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महिला सशक्तीकरण : कितने आगे आये हैं हम? बोकारो : शनिवार को पूरे देश में धूम-धाम से रक्षा बंधन मनाया गया. बहनों ने भाइयों की कलाई पर अपने प्यार और विश्वास की डोर बांधी, बदले में भाइयों ने उनकी रक्षा का संकल्प लिया.. वर्षो से यह परंपरा और यह लाइन चली आ रही है और […]

महिला सशक्तीकरण : कितने आगे आये हैं हम?
बोकारो : शनिवार को पूरे देश में धूम-धाम से रक्षा बंधन मनाया गया. बहनों ने भाइयों की कलाई पर अपने प्यार और विश्वास की डोर बांधी, बदले में भाइयों ने उनकी रक्षा का संकल्प लिया.. वर्षो से यह परंपरा और यह लाइन चली आ रही है और शायद हमेशा चलती रहेगी.
सवाल सिर्फ इतना है कि बहनें क्यूं इतनी कमजोर हैं कि रक्षा बंधन जैसे इकलौते मौके पर भी भाई कुछ और देने की बजाय उन्हें सिर्फ रक्षा का भरोसा देता है. कहते हैं कि इनसान का ‘नेचर’ और ‘सिगनेचर’ कभी नहीं बदलता, और शायद यही भारतीय समाज की पहचान भी है. आज भी महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए सामने से आरक्षण दिये जाते हैं और फिर पीछे के दरवाजे से नौकरी के नाम पर उनका हाथ पकड़ने की कोशिश की जाती है.
महिलाएं जहां चार कदम चलने की हिम्मत जुटा पाती हैं, वहीं पुरुष प्रधान इस भारतीय समाज की एक हरकत उन्हें सैकड़ों कदम पीछे धकेल देती हैं. इसलिए कहना गलत नहीं होगा कि हम आज भी वहीं हैं, जहां से हमने चलना शुरू किया था. गुस्सा हर मन में है, और बेहतर होगा कि वह फूटे नहीं, क्योंकि अगर एक महिला शांत हो तो व संतोषी है, और क्रोध जग जाये तो वही दुर्गा भी बन जाती है.
क्या हालत है आज के समाज की, इस पर शनिवार को झारखंड महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष सह डीपीएस बोकारो की निदेशक व प्राचार्या डॉ हेमलता एस मोहन ने ‘प्रभात खबर’ से लंबी बातचीत की. मुख्य अंश हम यहां उन्हीं के शब्दों में प्रकाशित कर रहे हैं :
‘‘सरकार महिला उत्थान के लिए नयी-नयी योजनाएं बना रही हैं. कई एनजीओ भी महिलाओं के अधिकारों के लिए अपनी आवाज बुलंद करने लगे हैं, जिससे औरतें बिना किसी सहारे के हर चुनौती का सामना कर सकने के लिए तैयार हो सकती हैं.. आज की महिलाओं का काम केवल घर-गृहस्थी संभालने तक ही सीमित नहीं है, वे अपनी उपस्थिति हर क्षेत्र में दर्ज करा रही हैं.
बिजनेस हो या पारिवार, महिलाओं ने साबित कर दिया है कि वे हर वह काम करके दिखा सकती हैं, जो पुरु ष समझते हैं कि वहां केवल उनका ही वर्चस्व है, अधिकार है. जैसे ही उन्हें शिक्षा मिली, उनकी समझ में वृद्धि हुई. खुद को आत्मनिर्भर बनाने की सोच और इच्छा उत्पन्न हुई. शिक्षा से महिलाओं ने अपने पर विश्वास करना सीखा.
लेकिन पुरुष अपने पुरु षत्व को कायम रख महिलाओं को हमेशा अपने से कम होने का एहसास दिलाता आया है. वह कभी उसके सम्मान के साथ खिलवाड़ करता है तो कभी उस पर हाथ उठाता है. पुरुषों की मानसिकता आज भी पहले जैसी ही है. विवाह के बाद उन्हें ऐसा लगता है कि अब आधिकारिक तौर पर उन्हें अपनी पत्नी के साथ मारपीट करने का लाइसेंस मिल गया है.
शादी के बाद अगर बेटी हो गई तो वे सोचते हैं कि उसे शादी के बाद दूसरे घर जाना है, तो पढ़ा-लिखा कर अतिरिक्त खर्च क्यों करना? लेकिन वहीं जब सरकार उन्हें लक्ष्मी लाड़ली, बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ, सुकन्या समृद्धि जैसी योजनाओं का लालच देती है, तो वह उसे पढ़ाने के लिए तैयार हो जाते हैं. इस पर पूरा समाज समझने लगते है कि वह आगे बढ़ रहा है और परिवारों की मानसिकता बदल रही है.’’
सशक्तीकरण की योजनाएं शहरों तक ही
दुर्भाग्य की बात है कि नारी सशक्तीकरण की बातें और योजनाएं केवल शहरों तक ही सिमट कर रह गयी हैं.एक ओर बड़े शहरों और मेट्रो सिटी में रहने वाली महिलाएं शिक्षित, आर्थिक रूप से स्वतंत्र, नयी सोच वाली, ऊंचे पदों पर काम करने वाली हैं, जो पुरु षों के अत्याचारों को किसी भी रूप में सहन नहीं करना चाहतीं, वहीं दूसरी तरफ गांवों में रहने वाली महिलाएं भी हैं जो ना अपने अधिकारों को जानती हैं और ना ही उन्हें अपनाती हैं. वे अत्याचारों और सामाजिक बंधनों की इतनी आदी हो चुकी हैं कि अब उन्हें उससे निकलने में भी डर लगता है. वे उसी को अपनी नियति मान कर बैठ गयी हैं.

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