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चरित्रहीन पार्टियां, ब्लैकमेलर विधायक, ””रंगबाज मंत्री”” और असहाय झारखंड !
– हरिवंश – चार निर्दलीय मंत्रियों के इस्तीफे के बाद अर्जुन मुंडा की सरकार स्पष्ट रूप से अल्पमत में है. एनडीए का जहाज साफ डूबता दिख रहा है (सिंकिंग बोट). चमत्कार सिर्फ अर्जुन मुंडा को दिखाई दे रहा है, झारखंडी जनता को यह राजनीतिक छल-प्रपंच लग रहा है. राजनीति में नैतिकता का मामूली अंश होता, […]
– हरिवंश –
चार निर्दलीय मंत्रियों के इस्तीफे के बाद अर्जुन मुंडा की सरकार स्पष्ट रूप से अल्पमत में है. एनडीए का जहाज साफ डूबता दिख रहा है (सिंकिंग बोट). चमत्कार सिर्फ अर्जुन मुंडा को दिखाई दे रहा है, झारखंडी जनता को यह राजनीतिक छल-प्रपंच लग रहा है. राजनीति में नैतिकता का मामूली अंश होता, तो यह सरकार गद्दी छोड़ जन-अदालत में होती.
पर राजनीति का नया समीकरण है, राजनीति = झूठ + प्रपंच + छल + षड्यंत्र + तिकड़म, वगैरह-वगैरह. इसलिए अल्पमत में आने के बाद भी वीपी सिंह ने प्रधानमंत्री पद नहीं छोड़ा. लोकसभा में बहस करा कर इस्तीफा दिया. 13 दिन की वाजपेयी सरकार ने यही किया और अब तो यह परंपरा चल पड़ी है कि अल्पमत की सरकार सदन में बहस करा कर इस्तीफा देती है. तकनीकी रूप से यह परंपरा सही हो सकती है, पर यह नैतिक नहीं है.
अर्जुन मुंडा सरकार ने मंत्री कमलेश सिंह को दिल्ली जाने से जिस तरह से रोका या मुरी स्टेशन पर जिस तरह ट्रेन रोक कर चेक किया गया, ऐसे काम सरकारें नहीं करतीं.
पर यह मंत्री कमलेश सिंह कौन हैं? याद करिए, यह वही विधायक हैं, जिन्होंने शिबू सोरेन के मंत्रिमंडल में मंत्री के रूप में शपथ ली थी. तब तक लगने लगा था कि शिबू सोरेन का मंत्रिमंडल सिंकिंग बोट है. फिर तुरंत लाइलाज बीमारी हो गयी और वह अपोलो में भरती हो गये. आइसीयू में, ताकि विधानसभा में उपस्थित न होना पड़े. उस दिन का ड्रामा पूरे देश ने टीवी पर देखा.
फिर यही प्रतिनिधि अचानक आइसीयू से बाहर आ गये. चंगे हो कर. पता नहीं, शायद सीधे ईश्वर से कोई चमत्कारिक दवा मिल गयी. फिर वह शपथ लेकर अर्जुन मुंडा मंत्रिमंडल में मंत्री हो गये. यह भी बात सामने आयी कि भाई और परिवारवालों को ही पीए वगैरह बना लिया है. सिंचाई विभाग उनके पास था, राज्य के भ्रष्टतम विभागों में से एक. पुल बने नहीं कि बह गये. अगर झारखंड की जनता जागरूक होती, तो ऐसे मंत्रियों के खिलाफ सीबीआइ जांच की मांग होती.
अब इनका दूसरा रूप देखिए . यह चुपचाप एक गाड़ी से जमशेदपुर जा रहे थे. आधी रात को. बिना अपना सरकारी बॉडी गार्ड लिये. जो मंत्री सुरक्षा गार्ड लेकर चलना शान समझते हैं, गाड़ियों के काफिले साथ रखते हैं, वैसे मंत्री देर रात चुपचाप एक गाड़ी में छिपते-छिपाते कहां जा रहे थे? उनका मिशन क्या था? कुछ दिनों पहले नक्सलियों ने उनके पुश्तैनी घर पर हमला किया, तो सरकार से उन्होंने और सुरक्षा मांगी. जिस मंत्री को सुरक्षा की इतनी जरूरत थी, वह अकेले असुरक्षित किस गोपनीय मिशन पर जा रहा था? फर्ज करिए कि जैसे रांची-जमशेदपुर सड़क पर रात में प्राय: डकैतों का राज रहता है, अगर कमलेश सिंह को सड़क डकैतों ने घेरा होता. कुछ किया होता, तो आज क्या परिदृश्य होता? अब उनके कोटेबुल कोट्स (उल्लेखनीय उद्धरण) पढ़िए. रांची से प्रकाशित एक अखबार में (6 सितंबर 2006) उन्होंने कहा है ,
– मैं शुरू से रंगबाज रहा हूं, जानना है, तो जपला आइए.
– अच्छे घराने का हूं, चाहें तो कई मंत्री पद खरीद लूं.
– शेर की तरह राजनीति करता हूं , लुका-छिपी नहीं.
मंत्रीजी के ऐसे अनेक अनमोल आप्त वाक्य हैं. पर ये चंद नमूने ही एक व्यक्ति के बारे में पर्याप्त जानकारी देते हैं. उसके सोच, कार्यकलाप और स्तर का. डॉ राममनोहर लोहिया कहा करते थे, जिंदा कौमें पांच वर्ष इंतजार नहीं करतीं. उनका यह कथन लोक चेतना-लोक जागरण के संदर्भ में था.
अगर झारखंड की जनता ऐसी बात करनेवालों की रहनुमाई के खिलाफ लोक आवाज नहीं उठाती, तो उसे सुशासन, विकास वगैरह के बारे में बात करने का कोई हक नहीं. अगर जनता मूकदर्शक बनी रही, तो शासक ऐसे ही होंगे. यथा प्रजा, तथा राजा.
अब माननीय एनोस एक्का! माननीय हरिनारायण राय! और माननीय मधु कोड़ा के ‘सुकार्यों’ की गूंज और गंध पिछले सवा वर्ष से आप देख और सुन ही रहे हैं. अखबार के पन्नों पर. टीवी चैनलों पर. दरअसल इनके ‘सुकामों’ और आचरण के ब्योरों से अखबारों के पन्ने भर जायेंगे.
कोई भी सजग समाज (सिविल सोसाइटी) अपने ऐसे सुपात्रों की जांच करवाता है. आश्चर्य तो यह है कि जो भाजपा ‘भय, भूख और भ्रष्टाचार’ से मुक्ति के सपने दिखा रही थी, वह उन्हें कैसे ढोती रही? क्या, ‘सत्ता’ इतनी महत्वपूर्ण चीज है कि हर कुकर्म किया जाये. दोषी मधु कोड़ा, हरिनारायण या एनोस नहीं, बल्कि सत्ता भूख में ऐसे पात्रों को शीर्ष पर पहुंचानेवाले सत्ताभोगी राष्ट्रीय दल हैं. पहले यह काम भाजपा ने किया, अब ऐसे तत्वों को कंधे पर उठा कर कांग्रेस जयकार रही है.
दरअसल राष्ट्रीय दल, चरित्रहीन हो गये हैं. भारतीय समाज चरित्र को महज ‘सेक्स’ से जोड़ कर देखता है. यह संकीर्ण अर्थ है. राष्ट्रीय जीवन में जब देश और समाज का भविष्य तय करनेवाले दल या संगठन, विचारहीन हो जायें, सौदेबाज हो जायें, गिरोहों के संरक्षक हो जायें, सिद्धांत और आदर्श को देश, समाज और जीवन से खत्म करनेवाले केंद्रस्रोत बन जायें, तब ऐसे दलों-संगठनों को ‘चरित्रहीन’ कहना भी कम है. इनके पूरे पाप और कर्म को यह शब्द ‘ध्वनित’ नहीं करता.
राजनीतिक दल, अगर दलालों के प्रश्रय केंद्र बन जाये, तो देश का क्या होगा? राष्ट्रीय जीवन में झारखंड के संदर्भ में भाजपा और कांग्रेस दोनों चरित्रहीन हो गये हैं. ब्लैकमेलर निर्दलीय विधायकों को कंधे पर रख कर सत्ता शीर्ष तक पहंचाने का राष्ट्रीय पाप पहले भाजपा ने किया, अब कांग्रेस करने जा रही है. एनडीए राज में भी सबसे प्रभावी यही निर्दलीय थे, अब लगभग तय है कि यूपीए राज में भी शीर्ष पर निर्दलीय ही होंगे. पर उनके कुकर्मों की कीमत कौन चुकायेगा? इनकी पब्लिक एकाउंटिबिलिटी क्या है?
भाजपा हो या झामुमो या राजद, अगर ऐसे दलों से कोई मुख्यमंत्री बनता है, तो उसके अच्छे कामों के पुरस्कार दल को मिलते हैं. बुरे कामों की कीमत भी अंतत: ये दल ही चुकाते हैं. इसलिए दल का व्यक्ति, शिखर पर होता है, तो दल का अंकुश और भय उस पर रहता है. निर्दलीय व्यक्ति शिखर पर है, तो उसे किसका भय? फर्ज करिए वह निर्दलीय लुटेरा हो जाये, तो अधिकतम क्या होगा? सजा के तौर पर शायद झारखंडी जनता एक बार चुनाव में हरा दे.
हालांकि आज की जनता के बारे में निश्चियपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता. पर ऐसा पराजित निर्दल नेता, एक बार शिखर पर सत्ता सुख लेकर या अरबों का वारा-न्यारा करके ही राज्य का दामन नहीं छोड़ता. ऐसे लोगों की नेतृत्वविहीनता या विजनलेस होने की कीमत राज्य चुकाता है? जनता चुकाती है? युवा पीढ़ियां चुकाती हैं? विकास की इस दौड़ में ऐसे अनएकाउंटेबुल नेतृत्व से झारखंड कहां पहुंचेगा?
लोकतंत्र की सीमा : झारखंड में हो रही राजनीतिक कलाबाजी ने ‘लोकतंत्र’ की सीमा को उजागर किया है. अगर समाज इस पर चुप रहता है, मौलिक ढंग से नहीं सोचता या समाधान नहीं निकालता, तो लोकतंत्र से विश्वास उठने लगेगा. झारखंड विधानसभा का स्वरूप देखिए.
एनडीए के मुख्य घटक हैं, भाजपा और जदयू. भाजपा के 30 और जदयू के 06 सदस्य हैं यानी कुल 36. उधर यूपीए के तीन मुख्य घटक हैं, झामुमो (17), कांग्रेस (9) आरजेडी (7) यानी कुल 33. एनडीए से 3 कम. अब विधानसभा की कुल संख्या 81 है. 81 में से मुख्य दलों से जुड़े विधानसभा के सदस्य हैं (एनडीए = 36, यूपीए = 33) कुल 69. शेष (81-69) 12 निर्दलीय हैं.
इसमें से एक सीपीआइ-एमएल के विधायक का स्पष्ट घोषित स्टैंड है. बचे 11 निर्दल. यही 11 निर्दल, इधर या उधर जा कर राज्य, सरकार और जनता का भविष्य तय कर रहे हैं. इनमें से अधिकांश इधर भी मंत्री थे, अब उधर भी बनेंगे.अब तक पाला बदलनेवालों में चार लोग हैं, यानी यह लोकतंत्र जिसमें 04 लोग कोई सरकार बने या रहे, उसमें खुद शीर्ष पर होंगे.
पर ये चार बड़े राजनीतिक दलों, क्षेत्रीय दलों या घटकों से जुड़े कुल 69 विधायकों को नचायेंगे. कभी इधर रहे, तो एनडीए के साथ सत्ता सुख भोगे. इधर मन ऊबा, तो यूपीए के साथ बांसुरी बजायेंगे. यानी एनडीए (36) और यूपीए (33) के 69 विधायक इन चार निर्दलीय विधायकों के इशारे पर थिरकने-नाचने को बाध्य हैं? क्या यही लोकतंत्र है?
ये चार राज्य के भविष्य को बंधक रखेंगे और तबाह करेंगे? क्या यह बहुमत का लोकतंत्र है या अल्पमत की ब्लैकमेलिंग ताकत? राष्ट्रीय दलों को इस पर सोचना-विचारना चाहिए और निर्दलीय लोगों की स्थिति, वोटिंग पावर और सरकार बनाने-गिराने की शक्ति को ही प्रतिबंधित करना चाहिए. संवैधानिक सुधार द्वारा अगर निर्दलीयों के वोट से सरकार बनाने-गिराने की ताकत खत्म कर दी जाये, तो इनका राजनीतिक कारोबार-व्यापार खत्म हो जायेगा? यह काम संसद ही कर सकती है, पर क्या संसद ऐसे सवालों के प्रति गंभीर है?
जो खबरें आ रही हैं, उनके आधार पर यह स्थिति देखिए. संवैधानिक प्रावधानों के तहत कुल 12 लोग मंत्री बन सकते हैं. प्लस एक मुख्यमंत्री. मधु कोड़ा मुख्यमंत्री बनते हैं, तो उनके साथ जो 10 निर्दलीय हैं, क्या वे सभी मंत्री बनेंगे? खबर है कि आरजेडी और निर्दलीय मिल कर सरकार में जायेंगे यानी कुल 17 लोग. पर जगह है 12. जो पांच गद्दी नहीं पायेंगे, वे झारखंडी विधायक क्या करेंगे? यह जगजाहिर है.
सिद्धांतविहीन, सत्ताप्रेमी और राजसुखभोगी लोगों को जहां अवसर दिखेगा, वहीं पहुंचेंगे. शायद इसी समीकरण या गणित के आधार पर ‘अर्जुन मुंडा चमत्कार’ की उम्मीद कर रहे हैं. अब एक और विरोधाभास देखिए. एनडीए सरकार में भाजपा के 30 विधायक हैं, पर अर्जुन मुंडा सरकार में भाजपा कोटे में से दो विधायक ही मंत्री थे. उधर निर्दलीय छह मंत्री थे. निर्दलीय विधायकों की इस बारगेनिंग क्षमता पर अंकुश लगाना राष्ट्रीय जरूरत है. यह काम भी संवैधानिक संशोधन से संसद कर सकती है.
सूचना है कि कांग्रेस (9) और झामुमो (17) यानी कुल 26 लोग सरकार को बाहर से समर्थन देंगे, तो सरकार के अंदर कौन होंगे? निर्दलीय + आरजेडी यानी 10+7 (एक सीपीएमएल छोड़ कर) कुल 17 विधायक.
82 (एक नामिनेटेड को छोड़ कर) लोगों की विधानसभा में वस्तुत: (इफेक्टिविली) प्रत्यक्ष 17 विधायकों द्वारा समर्थित यह सरकार होगी और 26 लोग बाहर से समर्थन देंगे. परंपरागत तर्क देनेवाले कहेंगे कि 26 बाहर से समर्थन देनेवाले तो हैं ही यानी कुल 43 लोग समर्थक हैं.
स्पष्ट बहुमत है. पर जितना भी संवैधानिक आड़ में छल या प्रपंच कर लें, इफेक्टिविली 17 लोगों की सरकार होगी. यह भारतीय लोकतंत्र के सामने एक बड़ा सवाल है, जिसका निदान ढूंढ़ना होगा. और कांग्रेस को तो खासतौर से? क्योंकि भारतीय राजनीति के हर मुमकिन पतन का स्रोत तो कांग्रेस ही है.
भाजपा से लेकर हर मध्यमार्ग दल तो कांग्रेस की ही छायाप्रति हैं. कांग्रेस का दायित्व इस कारण अधिक है, क्योंकि कांग्रेस उस गांधी की पार्टी है, जिसने कहा था कि मंजिल पर पहुंचने से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि जिस रास्ते से हम चलते हैं, वह स्वस्थ और शोभनीय है या नहीं?
अब भारतीय नेताओं और राजनीतिक दलों का चरित्र देखिए. जिसे दल-बदल और आया राम-गया राम की संस्कृति को ’60 के दशक में प्रोत्साहित कर कांग्रेस ने भारतीय राजनीति को चरित्रहीन बना दिया. बहुत बाद में लोक दबाव के कारण इस रोग का हल ढूंढ़ा गया, ‘दल-बदल’ कानून. अब देखिए, थोक में विधायकों को अगवा किया जाता है. पहले यह काम एनडीए ने किया, अब यूपीए कर रहा है.
विधायक स्वतंत्र क्यों नहीं छोड़े जाते, ताकि वे मुक्त हो कर बिना दबाव, स्वेच्छया निर्णय कर सकें? किस बात का भय है कि विधायकों की रखवारी की जाती है? क्या भय से संचालित लोकतंत्र सही है? इस राजनीति में पूंजी की क्या भूमिका है. यह गहराई से जांच-पड़ताल का विषय है?
राज्यपाल : ऐसी स्थिति में संविधान के प्रति प्रतिबद्ध राज्यपाल का क्या फर्ज होना चाहिए? राज्यपाल को स्पष्ट रूप से झारखंड विधानसभा की वस्तुस्थिति, संभावित हार्स ट्रेडिंग और अल्पायु सरकारों के बारे में केंद्र को लिखना और बताना चाहिए. निर्दलीय विधायकों के ‘आया राम-गया राम चरित्र’, कामकाज और भूमिका के बारे में बताना चाहिए और राष्ट्रपति शासन, फिर चुनाव की सिफारिश करनी चाहिए.
साथ ही झारखंडी जनता को जागना होगा. अगर सिद्धांतहीन, रीढ़हीन, विजनहीन, आत्मकेंद्रित इंसान, परिस्थितियोंवश या संयोगवश बड़े ओहदे पर पहुंच जाये और गलत काम करे, तो उसके बारे में बोलिए. अपने को रंगबाज कहनेवाले मंत्री बन जायें, तो क्या आप चुप रहेंगे? लोकतंत्र के शिखर पर रंगबाज बैठेंगे और सीना ठोक कर कहेंगे कि हम रंगबाज हैं? कोई मंत्री कहेगा कि मैं ऐसे घराने से हं कि कई मंत्री पद खरीद लूं? इसका अर्थ मंत्री पद बिकता है?
क्या इस मंत्री ने खरीदा है? यानी पहले इन्होंने यूपीए और एनडीए में पद खरीदा था, अब फिर यूपीए में खरीद रहे हैं. यह सामंती मिजाज और बयान लोकतंत्र से मेल नहीं खाते. साहस के साथ ऐसे लोगों के असंवैधानिक आचरण का प्रतिरोध करिए. घर-घर, ऐसे लोगों के खिलाफ नफरत और घृणा के बीज डालिए, निश्चित रूप से कभी न कभी जब इस बीज से ध्वंस या निर्माण की फसल लहलहायेगी, तो झारखंड बदलेगा.
पुनश्च : यह टिप्पणी लिखे जाने के दौरान ही, एक अत्यंत समझदार व्यक्ति ने झारखंड की राजनीति के संदर्भ में एक उम्दा सुझाव दिया. यहां के मंत्रियों-विधायकों (पक्ष-विपक्ष दोनों) को विकास से कोई सरोकार तो है नहीं, तो क्यों नहीं ये आपस में मिल कर तय कर लेते कि कैसे हर विधायक सत्ता-सुख भोगेगा?
यहां कुल 82 विधायक हैं, साल में कुल 365 दिन होते हैं, अत: हर एक विधायक लगभग साढ़े चार दिन (36582 = 4.45) मुख्यमंत्री रहे, शेष मंत्री. इस तरह हरेक को मौका मिलेगा. अपना घर सजाने, संवारने और राजसुख भोगने का.
दिनांक : 7-09-06
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