-हरिवंश-
आपकी संस्था की ओर से मुझे ‘कानून-व्यवस्था’ के संदर्भ में बोलने के लिए कहा गया है, जो चीज हम पल-पल जीते हैं, एहसास करते हैं, भोगते हैं, क्या मैं उस अव्यक्त पीड़ा को आपके बीच जीवंत बनाऊं? क्या इस शहर में होनेवाले रोजाना की डकैतियां, बलात्कार, रंगदारी, भ्रष्टाचार के बारे में कहूं? क्या यह चर्चा करूं कि कल रात में शहर के एक इलाके में शाम आठ बजे डकैती हुई और पास में स्थित पुलिस क्यों दो घंटे विलंब से पहुंची?
यह भी चर्चा अनावश्यक होगी कि हाल में शहर में जो एक चर्चित अपहरण हुआ,उसमें कितने लाख का कैसे लेन-देन हुआ और कौन-कौन साझीदार हैं? कि पुलिस या राजनेता कैसे अपराध करा रहे हैं? या 1991 में रांची में दर्ज पुलिस मामले (लूट-डकैती आदि) 37.53 लाख के थे, जिनमें से चार लाख रिकवर किये गये. प्रसंगवश उल्लेख कर दूं कि दर्ज घटनाओं के मुकाबले, अदर्ज घटनाएं बहुत अधिक हैं. वर्ष 1992 में 10 करोड़ की लूटपाट की घटनाएं रांची पुलिस ने दर्ज की, रिकवरी 84000.
मैं यहां उत्तरदायित्व (एकाउंटेबिलिटी) का सवाल भी नहीं उठा रहा हूं कि पुलिस के ऊपर राष्ट्रीय बजट में खर्च 2000 करोड़ से ऊपर बढ़ गया, तब उस अनुपात में उसके काम में गिरावट क्यों? क्या यह भी बताने की जरूरत है कि रांची के सभी दलों के राजनेता (मुझे अनमति दें, तो मैं इन सबको अपराधी कहना चाहूंगा) या राजनीतिक दलों-गुटों ने रांची में वर्ष 1992 में 92 दिन बंद करा कर किसका अहित किया? जो हम सब यहां बैठे हैं, उनके घरों में दो-चार दिन बंद में भी चूल्हे जलते रहेंगे, पर जो रोजाना काम कर जीनेवाले लाखों की संख्या में दिहाड़ी मजदूर हैं, उनका क्या हुआ? या नगर के नौकरशाहों या सरकारी महकमों की चर्चा करूं? यह तो आपको ही बेहतर मालूम होगा, क्योंकि ट्रेन में आग लगने पर फायर ब्रिगेड की गाड़ी इस कारण नहीं पहुंचती कि उसके पास पेट्रोल के पैसे नहीं हैं. आप ही के संगठन के एक पदाधिकारी ने पेट्रोल डलवाया, तो फायर ब्रिगेड की गाड़ी रेलवे स्टेशन पर आग बुझाने पहुंची. या मैं यह बताऊं कि कैसे-कैसे भ्रष्ट अफसर यहां हैं? वह तो बेहतर तौर पर आप जानते होंगे. पर एक बात मैं कहना चाहूंगा. बिहार में लगभग तीन वर्षों से हूं. एक बार राज्य विजलेंस की गोपनीय लिस्ट मेरे अखबार में छपी. सरकार के अनुसार उसमें लगभग 70 अधिकारियों पर गंभीर गोलमाल का ब्योरा था.
उसमें सिर्फ एक अधिकारी पर 50 करोड़ के घपले का आरोप था. देख कर दंग रह गया. एकाध करोड़ खानेवाले तो अनगिनत हैं. सरकार के अनुसार ही कि रांची में बिजली-सड़क-अस्पताल, नागरिक सुविधाओं की क्या स्थिति है? मुझे लगता है कि यह कथा अनंत है, पर समझने की बात यह है कि ये सारी चीजें एक गंभीर बीमारी के महज लक्षण-बाह्य संकेत हैं. इन बीमारियों की संख्या अनंत है. आज रांची जिस बीमारी (अपहरण, हत्या, लूट, बंद आदि) से त्रस्त है, वह गंभीर और जानलेवा है.
आवश्यकता है, बीमारी को समझने की. आज से लगभग 25-30 वर्षों पूर्व हमने इस बीमारी को निमंत्रित किया. राजगोपालाचारी ने कहा था- ‘लाइसेंस, कोटा-परमिट’ राज के भयंकर दुष्परिणाम होंगे. राजनीति-नौकरशाही के पतन की शुरुआत हुई. तब अपराधियों को राजनीति संरक्षण दबे-ढंके मिलता था. अब अपराधी राजसत्ता में बैठ रहे हैं. जब मैं राजसत्ता की बात करता हूं, तो इसमें सभी पक्ष-दल के लोगों को शामिल करता हूं.
1980 में देश के प्रमुख अर्थशास्त्री, योजना आयोग के पूर्व सदस्य डॉ जयदेव सेठी ने कहा था कि इस देश में 25 लाख लोग (मौजूद व भूतपूर्व सांसद, मंत्री आदि) ऐसे हैं, जो एक पैसे का बगैर श्रम किये, पांच सितारा जीवन जीते हैं. इन राजनीतिक अनुत्पादकों (दलाल) की संख्या आज एक करोड़ के आसपास है. ये राजनीतिक प्राणी (अपराधी) कैसे बगैर श्रम किये भौतिक सुख भोग रहे हैं, रंगदारी वसूल रहे हैं. इसका रांची से बेहतर अनुभव कैसे होगा? अत: 25-30 वर्षों पूव हमारे अग्रज-बुजुर्ग चुप रहे, तो हम आप इसका दुष्परिणाम भुगत रहे हैं. आज हमें तय करना है कि हम एक बेहतर वर्तमान और सुखद भविष्य बनाने के लिए क्या कर सकते हैं?
क्या दुनिया के प्रगति-ज्ञान का जो (एक्सप्लोजन ऑफ नॉलेज) विस्फोट हो रहा है उससे हम वंचित होंगे? आज सारे प्रतिमान बदल गये हैं. पहले अर्थशास्त्र में मुझे पढ़ाया गया था कि ‘फैक्टर्स ऑफ प्रोडक्शन’ संपत्तिवान-समृद्ध बनने के कारगर उपाय-माध्यम हैं. आज 21वीं शताब्दी की देहरी पर खड़ी दुनिया अनुभव कर रही है कि वे सारे पुराने प्रतिमान टूट गये हैं. आज ‘इनफारमेशन इज वेल्थ’ है. सस्ते श्रम से अब पूंजी निर्माण नहीं होता. टाइम (समय) फैक्टर से होता है. अमेरिका-यूरोप की पूरी पीढ़ी भावी दुनिया की चर्चा में तल्लीन है.
स्पेश कॉलोनी, स्पेश माइनिंग, अंडरग्राउंड कॉलोनी, वेस्ट यूरोप के देशों के बीच एकता की घटनाएं, दुनिया के बदलने की गति बहुत-बहुत तेज हो गयी है. एलविन टाफलर की पुस्तक ‘फ्यूचर शॉक’, ‘थर्ड वेब’, ‘पावर शिफ्ट एरा’ आपने देखी होगी. भारत को छोड़ कर दुनिया के राजनीतिज्ञों, उद्योगपतियों-बौद्धिकों के बीच में सर्वाधिक चर्चित ये पुस्तकें हाल के वर्षों में रहीं. 1967 में रोम में ‘रोम ऑफ क्लब बना’ जिसकी रिपोर्ट ‘लिमिट्स टू ग्रोथ’ पूरी दुनिया में चर्चित हुई. ट्रेडिशनल रिसोर्सेज (पारंपरिक संसाधन) खत्म हो रहे हैं, तो दुनिया में वैकल्पिक साधनों की चर्चा हो रही है. पर, हमारे यहां? हम अपने अकर्म की पीड़ा भुगत रहे हैं.
यह कथा-व्यथा लंबी है. पर, रांची स्तर पर हम चुनौती का सामना कैसे करें या कर सकते हैं, उस पर कुछ मैं चर्चा करूं :दो रणनीतियां हैं – एक अल्पकाल की, दूसरे दीर्घकाल की. 1. अल्पकालीन रणनीति (क) आपके बीच से रांची छोड़ कर जो कुछ लोग जा रहे हैं,उनका पलायन तत्काल बंद हो.उन्हें बताइए कि पूरा देश ही बिहार बन रहा है. बंबई ‘सिटी ऑफ गोल्ड’,‘फर्स्ट सिटी ऑफ इंडिया’ की बात बताऊं, इन दंगों के लगभग दो माह पूर्व बंबई के व्यापारियों ने अपराधियों से सुरक्षा पाने के लिए अभियान चलाया था.
जेआरडी टाटा, ननी पालकीवाला और रामकृष्ण बजाज के हाल के बयान आपने देखे होंगे. कर्नाटक की भी वही स्थिति है. (ख) बंद का विरोध : ट्राई टू स्टैंड ऑन इश्यूज. प्रभात खबर ने तय किया है कि अगर छह फरवरी को बंद हुआ, तो हम उस बंद के खिलाफ सड़क पर उतरेंगे. सक्रिय पत्रकारिता, हिंदी पत्रकारिता का अतीत रही है. अगर आप एक बार पूरी ताकत से खड़े हों जायें, तो ‘यू हैव नथिंग टू लूज एक्सेप्ट दिस बंदूस.’
(ग) नेताओं-दलों की बैठकों में जा कर बंद के नुकसान का उन्हें हिसाब दीजिए. अपनी बात बताइए. पर इन भ्रष्ट नेताओं या अफसरों से घृणा करिए. (घ) बिजली सड़क या कानून-व्यवस्था : 1992 मई में बिजली का अदभुत संकट हुआ. रांची की जनता सड़क पर उतर आयी, राजनीतिक दल पीछे चल गये. इस गति से तेज करने की जरूरत है. कानून-व्यवस्था की खराब होती स्थिति के लिए गैर राजनीतिक संगठनों से तालमेल बना कर कुछ करने की जरूरत है.
2. दीर्घकालीन रणनीति (क) रांची के विभिन्न संगठनों-लोगों को दुनिया में हो रहे परिवर्तनों से रू-ब-रू कराने का अभियान चलाना होगा. आप यह न समझें कि घर की एक कोठरी बेहद खूबसूरत और आरामदेह रहेगी और बाकी कमरे जर्जर अवस्था में. रेगिस्तान से नखलिस्तान नहीं रह सकता, अत: आपको इस माहौल को बेहतर बनाने के लिए आगे आना होगा. अगर हमारे पूरे समाज में प्रगति की भूख, पूरी दुनिया में हो रहे परिवर्तनों से तालमेल बना कर चलने की भूख पैदा होगी, तो हमारे आस पास का माहौल-समाज स्वत: सुंदर होगा. वर्ष 1991-92 में भारत का जीडीपी है 1.2 प्रतिशत. चीन की प्रगति दर है 12 फीसदी. यूरोप मानता है कि दुनिया का सबसे ताकतवर देश 4-5 वर्षों में चीन होगा.
एशियन टाइगर्स भी पीछे छूट रहे हैं. नये तीन एशियन टाइगर्स आ गये हैं. भारत को ‘केप्ड टाइगर’ कहा गया. इसे हमें पिंजरे से निकालने की जरूरत है. अर्थशास्त्र में हम बाहरी चीजों का प्रत्येक प्रभाव (डिमानस्ट्रेटिव इफेक्ट) पढ़ा करते थे. आज हम लोगों के बीच क्या आदर्श बना रहे हैं. रंगदार, तस्कर, नेता मीडिया, यहां बहुत निर्णायक काम कर सकती है. मीडिया को आप पाठक बाध्य कर सकते हैं कि परिवर्तन का वाहक बनिए, (ख) छोटे-छोटे काम शुरू करें. जापान की छोटी चर्चा करूं. वहां ‘फाइव एस’ का पालन होता है – सेटी, सीटन, सीसो, सीकेत्सु और सीत्सुके. संवारना, व्यवस्थित करना, सफाई, स्वच्छता और संस्कार. घर घर और शहर इसका अभियान चले.
वरना बिहार में जिस संख्या में अपढ़-निरक्षर (1951- 2.5 करोड़,1981 – 5.6 करोड़) बढ़ रहे हैं, उसमें 21वीं शताब्दी में दुनिया के सर्वाधिक निरक्षर यहीं होंगे. गरीबी होगी, निरक्षरता, भूख, पीड़ा, गरीबी के बीच उद्योग खड़े नहीं होंगे. समृद्धि नहीं पनपेगी. 21वीं सदी में गहरा अंधेरा ही रहेगा.
(रांची में फक्की और छोटानागपुर ऑफ कॉमर्स द्वारा आयोजित संगोष्ठी में दिया गया वक्तव्य)
-09-11-1993-