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झारखंड में भूमि सुधार को उच्च प्राथमिकता देनी होगी

हरिवंश झारखंड राज्य के गठन के साथ ही इसके नियोजित विकास की चर्चा विभिन्न स्तरों पर प्रारंभ हो गयी है. सभी इस बात से सहमत नजर आते हैं कि यहां विकास की संभावनाओं की कमी नहीं है. झारखंड की रत्नगर्भा धरती अपनी खनिज संपदाओं के लिए विश्व में अद्वितीय है. अत: यहां वही उद्योग उसके […]

हरिवंश
झारखंड राज्य के गठन के साथ ही इसके नियोजित विकास की चर्चा विभिन्न स्तरों पर प्रारंभ हो गयी है. सभी इस बात से सहमत नजर आते हैं कि यहां विकास की संभावनाओं की कमी नहीं है. झारखंड की रत्नगर्भा धरती अपनी खनिज संपदाओं के लिए विश्व में अद्वितीय है. अत: यहां वही उद्योग उसके विकास में सहायक हो सकत हैं, जो इन खनिजों का व्यावसायिक तरीके से उत्पादन करें और इन पर आधारित उद्योगों को फलने-फूलने का आधार तैयार करें.
झारखंड की खनिज संपदा में कोयले का प्रमुख स्थान है. देश के कुल कोयला भंडार का 33 प्रतिशत झारखंड राज्य में अवस्थित है. कोकिंग कोयले का पूरा भंडार यहां अवस्थित है. आजादी से पहले 1938 में देश के कुल कोयला उत्पादन का 60 प्रतिशत यहीं होता था. आजादी के बाद अन्य खदानों में कोयला खदानों के विकास और उत्पादन में वृद्धि के बावजूद झारखंड षेत्र का कुल कोयला उत्पादन में 45 से 50 प्रतिशत योगदान जारी रहा. पिछले दो-तीन दशकों में इसमें कमी आयी. फिलवक्त यह मात्र 25 प्रतिशत के आसपास है. अब नये प्रदेश को सोचना पड़ेगा कि यह स्थिति क्यों हुई और अन्य प्रदेशों में वह कौन सी विशेष सुविधा उपलब्ध है, जो कोयला उद्योग में भारी निवेश के लिए प्रोत्साहित करती है.
कोयला भंडार के नियोजित दोहन से झारखंड राज्य में आधारभूत संरचना का निर्माण, नियोजन औ राजस्व में वृद्धि निश्चित है. कोयला उद्योग ने पहले भी इस क्षेत्र को सामाजिक, आर्थिक प्रगति में योगदान किया है. सुदूर क्षेत्रों में रहनेवाले लाखों-लाख लोगों को विकास की मुख्य धारा से जोड़ा है.
खनिज उद्योग से जुड़े जानकार लोगों का कहना है कि कानून व्यवस्था की दयनीय स्थिति तथा खनन कार्य के लिए भूमि अधिग्रहण और हस्तांतरण में आनेवाली समस्या ने ही मूल रूप से यहां कोयला एवं अन्य खनिज उद्योगों की प्रगति में शिथिलता लायी. अब जब नया प्रदेश बना है, तो इन दोनों समस्याओं को सुलझाने में यहां की सरकार की विशेष दिलचस्पी लेनी होगी. किसी भी क्षेत्र में विकास के लिए अनुकूल कानून व्यवस्था पहली शर्त है. इसके बिना सरकार या गैर-सरकारी संस्थाएं पूंजी निवेश करने से हिचकिचायेगी. दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है भूमि सुधार कार्यक्रम, क्योंकि भूमि सुधार कार्यक्रम को तत्काल लागू करने की आवश्यकता है, जिससे कि सुदूर ग्रामीण क्षेत्र के लोग उग्रवादी संगठनों के फलने-फूलने में सहायक नहीं हो सकें. कानून-व्यवस्था में सुधार के प्रति राज्य सरकार काफी तत्पर नजर आ रही है. यही तत्परता अगर भूमि सुधार कार्यक्रम में भी दिखायी जाये, तो आशा की जाती है कि इस प्रदेश को एमसीसी जैसे उग्रवादी संगठनों से भी निजात मिलेगी. अगर ऐसा नहीं होता है, तो विकास की संभावनाओं से परिपूरित नॉर्थ कर्णपुरा, वेस्ट बोकारो आदि कोयला क्षेत्रों में नयी परियोजनाओं का विकास असंभव होगा.
ध्यान देनेवाली बात है कि कोयला खनन वहीं होगा, जहां कोयले का भंडार है. खनन और इससे संबंधित कार्य के लिए उक्त स्थान पर भूमि की उपलब्धता पहली आवश्यकता है. किंतु भूमि सुधार कार्यक्रम के प्रति वर्षों से सरकार के उदासीन रवैये के कारण भूमि अधिग्रहण और हस्तांतरण की समस्या अत्यंत जटिल हो गयी है.
भूमि अधिग्रहण और अधिग्रहीत भूमि के हस्तांतरण में आनेवाली समस्या का मूल कारण है भूमि स्वामित्व के निर्धारिण में आनेवाली दिक्कतें और उसके कारण विलंब. सरकार के पास उपलब्ध लैंड रिकॉर्ड काफी पुराना होने के साथ-साथ असंशोधित है. लगभग 90 वर्ष पूर्व हुए सर्वेक्षण पर आधारित भूमि का खतियान, इस अंतराल में भूमि कानूनों में परिवर्तन एवं इसके स्वरूप में बदलाव को समायोजित नहीं कर पाया है. फलत: अपनी अस्मिता कायम नहीं रख पायी है. सर्वेक्षण के बाद रैयती भूमि, गैर मजरुआ भूमि, जंगल-झाड़ी का बड़े पैमाने पर हस्तांतरण एवं बंदोबस्त होता रहा है. किंतु लैंड रिकॉर्ड में यह पूर्णयता समाहित नहीं है. कोयला कंपनियां उपलब्ध रिकार्ड के आधार पर भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया तो पूरी करती हैं. पर इसके बाद एक के बाद दूसरी समस्याएं बड़ी हो जाती है. रिकॉड के अनुसार भूमि का वर्गीकरण कुछ और भूमि अधिग्रहण के बाद हस्तांतरण का समय आता है, तो कुछ और होता है. यथा जो भूमि सरकारी खतियान के मुताबिक गैर मजरुआ खास की श्रेणी में है, उस पर रैयती कब्जा जमा हुआ है और बहुत सारे ऐसे उदाहरण हैं, जहां वर्षों से ऐसे रैयत मालगुजारी भी देते आ रहे हैं. अब जब कंपनी जीएमके लैंड के एवज में सरकार को पैसा तो भुगतान करती है, पर उस पर कब्जा नहीं कर पाती है.

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