-दर्शक-
बदलाव की शुरुआत का क्षण ही इतिहास में दर्ज होता है. मनुष्य को प्रकृति की यह अनुपम सौगात है. वह जब चाहे पुराने बंधनों-गलतियों से निकल कर नयी शुरुआत कर सकता है. झारखंड के जीवन में फिर ऐसा क्षण आया है. पहले खेमे जो शपथ ले सकते हैं, वे तीनों धरती पुत्र हैं. झारखंडी हैं. झारखंड के जन्म से यहां की राजनीति का ताना-बाना जानते हैं. इन तीनों के लिए भी एक नया अवसर है. तीनों चाहें, तो मिल कर एक नयी पटरी पर यात्रा कर सकते हैं. बदलाव या नयी शुरुआत के क्षण बार-बार नहीं आते.
यानी 2020 में झारखंड, 2003 के जिंबाब्वे या श्रीलंका की स्थिति में पहुंचेगा. उल्लेखनीय है कि जिंबाब्वे दुनिया के अत्यंत गरीब देशों में से एक है. अब नयी सरकार के सामने चुनौती है कि वह झारखंड को 2020 में जिंबाब्वे या अजरबैजान की स्थिति में देखना चाहती है या स्थिति पलटने को तैयार है.
यही हाल खाद्यान्न के बारे में है. झारखंड को सालाना लगभग 50 लाख मिट्रिक टन खाद्यान्न चाहिए. पर जब अच्छी बरसात और अनुकूल मौसम हो, श्रेष्ठ उत्पादन हो, तो यह संख्या सालाना 40 लाख मिट्रिक टन तक पहुंचती है. इस तरह अच्छा उत्पादन हो, तब भी झारखंड को सालाना10 लाख मिट्रिक टन खाद्यान्न की कमी है. सूखा होने पर उत्पादन काफी घट जाता है.
अगर झारखंड में खाद्य उत्पादन की स्थिति देश या पंजाब, हरियाणा के बराबर हो जाये, तो 20 से 25 लाख मिट्रिक टन उत्पादन बढ़ सकता है. पर झारखंड बनने के बाद से आज तक 10 वर्षों में एक लाख मिट्रिक टन खाद्यान्न उत्पादन नहीं बढ़ा. यह सवाल अपनी जगह है कि 10 वर्षों में सरकारों ने क्या किया? कृषि पर क्या खर्च हुए और पैसे कहां गये? पर भावी युवा सरकार चाहे तो खेती के मोरचे पर बड़ा काम कर सकती है.
यह अलग सवाल है कि गुजरे 10 वर्षों में एक छटांक की भी वृद्धि नहीं हुई. पर सिर्फ 10 लाख मिट्रिक टन खाद्यान्न उत्पादन बढ़े, तो झारखंड खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो जायेगा. खेती, किसान और मजदूर, शिबू सोरेन और झामुमो के प्रिय विषय रहे हैं. "बीति ताहि बिसार दे, आगे की सुधि ले" की तर्ज पर अगर नयी सरकार काम करे, तो हालात बदल सकते हैं. झारखंड में प्रति हेक्टेयर उत्पादन लगभग दो क्विंटल है.
पंजाब में तीन से छह क्विंटल. हमारे यहां सिंचित जमीन 18 फीसदी से कम है. देश में 36 फीसदी से अधिक. झारखंड में 23 वृहद सिंचाई योजनाएं चल रही हैं. इनमें 5000 करोड़ से अधिक की राशि खर्च (निवेश) हो गयी है. पर परिणाम सिफर. फर्ज करिए, यह 5000 करोड़ बैंकों में रखे होते, तो आज महज ब्याज से झारखंड ने कितना कमाया होता? अब इन सिंचाई योजनाओं को पूरा करने के लिए अलग से 8 से 10 हजार करोड़ रुपये चाहिए. स्वर्ण रेखा परियोजना का उदाहरण सामने है. 28 साल पहले यह परियोजना शुरू हुई. 270 करोड़ की लागत से यह पूरी होनी थी. अब तक तीन हजार करोड़ से अधिक खर्च हो चुके हैं.
अनुमान है, 6000 करोड़ और खर्च होंगे. तब यह सिंचाई योजना पूरी होगी. यानी नौ हजार करोड़ लगाने के बाद. विस्थापन का मामला अलग है. क्या गरीब राज्य इस तरह अनुत्पादक कामों में हजारों-हजार करोड़ रुपये खर्च करेंगे और उसका कोई रिटर्न नहीं आयेगा? फिर क्या स्थिति होगी?राज्य की माली हालत क्या है? अपने संसाधनों से राज्य की निम्नलिखित आय है :
पर कुल तीन करोड़ लोगों के विकास पर 2325 करोड़ का बजट. फर्ज करिए, यही हाल रहा, तो 30 वर्षों बाद झारखंड की स्थिति क्या होगी? यह गति रही, तो 30 साल बाद भी आज हम जहां हैं, वहीं रहेंगे. विकास के लिए राज्य उधार लेता है. भारत सरकार पैसा देती है. सालाना सड़क बनाने में झारखंड खर्च करता है लगभग 750 करोड़. बिजली मद में 750 करोड़. सिंचाई पर 650 करोड़. पानी पर 450 करोड़. अन्य मद में लगभग 250 करोड़. इस तरह इंफ्रास्ट्रर मद में 3000 करोड़ लग रहे हैं.
इंफ्रास्ट्रर में निवेश की यही स्थिति रही, तो 30 साल बाद भी हमारी स्थिति आज जैसी ही होगी. राज्य के कुल खर्च का लगभग 80 फीसदी हिस्सा अनुपात्दक खर्चे में जा रहा है. सरकारी कर्मचारियों, अफसरों, विधायिका या व्यवस्था पर खर्च, इसी में पेंशन मद में भी खर्च. ये सभी खर्चे अनुत्पादक हैं. जनता के लिए क्या बचा? यह सवाल बड़ा गहरा और व्यवस्था के लिए चुनौती भरा है. क्या जनता कमायेगी और उसका 80 फीसदी शासकों पर खर्च होगा?
आसान इसलिए कि यह संभव है. कठिन इसलिए कि क्या कोई सादगी के लिए तैयार है? मितव्ययिता के लिए तैयार है? क्या हमारे मंत्री या नयी सरकार लोगों को सादगी के रास्ते ले जाने के लिए तैयार हैं? पहले शासकों को इस रास्ते पर चलना होगा.अंत में झारखंड में भ्रष्टाचार रोके बगैर कुछ भी संभव नहीं. क्या यह सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ जो कार्रवाई राष्ट्रपति शासन में शुरू हुई, उसे आगे बढ़ायेगी?क्योंकि इसी सुरंग से निकलने के बाद ही नये झारखंड का जन्म होगा.