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नफरत करिए इस राजनीति से!
– हरिवंश – दशम फॉल (रांची) में डूबने से हुई बीआइटी मेसरा के छात्र अभिषेक मिश्र की मौत से दुखद घटना नहीं हो सकती. हर संवेदनशील इंसान को ऐसी आकस्मिक मौत स्तब्ध करती है. संज्ञाहीन और शब्दहीन बनाती है. जीवन क्या यही है? जो खिले नहीं, मुरझा गये? ऐसे अनेक अनसुलझे सवाल उठते हैं. और […]
– हरिवंश –
दशम फॉल (रांची) में डूबने से हुई बीआइटी मेसरा के छात्र अभिषेक मिश्र की मौत से दुखद घटना नहीं हो सकती. हर संवेदनशील इंसान को ऐसी आकस्मिक मौत स्तब्ध करती है. संज्ञाहीन और शब्दहीन बनाती है. जीवन क्या यही है? जो खिले नहीं, मुरझा गये? ऐसे अनेक अनसुलझे सवाल उठते हैं. और अंतत: एक शून्य में आहत मन-मस्तिष्क उलझ जाते हैं. अभिषेक के मां-बाप या परिवार की पीड़ा की कल्पना ही की जा सकती है, एहसास नहीं.
पर हम समाज के तौर पर कहां पहुंच गये हैं? हमारा राजनीतिक स्तर क्या हो गया है? भाजपा, जो चाल, चिंतन, चरित्र वगैरह की बात करती है, उसकी राजनीतिक दरिद्रता कहां पहुंच गयी है? हर मौत में भी राजनीति! जो मौत, श्मशान घाट पर, हर आगंतुक को ‘श्मशान वैराग्य’ सिखाती है. जिसके बारे में युधिष्ठिर-यक्ष संवाद का चर्चित प्रसंग है. यक्ष, युधिष्ठिर से पहला सवाल पूछता है?
जीवन का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? युधिष्ठिर के सभी भाइयों के शव सामने हैं, पर वह एक-एक कर यक्ष के सवालों के उत्तर देते हैं.
भाइयों के पुनर्जीवन के लिए. इस पहले सवाल का युधिष्ठिर उत्तर देते हैं- रोज हम शव कंधों पर लेकर श्मशान जाते हैं. पर हम यह नहीं सोचते कि हम भी शव बनेंगे, हमारी भी यही गति होगी. इस नश्वर संसार में हर मौत से सीख मिलती है. युवा मौतों से और अधिक. हर मौत हमें शालीन बनने और मनुष्य की गरिमा पाने का अवसर भी देती है. साथ कुछ नहीं जाता, पर इस घटिया और अमानवीय राजनीति ने मनुष्य के गरिमा बोध को भी खत्म करना शुरू किया है.
अभिषेक की मौत के बाद सबसे पहले सीबीआइ जांच की मांग की आवाज झारखंड भाजपा नेताओं की ओर से उठी. क्यों? लड़कों का जो समूह पिकनिक मनाने गया था, उसमें रेल मंत्री लालू प्रसाद की बेटी रागिनी भी थी. बीआइटी या किसी संस्थान के छात्र या छात्राएं आज भी दुनिया में पिकनिक, आउटिंग या टूर पर रोज ही आते-जाते हैं. यह ग्लोबल दुनिया की युवा पीढ़ी है. इस पीढ़ी पर पुराने समाज के नियम-कानून लागू नहीं हैं. इस तरह बीआइटी के छात्रों का पिकनिक पर जाना, स्वाभाविक घटना थी. हां, अभिषेक का वहीं दशम फॉल में डूबना दुखद घटना हुई. पर पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार डूबने से मौत हुई है.
फिर भी आहत और स्तब्ध मां-बाप या परिवारवालों को उन परिस्थितियों को पूरी तरह जानने या जांच की मांग का अधिकार है, जिनके तहत अभिषेक की मौत हुई है. अगर परिस्थितिगत जांच में कुछ ठोस आधार मिलते, तो फिर जांच का सवाल उठता. जो लोग भी जांच की बात उठा रहे हैं, उन्हें ठोस साक्ष्य या तथ्यों के साथ बात करनी चाहिए. यह सार्वजनिक जीवन की मर्यादा है. पर परिवार के पहले ही भाजपा नेता कूद गये कि अभिषेक की मौत की सीबीआइ जांच हो. सिर्फ इसलिए कि बच्चों की टोली में लालू प्रसाद की लड़की भी थी. जिम्मेवार राजनेता या राजनीतिक दल यह प्रसंग उठाते कि क्यों अकसर दशम फॉल पर ऐसी घटनाएं होती हैं?
अब तक इसे रोकने के क्या प्रयास किये गये हैं? आज तक किसी ने यह सवाल नहीं उठाया. यह राजनीति, देश और समाज को कहां ले जायेगी? हाल-हाल तक राजनीति का स्तर क्या था? व्यक्तिगत द्वेष-ईर्ष्या और अहं टकराव से ऊपर मुद्दों, सिद्धांतों और आदर्शों की बातों से राजनीति की गरिमा तय होती थी. बाबू जगजीवन राम कांग्रेस के शीर्ष नेता थे. अटल बिहारी वाजपेयी विपक्षी सांसद थे. अटलजी को बाबूजी (जगजीवन राम) के पुत्र की नाराज पत्नी के परिवार ने अनेक कागजात दिये. बाबूजी से संबंधित. अटलजी ने चुपचाप, बिना टीका-टिप्पणी वे सारे कागजात बाबूजी को सौंप दिये. किसी से चर्चा नहीं की.
चंद्रशेखर के पास अनेक दिग्गज नेताओं के परिवारवालों ने अपने ही सगे के खिलाफ सबूत-साक्ष्य दिये. पर लौटा दिया. कांग्रेस के कई बड़े नेताओं में भी यह गरिमा और आत्मबोध रहा. यह उल्लेख उस पीढ़ी का है, जो अस्त हो रही है, पर अभी बुझी नहीं है.
यह गांधी युग या उन पुराने विलक्षण नेताओं की बात नहीं है. वे नेता, जिन्होंने साधन-साध्य की बात की, वे इतने बड़े थे कि उन्होंने मनुष्य होने की गरिमा को ही बढ़ाया. उस पीढ़ी के अंतिम नेता थे स्वर्गीय जयप्रकाश नारायण. 1974 में इंदिरा जी से मतभेद चरम पर था. इस बीच वह दिल्ली गये. अचानक इंदिराजी से मिले. इस मुलाकात को लेकर बड़ा कयास और विवाद हुआ. मुलाकात का प्रसंग जानने के लिए लोग बेचैन थे.
जवाहरलाल जी की पत्नी कमला नेहरू, जेपी की पत्नी प्रभावती देवी की अभिन्न मित्र थीं. कमला जी ने नेहरू परिवार की अंतरंग बातें, प्रभावतीजी को लिखी थीं. कई पत्र थे. उन पत्रों से एक नया विवाद शुरू हो सकता था. उन्हीं पत्रों को इंदिराजी को देने के लिए जेपी 1974 में अचानक उनसे मिले थे. पटना गांधी संग्रहालय के आदरणीय रजी साहब आज भी, इस प्रसंग के साक्ष्य के रूप में मौजूद हैं. अधिसंख्य पुराने नेताओं के निजी जीवन प्रसंग इतने बड़े, उदात्त और प्रेरक हैं कि वे नया समाज, नया मनुष्य गढ़ने की दृष्टि देते हैं.
आज क्या स्थिति है?
कहीं भी, किसी को घसीट दीजिए? क्या किसी नेता के बेटे-बेटी की निजी दुनिया नहीं रह सकती? जब तक कोई प्रामाणिक सबूत न मिले, क्या हर मामला सार्वजनिक बनना चाहिए? यही राजनीति-राजनेताओं का स्तर रह गया है?
पर इस ओछी राजनीति के स्रोत लालू प्रसाद भी रहे हैं. कुछ ही समय पूर्व लालकृष्ण आडवाणी के बेटे की पत्नी, जो काफी पहले तलाक ले चुकी हैं, अब यूरोप में रहती हैं, अचानक दिल्ली प्रेस क्लब पहुंचीं. श्री आडवाणी के खिलाफ गंभीर आरोपों से भरा एक पेपर, उनके सामने पत्रकारों को बांटा गया.
वह बहुत बोली नहीं, कहा- ये सब मेरे आरोप हैं. पत्रकारों को पूछने का अवसर नहीं मिला. वह अचानक यूरोप से आयी थीं. यह सब श्री आडवाणी के निजी विरोधियों ने प्रायोजित किया था. वे ही बेबुनियाद और आधारहीन सवाल राजद द्वारा लोकसभा में जम कर उठाये गये. कांग्रेस और वामपंथियों ने किनारा ही नहीं किया, इस प्रवृत्ति पर आपत्ति भी की. आज झारखंडी भाजपाई वही घटियापन दिखा रहे हैं.
इस आधुनिक राजनीति से तो हमारे गांवों के अपढ़ लोग बेहतर. गांवों में आज भी परंपरा है कि दुश्मन की लड़की की शादी है, तब भी लोग वहां जाकर हरसंभव मदद करते हैं. हालांकि यह परंपरा खत्म हो रही है, पर इस हजारों वर्ष पुरानी परंपरा के संदेश स्पष्ट हैं.
दुश्मनी, मतभेद या शत्रुता मुद्दों, विचारों या स्टैंड को लेकर भले हो, पर निजी जीवन में एक मानवीय संबंध विरोधियों से भी होना चाहिए. लोकतंत्र का तो मर्म ही यही है. मतभेद, विचारों व सिद्धांतों को लेकर हो, पर वह परिवार के स्तर पर उतर जाये, यह अशोभनीय व निंदनीय है. आज देश में प्रधानमंत्री दस फीसदी की तेज गति से विकास की बात कर रहे हैं.
यानी और संपन्नता व समृद्धि देश-समाज में आये. पर, इस समृद्धि व संपन्नता का क्या मर्म है? क्या निजी द्वेष, घटिया स्तर की शत्रुता यही मनुष्य की प्रगति के लक्षण हैं? मनुष्य विचारों में, उदात्तता में, चरित्र में और मानवीय बनने में नया धरातल छुए, यह है. यही असली मानवीय प्रभाव है. भारत समृद्ध होकर अगर अपने ऊंचे मूल्य खो देता है, तो वह समृद्धि किस काम का? क्या कभी हमारी संसद या रहनुमा ऐसे बुनियादी सवालों पर दलगत भावना से ऊपर उठ कर गौर करेंगे?
और मीडिया?
पूरे देश में ‘मीडिया ट्रायल’ हो रहा है. क्योंकि इस प्रसंग में लालू प्रसाद का नाम उछलता है. क्या इस मुल्क में मीडिया को सनसनीखेज बनाने के लिए कोई मुद्दा नहीं रह गया? जिस राज्य में सरकार नाम की चीज नहीं रह गयी हो, जहां लूटना-भ्रष्टाचार रग-रग में शामिल हो चुका हो, जहां 16-18 जिलों में नक्सली प्रभावी राज चला रहे हों, वहां मीडिया का यह हाल? चैनल्स? इनसे देश-समाज को भगवान बचायें. आज राजनीति में साहस और नैतिक आभा नहीं है, वरना जिम्मेदार राजनीति पूछती ‘मीडिया की सामाजिक जिम्मेवारी और एकाउंटबिलिटी क्या है?’
दिनांक : 11.12.06
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