-हरिवंश-
सैंतीस वोटों से जीते विधायक कमलेश जी की कलाबाजी देख-सुन कर बचपन में पढ़ी कहानी ‘हार की जीत’ (लेखक – सुदर्शन) याद आयी.कहानी में दो प्रमुख पात्र हैं. बाबा भारती, संन्यासी. वह संसार छोड़ चुके हैं. पर वह अपने आश्रम में एक घोड़ा सुल्तान पालते हैं. उस घोड़े के प्रति ममत्व है. अद्भुत नस्ल का घोड़ा है. जो देखता है, फिदा हो जाता है. उस इलाके का मशहर डाकू खड़ग सिंह उस घोड़े पर मोहित हो जाता है. बाबा भारती से कहता है, मैं इसे ले जाऊंगा. संसार छोड़ चुके बाबा कहते हैं, किसी कीमत पर नहीं. वह रतजगा करते हैं. घोड़े की रखवाली करते हैं. एक दिन शाम में वह घोड़े पर सवार होकर घूमने निकलते हैं. देखा, एक बीमार कराह रहा है. वह उतर जाते हैं. बीमार को उठा कर घोड़े पर बैठा देते हैं. अचानक देखते हैं कि बीमार व्यक्ति तन कर बैठ जाता है. घोड़े की लगाम हाथ से झटक लेता है. फिर कहता है, बाबा मैं डाकू खड़ग सिंह हूं. अब घोड़ा मेरा. बाबा स्तब्ध.
बाबा कहते हैं, खड़ग सिंह ठहर जाओ. घोड़ा अब तुम्हारा. मेरी सिर्फ एक बात सुनो. घोड़े के साथ खड़ग सिंह बाबा के पास आता है. बाबा जिस सुल्तान घोड़े के लिए रतजगा करते थे, उसे देखते तक नहीं. निवेदन करते हैं. यह घटना किसी को बताना नहीं. खड़ग सिंह पूछता है, क्यों? बाबा भारती जवाब देते हैं. इस घटना को सुन कर लोग बीमारों की मदद करना बंद कर देंगे. इसके बाद वह मुंह मोड़ कर चले जाते हैं. कहानी आगे चलती है.
पर यह कहानी कमलेश सिंह प्रकरण में मेरी स्मृति में क्यों आयी? राजनीतिज्ञों के कारण. जिन डॉक्टर-अस्पतालों को हम ईश्वर-उद्धारगृह मानते हैं, उनसे भी विश्वास उठ रहा है. संन्यासी होकर भी बाबा भारती को जिस घोड़े से सबसे अधिक सांसारिक लगाव था, उसे छोड़ने में क्षण भर नहीं लगा. पर वह दुखी थे कि बीमार बन कर जिस तरह खड़ग सिंह ने घोड़ा हड़पा, यह जान कर लोग अब दुखी-बीमार लोगों की मदद नहीं करेंगे. कमलेश सिंह के करतब से अब बीमार लोगों, अस्पतालों और डॉक्टरों से भी यकीन उठ जायेगा.
सत्ता पाने के लिए कुछ भी करनेवाले राजनेताओं की कड़ी में यह घटना झारखंड की राजनीति पर अपना असर छोड़ेगी. 1967 के बाद हरियाणा से जिस ‘आयाराम-गयाराम’ की राजनीतिक संस्कृति शुरू हई, वह क्या थी? सुबह में जो एमएलए इधर होता था, दोपहर में दूसरे खेमे में. शाम में तीसरे, रात में चौथे में. उन दिनों उत्तर प्रदेश, बिहार हरियाणा वगैरह में न जाने कितनी सरकारें ‘आयाराम गयाराम’ विधायकों ने बनवायी.
उस संस्कृति को झारखंड की राजनीति में लाने का श्रेय कमलेश सिंह को है, न जाने कितनी सरकारें वह यहां बनवायेंगे – बिगाड़ेंगे? कमलेश अब विधायक नहीं विचारधारा-संस्कृति हैं. कानून के कारण साफ-साफ कहने-लिखने के लिए प्रमाण चाहिए. क्या कमलेश की कलाबाजी देख कर यह कहने के लिए प्रमाण चाहिए कि वह कैसे एनडीए में गये हैं? क्यों गये हैं? उन्हें क्या लाभ मिले हैं? कमलेश यह उत्तर नहीं देंगे, पर एनडीए को देना पड़ेगा. खासतौर से भाजपा को. क्योंकि अटल जी के राज्यारोहण के पहले 1996 में भाजपा का नारा था, ‘भय, भूख और भ्रष्टाचार’ मिटायेंगे? क्या सुखराम और कमलेश जैसे की मदद से यह काम हो रहा है?
कमलेश की पार्टी के नेता थे, ध्रुव भगत. पहले भाजपा में थे. विधायक थे. चारा घोटाले के आरोपों में नखशिख डूबे हुए. भाजपाई चारा घोटाले को उठाते रहते हैं. सिर्फ राजनीतिक विरोधियों पर वार के लिए. पर उसी चारा घोटाले के आरोपियों की मदद से सरकार बचाना-चलाना हो, तो उन्हें कोई परहेज नहीं. केंद्र में सुखराम का आश्रय मिल जाता है, तो झारखंड में ध्रुव भगत-कमलेश की मदद सुलभ है.
दरअसल राजनीति में कांग्रेस हो या भाजपा, सिर्फ सत्ता पाना मकसद रह गया है. सत्ता की सीढ़ी, इसलिए ताकि इंद्र का स्वर्ग, वैभव और भौतिक सुख मिल सके. गरीब, विकास, समस्याएं वगैरह इन दलों के एजेंडा में नहीं हैं.
झारखंड की राजनीति के प्रेरणास्रोत क्या हैं? झारखंडी जीवन के मूल मर्म. 1991 में नरसिंह राव की सरकार बचाने के क्रम में सांसदों पर पैसे लेने के आरोप लगे. इन सांसदों में से तीन झारखंड के थे. झारखंड के गरीब आदिवासी लोगों ने अपने सांसदों को हराया. दो तो आज तक नहीं जीत सके हैं. झारखंड विधानसभा के चुनाव में सांसदों के बेटों को झारखंडी जनता ने हराया. 70-80 के दशकों में अपने जमीनी संघर्ष के कारण नायक बन चुके, निर्विवाद रूप से सबसे बड़े आदिवासी नेता शिबू सोरेन के बेटों को गरीब आदिवासियों ने हराया. अनेक पूर्व आदिवासी विधायक, सांसद, मंत्री कई-कई बार महत्वपूर्ण पदों पर रहे. पर आज फटेहाल हैं. खाना मयस्सर नहीं. पर वे ईमानदारी-चरित्र के प्रतीक के रूप में जीवित हैं.
झारखंड की यह अनोखी ताकत है, जिससे देश सीख सकता है. देश की भ्रष्ट और पतित राजनीति सीख सकती है. देश के दूसरे राज्यों में जब गैर आदिवासी, अपने भ्रष्ट राजनेताओं को जाति-धर्म के आधार पर चुनाव जीता कर राज्य सिंहासन पर बैठा रहे थे, तब आदिवासी जनता अपने नेताओं को सजा दे रही थी. वंशवाद के खिलाफ खड़ी हो रही थी. यह गरीब लोगों की प्रगतिशीलता थी, निरक्षर लोगों के जीवन मूल्य थे, जिनसे देश सीख सकता है. धन और पद से संचालित देश की मौजूदा राजनीति सीख सकती है.
पर ऐसा होगा नहीं? कारण, इन तत्वों -जीवन मूल्यों के वाहक कौन हैं? कौन-सा राजनीतिक दल, मंच, समूह इन आदर्शों को राजनीति में उतारने के लिए सक्रिय है? अंतत: ऐसे विचारों-मूल्यों को साकार करने के लिए एक राजनीतिक जमात चाहिए, जो यहां नहीं है.