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झारखंड की चुनौतियां

-दर्शक- सूचना है कि पहले तीन लोग शपथ लेंगे. मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा, फिर झामुमो से हेमंत सोरेन. साथ में आजसू से सुदेश महतो. दोनों उपमुख्यमंत्री के रूप में. फिर बहुमत सिद्ध करने के बाद विस्तार होगा. तीनों युवा हैं.पीछे की बातें भूल जायें, तो हर क्षण नयी संभावनाओं का आरंभबिंदु हो सकता है. बदलाव की […]

-दर्शक-

सूचना है कि पहले तीन लोग शपथ लेंगे. मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा, फिर झामुमो से हेमंत सोरेन. साथ में आजसू से सुदेश महतो. दोनों उपमुख्यमंत्री के रूप में. फिर बहुमत सिद्ध करने के बाद विस्तार होगा. तीनों युवा हैं.पीछे की बातें भूल जायें, तो हर क्षण नयी संभावनाओं का आरंभबिंदु हो सकता है.

बदलाव की शुरुआत का क्षण ही इतिहास में दर्ज होता है. मनुष्य को प्रकृति की यह अनुपम सौगात है. वह जब चाहे पुराने बंधनों-गलतियों से निकल कर नयी शुरुआत कर सकता है. झारखंड के जीवन में फिर ऐसा क्षण आया है. पहले खेमे जो शपथ ले सकते हैं, वे तीनों धरती पुत्र हैं. झारखंडी हैं. झारखंड के जन्म से यहां की राजनीति का ताना-बाना जानते हैं. इन तीनों के लिए भी एक नया अवसर है. तीनों चाहें, तो मिल कर एक नयी पटरी पर यात्रा कर सकते हैं. बदलाव या नयी शुरुआत के क्षण बार-बार नहीं आते.

आज झारखंड बदलाव के इसी क्षण की प्रतीक्षा में है. क्यों? क्योंकि झारखंड, देश का सबसे पिछड़ा और गरीब राज्य है. 2003 में, इंडिकस एनालिटिक्स ने प्रभात खबर के लिए झारखंड डेवलपमेंट रिपोर्ट तैयार की थी. रिपोर्ट का निष्कर्ष था कि प्रगति की रफ्तार यही रही, तो 2020 में झारखंड जिंबाब्वे जैसा होगा. अगर झारखंड की प्रगति थोड़ी बढ़ा दी जाये, तो उसकी स्थिति श्रीलंका जैसी होगी.

यानी 2020 में झारखंड, 2003 के जिंबाब्वे या श्रीलंका की स्थिति में पहुंचेगा. उल्लेखनीय है कि जिंबाब्वे दुनिया के अत्यंत गरीब देशों में से एक है. अब नयी सरकार के सामने चुनौती है कि वह झारखंड को 2020 में जिंबाब्वे या अजरबैजान की स्थिति में देखना चाहती है या स्थिति पलटने को तैयार है.

मोटामोटी झारखंड की आबादी तीन करोड़ है. प्रति लाख जनसंख्या पर सड़क घनत्व यहां क्या है? लगभग 76 किलोमीटर. देश का यह औसत आंकड़ा है, लगभग 238 किलोमीटर. गुजरात, महाराष्ट्र जैसे विकसित राज्यों में प्रति लाख जनसंख्या पर 400 किलोमीटर सड़क है. इसमें गांवों की सड़क, राज्य सरकार की सड़कें और राष्ट्रीय राजमार्ग की सड़कें मिली हुई हैं. रेल कवरेज में भी झारखंड भारत के औसत आंकड़े में प्रति लाख जनसंख्या की दृष्टि से आधा है.

यही हाल खाद्यान्न के बारे में है. झारखंड को सालाना लगभग 50 लाख मिट्रिक टन खाद्यान्न चाहिए. पर जब अच्छी बरसात और अनुकूल मौसम हो, श्रेष्ठ उत्पादन हो, तो यह संख्या सालाना 40 लाख मिट्रिक टन तक पहुंचती है. इस तरह अच्छा उत्पादन हो, तब भी झारखंड को सालाना10 लाख मिट्रिक टन खाद्यान्न की कमी है. सूखा होने पर उत्पादन काफी घट जाता है.

अगर झारखंड में खाद्य उत्पादन की स्थिति देश या पंजाब, हरियाणा के बराबर हो जाये, तो 20 से 25 लाख मिट्रिक टन उत्पादन बढ़ सकता है. पर झारखंड बनने के बाद से आज तक 10 वर्षों में एक लाख मिट्रिक टन खाद्यान्न उत्पादन नहीं बढ़ा. यह सवाल अपनी जगह है कि 10 वर्षों में सरकारों ने क्या किया? कृषि पर क्या खर्च हुए और पैसे कहां गये? पर भावी युवा सरकार चाहे तो खेती के मोरचे पर बड़ा काम कर सकती है.

यह काम असंभव भी नहीं है. याद होगा जब झारखंड अलग हुआ, तो बिहार के बारे में कहा गया कि वहां कोई संसाधन नहीं बचा. सिर्फ आलू, बालू और लालू बचे. वह बिहार आज कहां है? सिर्फ खेती का ही मसला ले लीजिए. चार साल पहले बिहार में लगभग 110 लाख मिट्रिक टन उत्पादन होता था. चार साल बाद ही यह बढ़ कर लगभग 140 लाख मिट्रिक टन हो गया. चार वर्ष में अगर बिहार 25 या 30 लाख मिट्रिक टन खाद्यान्न उत्पादन बढ़ा सकता है, तो झारखंड एक से दो सालों में क्या पांच या दस टन भी नहीं बढ़ा सकता?

यह अलग सवाल है कि गुजरे 10 वर्षों में एक छटांक की भी वृद्धि नहीं हुई. पर सिर्फ 10 लाख मिट्रिक टन खाद्यान्न उत्पादन बढ़े, तो झारखंड खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो जायेगा. खेती, किसान और मजदूर, शिबू सोरेन और झामुमो के प्रिय विषय रहे हैं. "बीति ताहि बिसार दे, आगे की सुधि ले" की तर्ज पर अगर नयी सरकार काम करे, तो हालात बदल सकते हैं. झारखंड में प्रति हेक्टेयर उत्पादन लगभग दो क्विंटल है.

पंजाब में तीन से छह क्विंटल. हमारे यहां सिंचित जमीन 18 फीसदी से कम है. देश में 36 फीसदी से अधिक. झारखंड में 23 वृहद सिंचाई योजनाएं चल रही हैं. इनमें 5000 करोड़ से अधिक की राशि खर्च (निवेश) हो गयी है. पर परिणाम सिफर. फर्ज करिए, यह 5000 करोड़ बैंकों में रखे होते, तो आज महज ब्याज से झारखंड ने कितना कमाया होता? अब इन सिंचाई योजनाओं को पूरा करने के लिए अलग से 8 से 10 हजार करोड़ रुपये चाहिए. स्वर्ण रेखा परियोजना का उदाहरण सामने है. 28 साल पहले यह परियोजना शुरू हुई. 270 करोड़ की लागत से यह पूरी होनी थी. अब तक तीन हजार करोड़ से अधिक खर्च हो चुके हैं.

अनुमान है, 6000 करोड़ और खर्च होंगे. तब यह सिंचाई योजना पूरी होगी. यानी नौ हजार करोड़ लगाने के बाद. विस्थापन का मामला अलग है. क्या गरीब राज्य इस तरह अनुत्पादक कामों में हजारों-हजार करोड़ रुपये खर्च करेंगे और उसका कोई रिटर्न नहीं आयेगा? फिर क्या स्थिति होगी?राज्य की माली हालत क्या है? अपने संसाधनों से राज्य की निम्नलिखित आय है :

वाणिज्यिक कर: 4500 करोड़
खनन: 2100 करोड़
एक्साइज: 525 करोड़
ट्रांसपोर्ट, यातायात : 450 करोड़
रजिस्ट्रेशन: 350 करोड़
अन्य: 200 करोड़
कुल: 8125 करोड़
इस तरह झारखंड अपने संसाधनों से 8125 करोड़ कमाता है. केंद्र को मिले करों में राज्य का हिस्सा क्या है?
आयकर:1860 करोड़
एक्साइज:1600 करोड़
सर्विस टैक्स: 540 करोड़
कुल:4000 करोड़
इस तरह राज्य की कुल आमद है :
राजस्व:8125 करोड़
केंद्र से मिलनेवाली राशि :4000 करोड़
कुल:12125 करोड़
अब राज्य के खर्च क्या हैं :
वेतन में खर्च:5160 करोड़
पेंशन में खर्च:2040 करोड़
सूद (कर्ज पर):2000 करोड़
मूल कर्ज की किस्त :1600 करोड़
कुल:9800 करोड़
इस तरह राज्य की आमद और खर्च की क्या स्थिति है? कुल आमद (12125 करोड़)- कुल खर्च (9800 करोड़). फिर बचा, 2325 करोड़. इस तरह झारखंड के विकास के लिए हर साल बचा 2325 करोड़ की राशि ही झारखंड के हाथ में है. याद रखने योग्य तथ्य है कि जब झारखंड बना था, तो झारखंड का बजट सरप्लस (बजट सरप्लस दिखाया गया था, जो कि एजी ऑडिट रिपोर्ट में घाटे का साबित हुआ) बताया गया था.
आज 10 वर्षों में झारखंड पर 25 हजार करोड़ का कर्ज है. इसी कर्ज पर हर साल 2000 करोड़ सूद का भुगतान करना है और 1600 करोड़ मूल राशि में लौटाना है. यह अलग सवाल है कि 10 वर्षों में झारखंड 25 हजार करोड़ का कर्जदार कैसे बना? इस 25 हजार करोड़ से क्या निर्माण हुए? क्या परिसंपत्ति खड़ी हुई? झारखंड के बजट की स्थिति यह है कि आमद 100 रुपये और खर्च 120 रुपये. पर हमारे नेता और उनके अज्ञानी, अंधभक्त केंद्र को गाली देते नहीं थकते. केंद्र की राहत मिलनी बंद हो जाये, तो झारखंड कहां होगा?
झारखंड में एक और सवाल है. जब झारखंड अलग हुआ, तो बिहार में दो-तिहाई कर्मचारी रह गये. एक-तिहाई झारखंड आये. लगभग 1.60 लाख के आसपास. इन एक लाख 60 हजार लोगों पर सालाना खर्च है, 5160 करोड़. शेष तीन करोड़ आबादी के विकास के लिए साल में महज 2325 करोड़ बचते हैं. जो पेंशन भोगी हैं, सिर्फ उन पर सालाना खर्च है, 2040 करोड़. हर साल कर्ज पर ब्याज दे रहा है झारखंड 2000 करोड़.

पर कुल तीन करोड़ लोगों के विकास पर 2325 करोड़ का बजट. फर्ज करिए, यही हाल रहा, तो 30 वर्षों बाद झारखंड की स्थिति क्या होगी? यह गति रही, तो 30 साल बाद भी आज हम जहां हैं, वहीं रहेंगे. विकास के लिए राज्य उधार लेता है. भारत सरकार पैसा देती है. सालाना सड़क बनाने में झारखंड खर्च करता है लगभग 750 करोड़. बिजली मद में 750 करोड़. सिंचाई पर 650 करोड़. पानी पर 450 करोड़. अन्य मद में लगभग 250 करोड़. इस तरह इंफ्रास्ट्रˆर मद में 3000 करोड़ लग रहे हैं.

इंफ्रास्ट्रˆर में निवेश की यही स्थिति रही, तो 30 साल बाद भी हमारी स्थिति आज जैसी ही होगी. राज्य के कुल खर्च का लगभग 80 फीसदी हिस्सा अनुपात्दक खर्चे में जा रहा है. सरकारी कर्मचारियों, अफसरों, विधायिका या व्यवस्था पर खर्च, इसी में पेंशन मद में भी खर्च. ये सभी खर्चे अनुत्पादक हैं. जनता के लिए क्या बचा? यह सवाल बड़ा गहरा और व्यवस्था के लिए चुनौती भरा है. क्या जनता कमायेगी और उसका 80 फीसदी शासकों पर खर्च होगा?

अब रास्ते क्या हैं? आमद बढ़ायें. आमद बढ़ाने के रास्ते क्या हैं? वाणिज्यकर, खनन, यातायात, एक्साइज, यानी कारोबार बढ़ाये बिना आमद नहीं बढ़नेवाली.मौजूदा हालात में क्या झारखंड में कारोबार बढ़ने की संभावना है? कैसे हालात बदलें? गवर्नेंस सुधरे, यह मूल चुनौती है. दूसरा रास्ता है खर्च घटा लें. फिजूलखर्ची पर सख्ती. यह आसान रास्ता है और कठिन भी.

आसान इसलिए कि यह संभव है. कठिन इसलिए कि क्या कोई सादगी के लिए तैयार है? मितव्ययिता के लिए तैयार है? क्या हमारे मंत्री या नयी सरकार लोगों को सादगी के रास्ते ले जाने के लिए तैयार हैं? पहले शासकों को इस रास्ते पर चलना होगा.अंत में झारखंड में भ्रष्टाचार रोके बगैर कुछ भी संभव नहीं. क्या यह सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ जो कार्रवाई राष्ट्रपति शासन में शुरू हुई, उसे आगे बढ़ायेगी?क्योंकि इसी सुरंग से निकलने के बाद ही नये झारखंड का जन्म होगा.

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