा पास किया.
साहित्य से लगाव : बचपन से लगाव था. निराला का भिक्षुक पढ़ा. इसके बाद मुक्तिबोध, तुलसी आदि को पढ़ा. मेरा मानना है कि रामचरित मानस दुनिया का सबसे बड़ा महा काव्य है. जिसने तुलसी को नहीं पढ़ा वो भारतीय संस्कृति की जड़ों मे नहीं जा सकता. निराला, मुक्तिबोध पढ़े बगैर सर्वहारा की पीड़ा को नहीं समझ सकता. लिखने-पढ़ने का काम चलता रहा. स्थानीय अखबारों मे रचनाएं छपती रहीं. प्रलेस से जुड़ा. संगोष्ठी, परिचर्चा आयोजित कर साहित्य का माहौल तैयार करने में भूमिका निभायी. प्रलेस से मोह भंग होने पर जसम से जुड़ा. फिलहाल जलेस से जुड़े हैं. इस दौरान गजल, क विता, आलोचना लिखता रहा. कहते हैं : क वि की जिम्मेदारी है कि वह अपनी क विता अर्थात सृजन के जरिये पाठकों को बोध कराये कि वह किस देशकाल और समाज में जी रहे हैं. समाज का अंत्र्विरोध क्या है. यह रचनाकार की समकालीनता की बड़ी कसौटी है.
साहित्यिक संस्थाओं के बारे में : प्रलेस समाप्त हो गया है. जसम भी नहीं है. जलेस से जुड़े लोगों में सृजनात्मकता है, पर समाज के सामने लाने मे विफल रहे. परिचर्चा नहीं होती. सिर्फ खानापुरी होती है. लेखक की रचनात्मकता को आगे लाने में जलेस विफल रहा. दो जनक वि खीरू राम विद्रोही और विकल शास्त्री को लोग भूल गये. लेखक संगठनों की भूमिका नकारात्मक हो गयी है. वे कहते हैं जिस लेखक का सरोकार जनसंघर्ष से नहीं होगा, वह बड़ी रचना नहीं दे सकता. यहां अच्छे साहित्यकार हैं. कई अच्छे आलोचक भी हैं. साहित्य में जीवंतता लाने में कई लगे हुए.
धनबाद के बारे में : तब के धनबाद और अब के धनबाद में बहुत अंतर है. पहले कस्बाई शहर लगता था. आज महा नगर का रूप धारण करता जा रहा है. आर्थिक प्रगति काफी तेज है, पर साहित्य के क्षेत्र में अग्रणी सामाजिक आंदोलन नहीं है. इसलिए साहित्यिक गतिविधियां नहीं हैं.