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कैसे हुई युवा भविष्य की हत्या

– हरिवंश – हर जगह आप सुनेंगे कि भविष्य युवाओं का है. नंदन नीलेकणि ने प्रभात खबर से अपनी बातचीत में कहा कि झारखंड-बिहार में दावं युवाओं पर है, क्योंकि आनेवाले वर्षों में हिंदी पट्टी में युवा सर्वाधिक होंगे. पर इन युवाओं के लिए झारखंड की सरकारें क्या करती रही हैं? कभी यह सवाल उठा? […]

– हरिवंश –
हर जगह आप सुनेंगे कि भविष्य युवाओं का है. नंदन नीलेकणि ने प्रभात खबर से अपनी बातचीत में कहा कि झारखंड-बिहार में दावं युवाओं पर है, क्योंकि आनेवाले वर्षों में हिंदी पट्टी में युवा सर्वाधिक होंगे. पर इन युवाओं के लिए झारखंड की सरकारें क्या करती रही हैं? कभी यह सवाल उठा?
शायद जगजीत सिंह के गायन में सुना था, बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी. युवाओं से जुड़े सवाल उठेंगे, तो अनेक गंभीर चीजें स्पष्ट होंगी. युवाओं के साथ नौ वर्षों में अपराध हुआ है. उनके भविष्य की हत्या की है, पार्टियों ने. कभी विधानसभा में युवकों के भविष्य को लेकर कोई चर्चा नहीं हुई. आज यही नेता और दल, किस मुंह से युवकों से वोट मांग रहे हैं?
झारखंड को गर्त में डाल चुके हैं. पर यही दल, नेता, अब युवकों के परिवारवालों के पास याचना करेंगे, वोट मुझे दें, मेरे दल को दें. जाति के नाम पर दें. धर्म के नाम पर दें. समुदाय के नाम पर दें. बाहरी-भीतरी के नाम पर दें. विचार और सिद्धांत की भी दुहाई देंगे.
कहेंगे,विचार और सिद्धांत के लिए भी युवा या युवकों के गार्जियन हमें मत दें. समर्थन दें. पर सावधान रहिए. गांव में रंगे-सियारों की बात सुनी थी. वोट के दिनों में इन सभी नेताओं ने अपने रंग-ढंग बदल लिये हैं. इसलिए इनसे पूछिए कि झारखंड के युवकों को लेकर आपके पास क्या एजेंडा है? क्या समाधान है?
कम से कम युवा जान लें कि उनके भविष्य के साथ झारखंड में हुआ क्या है ? यह टिप्पणी इसलिए भी छप रही है, क्योंकि जेपीएससी की परीक्षाओं के बाद बुंडू के एक प्रतिभावान छात्र ने प्रभात खबर को एक पत्र भेजा. पूछा, मेरा कैरियर श्रेष्ठ रहा है (फर्स्ट डिवीजन). जेपीएससी की दोनों परीक्षाओं में लिखित में मुझे बहुत अच्छे अंक मिले, पर मौखिक परीक्षा में बहुत कम. बुंडू के इस छात्र की पीड़ा थी कि मुझे इससे भी कष्ट नहीं हुआ. पर मेरे ही इलाके के एक राजनेता हैं, स्वजातीय हैं. उनके भाई ने कई कक्षाओं में विश्राम (फेल) किया.
पर वह जेपीएससी परीक्षा में श्रेष्ठ नौकरी पा गया. उस छात्र ने अपनी पीड़ा लिख कर, समाज और सरकार से पूछा, मेरे पास नक्सली बनने के अलावा क्या विकल्प है ? क्योंकि मेरे पिता ने जमीन बेच कर मुझे पढ़ाया है. मैं अच्छे अंक पा कर क्यों बेरोजगार हूं ?
भविष्य में कोई छात्र लिख कर किसी अखबार से यह सवाल न करे, इसलिए भी झारखंडी युवकों को सावधान होना चाहिए. युवकों के अभिभावकों को भी.
अब युवक पूछें ?
झारखंड बने नौ वर्ष हुए. 15 नवंबर 2000 से 15 नवंबर 2009 के बीच. अब दसवां वर्ष है. इन नौ वर्षों में झारखंड लोकसेवा आयोग की नौ परीक्षाएं होनी चाहिये थीं. पर हुईं कुल तीन. उन तीन में से महज दो के रिजल्ट आये हैं. इन नौ वर्षों के दौरान, नौ परीक्षाएं होतीं, तो बड़े पैमाने पर झारखंड के बेरोजगार युवकों-छात्रों को मौका मिलता. पर नौ वर्ष में तीन ही परीक्षाएं हुईं, छह नहीं. हालांकि रिजल्ट दो परीक्षाओं के ही निकले. इस तरह जो लाखों लड़के ओवर एज हो गये, उनका क्या गुनाह था ?
याद रखिए, ऐसी हर परीक्षा में बैठने के लिए उम्र की सीमा तय है. पहले से. इसमें फेरबदल संभव नहीं. इस तरह न जाने कितने हजार या लाख युवक बिना परीक्षा दिये ही, उम्र सीमा पार कर गये.
अब वे परीक्षा में नहीं बैठ सकते. इस तरह लाखों छात्रों के भविष्य की हत्या हुई है. छात्रों को पूछना चाहिए, हमारे भविष्य के हत्यारे कौन हैं ? क्यों परीक्षा के बाद रिजल्ट में विलंब होता है ? क्यों नहीं परीक्षा कैलेंडर बना? क्या करती रही विधानसभा और सरकारें? क्यों नहीं राजनीतिक दलों के एजेंडा में ये सवाल शुमार हुए. यह तो हुई झारखंड लोकसेवा आयोग की बात.
इसी तरह सबआर्डिनेट सर्विसेज में नियुक्तियां होनी थीं. आम बोलचाल की भाषा में जिसे सुपरवाइजरी ग्रेड कहते हैं, उस वर्ग में पद होते हुए, नियुक्तियां नहीं हो सकीं. मसलन, लेबर इंस्पेक्टर, सप्लाई इंस्पेक्टर, एक्साइज इंस्पेक्टर, को-ऑपरेटिव इंस्पेक्टर, सर्किल इंस्पेक्टर वगैरह पदों पर नियुक्तियां. बड़े पैमाने पर रिक्तियां थीं, खाली पद थे, पर नौकरी किसी को नहीं मिली.
राज्य बना, तो नारा लगा, रोजगार की बरसात होगी. युवकों के लिए कॉलेज खुलेंगे . लॉ इंस्टीट्यूट की योजना नौ वर्षों पहले बनी. आइआइटी, आइआइएम खुलने की बात हुई. याद रखिए, ये सभी संस्थाएं केंद्र की मंजूरी और मदद से खुलनी थीं. केंद्र तैयार रहा, पर उनके प्रस्ताव राज्य सरकार के यहां खो गये.
क्योंकि मंत्रियों-अफसरों को उन कामों की तलाश थी, जो उन्हें संपन्न बना सकते थे. जो ईमानदार और विजनरी अफसर थे, जिनकी इच्छा थी कि ऐसी संस्थाएं खुलें, उन्हें संट कर दिया गया. इस तरह एक ओर न नयी नौकरियों के अवसर दिये गये, न दूसरी ओर अच्छे संस्थान खोल कर, प्रतिभावान छात्रों को पढ़ने का मौका.
झारखंड के लोग याद रखें कि जब सरकारें और राजनीतिक दल उनके भविष्य की हत्या कर रहे थे, तब झारखंड के वीवीआइपी के बच्चों के लिए क्या अवसर थे ? गुजरे आठ वर्षों तक लगातार विभिन्न कोटों से इनके बच्चे सीधे दाखिला पा रहे थे. मेडिकल में. भले ही ये बच्चे लिख-लोढ़ा पढ़ पत्थर की योग्यता वाले रहे हों, पर वे सीधे डॉक्टर बन रहे थे. उन्हें प्रतियोगिता परीक्षा में बैठने की मजबूरी नहीं थी, क्योंकि वे वीवीआइपी लोगों के बच्चे थे.
दरअसल ये राजनीतिज्ञ इस नये दौर के नये राजा-महाराजा हैं. ये बार-बार आपको छलेंगे. जाति के नाम पर. धर्म के नाम पर. क्षेत्रवाद का नाम देकर. मोह कर. भ्रम में डाल कर. क्योंकि ये मानते हैं कि नासमझ मतदाताओं के बीच ठग ही राज करते हैं. इसलिए झारखंड के नौजवानों को और बेरोजगारों को सजगता का परिचय देना होगा.
इसी तरह ब्लॉक स्तर पर शिक्षा, श्रम, सप्लाई, को-ऑपरेटिव के क्षेत्रों में काम करनेवाले नहीं हैं. फिर उस वर्ग में जाइए, जिसे स्टेट क्लास-2 कहते हैं. वहां भी एक परीक्षा नहीं हुई, न एक नियुक्ति.
स्टेट क्लास-3 के सर्विसेज का यही हाल है. इससे चयनित लोग, राज्य सचिवालय, आयुक्त कार्यालय में काम करते हैं. झारखंड लोक सेवा आयोग के कार्यालय में सहायक के रूप में होते हैं.
विश्वविद्यालय सहायक संवर्ग में इसी से लोग चुने जाते हैं. इस राज्य से कोई पूछनेवाला है कि इन लाखों पदों पर नियुक्तियां क्यों नहीं हुई ? जहां लाखों बच्चों का भविष्य बन सकता था, उनके भविष्य को अंधकार में डालने का काम किसने किया? इन लाखों युवकों को रोजगार मिलता, तो कई लाख परिवार आबाद होते. पर यह नहीं हुआ.
इसी तरह फॉरेस्ट गार्ड पद पर 21 से 25 हजार के बीच नियुक्तियां होनी थीं, वह भी नहीं हुईं. बात इतनी ही नहीं है. मुफस्सिल स्तर पर काम करनेवालों की भारी कमी है. वहां भी पंचायत सेवक, राजस्व कर्मचारी, वीएलडब्लू रखे जाने थे, पर अब तक परीक्षाएं नहीं हुईं. पुलिस में सिपाहियों की बहाली परीक्षाएं नहीं हुईं. पुलिस में ही सब-इंस्पेक्टर बहाल नहीं किये गये.
लगभग हर विभाग में इंस्पेक्सन का काम करने के लिए इंस्पेक्टर होते हैं. मसलन माप-तौल के इंस्पेक्टर, पर्यावरण इंस्पेक्टर, पुलिस इंस्पेक्टर वगैरह. पर कहीं कुछ नहीं हुआ. अंतत: लाखों-लाख झारखंडी युवा जो रोजगार पा सकते थे, वे बेरोजगार ही रहे. इसके लिए कौन दोषी है ?
रोजगार के मोरचे पर ये सभी कदम उठाये गये होते, तो झारखंड की बड़ी आबादी को रोजगार मिलता. इसका दूसरा गहरा असर होता. राज्य सरकार के कामकाज में इफीसियंसी (उत्पादकता) में गुणात्मक बदलाव होता. सरकार रोना रोती रही है कि हमारे यहां कर्मचारियों की संख्या कम है, इसलिए केंद्र सरकार के फंड का हम इस्तेमाल नहीं कर पाते. हर साल कई सो करोड़ सरेंडर करते हैं.
देश के सबसे गरीब राज्य में कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च नहीं हो पाता, पैसा सरेंडर होता है, क्योंकि सरकारी कर्मचारियों का अभाव है. पर कहीं आवाज नहीं गूंजी कि ये जरूरी नियुक्तियां हों. क्या इन चुनावों से कहीं आपने रोजगार की चर्चा सुनी है. युवाओं के सवाल पर कोई आहट है? नहीं है, तो झारखंड के युवा अंगराई लें. अभी एक दिन का समय है. समय-अवसर गुजर गये, तो पश्चाताप ही हाथ रहता है. चिड़िया खेत चुग ले, फिर रोने से क्या होगा?
दिनांक : 23-11-09

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