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शिक्षक पर गुरु को देनी होगी वरीयता
धनंजन कुमार झा पांच सितंबर शिक्षक दिवस गुरु पुर्णिमा अर्थात अषाढ़ी पूर्णिमा का आधुनिक संस्करण है? यह वेद व्यास पर सर्वपल्ली राधाकृष्णन की वरीयता का उपक्रम है? महान भारत की पुष्ट-प्राचीन ज्ञानी, मनीषियों, ऋषि-मुनियाें की गुरु-शिष्य परंपरा पर शिक्षक-छात्र संबंध के धरातल पर खड़ी आज की शिक्षा पद्धति की मुहर है अथवा गुरु और शिक्षक […]
धनंजन कुमार झा
पांच सितंबर शिक्षक दिवस गुरु पुर्णिमा अर्थात अषाढ़ी पूर्णिमा का आधुनिक संस्करण है? यह वेद व्यास पर सर्वपल्ली राधाकृष्णन की वरीयता का उपक्रम है? महान भारत की पुष्ट-प्राचीन ज्ञानी, मनीषियों, ऋषि-मुनियाें की गुरु-शिष्य परंपरा पर शिक्षक-छात्र संबंध के धरातल पर खड़ी आज की शिक्षा पद्धति की मुहर है अथवा गुरु और शिक्षक के बीच के अर्थांतर की घोषणा मात्र या कुछ और? दोनों महानुभावों का इस प्रकार का उल्लेख न तो तुलनात्मक प्रवृति की देन है और न श्रेष्ठता तथा निष्कृटता निर्धारण की भावना का फल. यह दोनों के बीच के मूल भाव के अंतर में गुम हो रही भारतीय संस्कृति की आत्मा, आस्था और इसके सत्य की खोज का प्रयास भर है.
आज का युग वैज्ञानिक विकास के सर्वोच्च शिखर की ओर उन्मुख है. दूरसंचार और इंटरनेट का है, बाजार दर्शन का है, उपभोक्ता और उपयोगिता का है, बुद्धि और तर्क का है, कंप्यूटर और स्मार्टफोन का है, तमाम तरह की जानकारियों के खुले द्वार का है. व्यवसायिकता, सफलता, अर्थ और भौतिक संसाधन वर्तमान में मानव तथा समाज की गुणवत्ता एवं उन्नति का निर्धारक है. एेसे में वर्जनाएं टूट रही हैं, परंपरा तथा मर्यादा की कड़ीयां बिखर रही हैं.
जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा आदि की सीमा बेमानी हो रही हैं. युवाओं में अनुशासन और आदर का भाव शिथिल हो रहा है. आज की पीढ़ी की नजर ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में ‘ और ‘ये दिल मांगे मोर ‘ पर टिका हुआ है. फलत: आज के स्वप्न, इसकी आशा, आकांश और अपेक्षा पहले से भिन्न है. ऐसे में शिक्षक दिवस की वर्तमान परिपाटी पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है. इसे शिक्षा देनेवाला, सीखानेवाला, अध्यापक की सुकंचित परिधि से निकाल कर पूज्य पुरुष, महत, पिता, परमेश्वर आदि की विशाल भूमि पर खड़ा करना होगा. संक्षेप में, शिक्षक पर गुरु को वरीयता देनी होगी. इस बात को समझने की आवश्यकता है कि शिक्षक दिवस राधाकृष्णन की इच्छा, विचारकों और शासन-सत्ता की सिर्फ स्वीकृति की देन नहीं है.
यह ब्रह्मा, विष्णु, महेश जैसे देवों, वशिष्ठ, विश्वमित्र, संदीपनी जैसे ऋषि-मुनियों, चाणक्य, रामकृष्ण परमहंस जैसे महापुरुषों के प्रति श्रद्धा निवेदित करने के साथ परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन का अवसर के रूप में आया. यह युवानुरूप शिक्षा और शिक्षक के व्यक्तित्व पर चिंतन के मौके के रूप में आया. परंतु इसका रूपांतरण हो गया उत्सव के रूप में. यह सोचनीय है. आज के युग में अपेक्षा है, ऐसे बृहष्पति की जो ज्ञान के सिंधु से सार लेकर समस्त मानवता को विजयी बनाये.
(लेखक रामकृष्ण मिशन विद्यापीठ, देवघर में हिंदी शिक्षक हैं.)
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