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टुसू यानी सृष्टि की निरंतरता का महापर्व

चौधरी चरण महतो (फोटो)फोटो : धनबाद में झारखंड के मूलवासी और आदिवासियों के महापर्व टुसू सृष्टि की निरंतरता का संदेश देते हैं. इस पर्व का आगाज एक माह पूर्व ही हो जाता है. मकर संक्रांति को आयोजित होनेवाले इस पर्व के विधि-विधान तीस दिनों तक किये जाते हैं. इस पर्व के पीछे कई पारंपरिक कहानियां […]

चौधरी चरण महतो (फोटो)फोटो : धनबाद में झारखंड के मूलवासी और आदिवासियों के महापर्व टुसू सृष्टि की निरंतरता का संदेश देते हैं. इस पर्व का आगाज एक माह पूर्व ही हो जाता है. मकर संक्रांति को आयोजित होनेवाले इस पर्व के विधि-विधान तीस दिनों तक किये जाते हैं. इस पर्व के पीछे कई पारंपरिक कहानियां प्रचलित हैं. दरअसल टुसु देवी की अर्चना की शुरुआत नव पाषाण काल एवं सैंधव सभ्यता की शुरुआत से मानी जाती है. यह टुसू कोई और नहीं बल्कि मूलत: यह अन्न उगाने वाली धरती माता व प्रकृति की ही पूजा का त्योहार है. उसकी पूजा अगहन संक्रांति के उस दिन से शुरू होती है, जिस दिन किसान ‘डिनी’ को खेत से खलियान लाते हैं. अर्थात डिनी ही टुसू है. डिनी को खेत से जब किसान खलिहान में लाते हैं, तभी इसकी पूजा शुरू हो जाती है. ससुराल (खेत) से लेकर मायके (खलिहान) लाया जाता है. एक माह तक टुसू मां जब मायके में रह लेती है. इसके बाद किसान टुसू गीत गाकर टुसु की विदाई नदी घाट तक कर देते हैं. इस मौके पर प्रचलित गीत कुछ-कुछ इसे ही ध्वनित करते हैं : ‘जले हेले जले खेले/जल जे तोर कौन आछे/ मन भीतरे भाभे देखो / जले ससुर घर आछे.’ यानी जिस जल में तुम प्रवेश किये, उसी में खेले. उस जल से अपने रिश्ते को जानना बहुत गूढ़ नहीं, वह तो तुम्हारा घर है. इस गीत का मूल आशय सृष्टि की निरंतरता के संदेश में निहित है. (लेखक बीपीएम, बलियापुर में कार्यरत हैं.)

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