।। राहुल सिंह ।।
झारखंड के पूर्व उप मुख्यमंत्री सुदेश कुमार महतो ने सिंदरी दौरे के दौरान कहा कि घर हमारा, जमीन हमारी, गांव हमारा तो फिर यहां की राजनीति दूसरों की कैसे हो सकती है? सुदेश के ये सुर राज्य की कांग्रेस नेत्री और मंत्री गीताश्री उरांव के सुर से मिलते-जुलते हैं. गीताश्री उरांव जब से राज्य की मानव संसाधन विकास मंत्री बनी हैं, तब से वे खुद के द्वारा तय की गयी झारखंडियत की परिभाषा के झूले पर झूल रही हैं.
भाषाएं जिसे देश, प्रदेश और वर्ण की सीमाएं न कभी बांध सकी हैं और न कभी बांध सकेंगी, उसके लिए वे लगातार खांचे तय कर रही हैं! उनकी परिभाषा और व्याख्या के अनुसार, गोड्डा की अंगिका बोलने वाली जनता व गढ़वा की भोजपुरी-मगही बोलने वाली जनता बाहरी हो जायेगी या फिर है! शायद उन्हें पता है भी या नहीं कि संताल परगना का गैर आदिवासी ही नहीं बल्कि आदिवासी समुदाय का बड़ा तबका भी जनजातीय भाषा के अलावा स्तरीय अंगिका बोलना जानता है. झारखंड राज्य गठन का आंदोलन शुरू होने से बहुत पहले संताल परगना अंग प्रदेश का हिस्सा रहा है. प्राचीन इतिहास में उसे अंग महाजनपद का हिस्सा बताया गया है. मंगलपांडे के विद्रोह से बहुत पहले 1784 में भागलपुर के बर्बर अंगरेज कलेक्टर
ऑगस्त क्लीवलैंड की हत्या करने वाले वीर तिलका मांझी का जन्म भागलपुरजिले के सुल्तानगंज इलाके में हुआ था. तिलका मांझी के सम्मान में भागलपुरविश्वविद्यालय का नाम तिलकामांझी विश्वविद्यालय है और उस विश्वविद्यालयमें संताली की पढ़ाई भी होती है, जिसको लेकर गीताश्री मॉडल में अबतक कोईजिरह वहां नहीं हुई है और शायद कभी हो भी नहीं. जबकि झारखंड गठन के बादजनजातीयों की कुल आबादी बिहार में मात्र एक प्रतिशत ही है.संताल परगना के लोग अब भी इलाज के लिए, शादी-विवाह व बड़े आयोजनों कीखरीदारी के लिए, उच्च शिक्षा पाने के लिए भागलपुर की ओर रुख करते हैं औरपलामू के लोग इसी तरह की स्थिति में बनारस की ओर रुख करते हैं.गढ़वा-डालटनगंज में बड़ी संख्या (जिनके पूर्वज वहां सैकड़ों साल से रहरहे हों) में ऐसे लोग आपको मिलेंगे, जो रांची से बेहतर बनारस कोजानते-समझते हैं और संताल परगना में ऐसे लोग मिलेंगे जो रांची से बेहतरभागलपुर-पटना को जानते-समझते हैं. इसी तरह सिमडेगा में ऐसे लोग मिलेंगेजो रांची से बेहतर राउरकेला को जानते-समझते हैं और कोल्हान में ऐसे लोगमिलेंगे जो रांची से बेहतर खड़गपुर व कोलकाता को जानते-समझते हैं. देवघर,गोड्डा, दुमका, साहिबगंज वाले भागलपुर, बांका व मुंगेर में वैवाहिकरिश्ते करते हैं. वे विवाह के लिए रांची या सिंहभूम की ओर रुख नहीं करते.
सिमडेगा-गुमला वाले छत्तीसगढ़ व ओड़िशा में वैवाहिक संबंध बनाते हैं, वेसंताल परगना की ओर रुख नहीं करते. कोल्हान वाले अपने पश्चिम बंगाल में भीवैवाहिक संबंध करते हैं, वे हजारीबाग-गिरिडीह की ओर रुख नहीं करते औरहजारीबाग-चतरा के लोग गया में रिश्ते करते हैं. जबकि पलामू वालेऔरंगाबाद, जहानाबाद व उत्तरप्रदेश में भी रिश्ते करते हैं. यह दीगर बातहै कि इसमें कुछ अपवाद हो सकते हैं. महज 14 साल पुरानी झारखंड की इसराजनीतिक चौहद्दी से बाहर ये रिश्ते आज भी इसलिए हो रहे हैं, क्योंकिउनकी सांस्कृतिक, भाषाई व रहन-सहन की धरातल एक जैसी है और सदियों में बनीहै और सदियों से कायम है. साथ ही उनके अंदर राष्ट्रीयता के वटवृक्ष कीजड़ें नेताओं द्वारा बोये जाने वाले क्षेत्रीयता के कैक्टस से कहीं अधिकगहरी हैं. ऊपर की पंक्तियों में मैंने जिन इलाकों की चर्चा की है, उनकीसांस्कृतिक चौहद्दी एक है, जो राजनेताओं के हजार कुठाराघातों से भीटूटती-ढहती नहीं. अगर ऐसा होता तो शायद यह भी आंदोलन ये चला देते किभागलपुर से शहीद तिलका मांझी की प्रतिमा रांची ले आयी जाये और रांची मेंलगी कपरूरी ठाकुर की प्रतिमा को वहां पहुंचा दिया जाये. दरअसल, मेरा बचपनभागलपुर में शहीद तिलका मांझी की प्रतिमा को ही देखते-निहारते गुजरा है;चाहे पढ़ने के लिए स्कूल जाऊं या दोस्तों के साथ घूमने-खेलने जाऊं या फिरमां के कहने पर घर के लिए सामान लाने बाजार जाऊं. तीर-धनुष ताने उस वीरकी विशाल प्रतिमा दिल-दिमाग को राष्ट्रीयता से बार-बार आवेशित कर देतीहै.
इन संदर्भो का उल्लेख मैं यहां इसलिए कर रहा हूं ताकि यह स्पष्ट हो किक्या झारखंड की राजनीति में चर्चा का केंद्र बिंदु कभी वास्तविक मुद्देबनेंगे या सिर्फ सतही व भावनात्मक मुद्दों पर ही लगातार चर्चा होतीरहेगी. क्या स्थानीयता व हमारी जमीन तो हमारी ही राजनीति के रथ पर सवारहोकर झारखंड तरक्की करेगा? क्या कभी कहीं ऐसा हुआ है? क्या कभी किसीराज्य-राष्ट्र ने इन मूढ़ शर्तो-तर्को पर तरक्की की है? जब दुनिया मेंग्लोबल गांव और ग्लोबल इकोनॉमी के सिद्धांत पर चल रहा है (शायद बहुत केनहीं चाहते हुए भी) तो फिर यह खांचा क्यों? आज तो भारतीय मूल के लोगअमेरिका में सिनेटर-गवर्नर बन रहे हैं और बराक ओबामा की कूटनीति व रक्षानीति तय करने के लिए उनकी टीम में शामिल हो रहे हैं? क्या ओबामा बेवकूफहैं जो स्थानीयता के सिद्धांत को समझ नहीं पा रहे हैं या फिर स्थानीयताके सवाल पर झारखंड के लोगों को बेवकूफ बनाया जाता है? नि:संदेह इसमें एकही बात सही होगी, क्योंकि यह आधा भरा कोई पानी का ग्लास नहीं है कि दोनोंबातें कह कर काम चला लें कि ग्लास आधा भरा है और ग्लास आधा खाली भी है.
ध्यान रहे हमारे देश में एक मराठी व्यक्ति तमिलनाडु का सबसे पसंदीदाअभिनेता बन जाता है, जिसकी एक अपील मात्र चुनावी समीकरण बदल देती है. एककन्नड़ महिला तमिलनाडु की और मध्यप्रदेश की एक महिला राजस्थान की सबसेलोकप्रिय नेता व मुख्यमंत्री है.नि:संदेह झारखंड गठन के बाद से ही संक्रमण काल के दौर से गुजर रहा है.संक्रमण काल वह दौर होता है, जब तरह-तरह की क्रिया-प्रतिक्रिया होती है.राजनेता इस दौर में सबसे ज्यादा प्रयोगधर्मी होते हैं. वे राजनीतिक रोटीसेंकने के लिए हर हथकंडा अपनाते हैं – स्थानीयता, क्षेत्रीयता, भाषाईहथियार (या विवाद), नस्ली भेदभाव, जातीय वर्गीकरण, सांप्रदायिक विभाजन.
इस दौर में स्थितियों का आकलन कर इन चीजों का प्रयोग करते हैं. लेकिनजैसे ही यह दौर खत्म हो जाता है तो विकास, सुरक्षा, रोजगार और सामाजिकसद्भाव ही सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बनता है. बिहार इसका उदाहरण है.मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ भी इसके उदाहरण हैं. आज राजनीति कीपरिभाषा इतनी बदली गयी है कि जिस नेता के बारे में यह जुमला गढ़ा गया होकि यह शख्स पहले किसी आम आदमी से हाथ मिलने के बाद साबुन से हाथ धोता था,वह अपने संसदीय क्षेत्र में ट्रेन दुर्घटना के बाद गंदी पटरी पर ट्रेन केनीचे सिर कर यह आकलन करने की कोशिश करता है कि यह दुर्घटना क्यों और कैसेहुई. भले ही वह राजनीतिक प्रतिद्वंद्वितावश किसी विरोधी दल की राज्यसरकार पर दोषारोपण कर दे, लेकिन उसका मुख्य सरोकार है उसकी प्रो-पिपुलदिखने की चाह. पहले केंद्र और बाद में राज्य की सत्ता से बाहर होने केबाद लालू ने कभी भी मुख्यमंत्री के रूप में अपने शासनकाल को जनता केसामने प्रस्तुत नहीं किया, बल्कि रेलमंत्री के रूप में अपने योगदानों कोही बार-बार जनता को याद कराया, क्योंकि उन्हें अपने मुख्यमंत्रित्वकाल केबारे में पता था कि यह पब्लिक है सब जानती है. रेलमंत्री बनने के बाददिल्ली में एक साप्ताहिक पत्रिका के कनक्लेव में उनकी ऐसी स्वीकारोक्तिथी कि रेलमंत्री बनने के बाद मैंने खुद को व खुद की छवि को बदलना चाहा.
बहरहाल, देश की तरह युवा राज्य झारखंड भी अपने युवा नेताओं से एक विकासमॉडल व विजन की उम्मीद करता है, उनके विजन-मिशन के बारे में जानना-सुननाचाहता है. जनता कान लगाये हुए हैं, पर क्या हमारे नेता इस बात को सुन पारहे हैं? या फिर, किसी राष्ट्रीय राजनीतिक दल की बढ़ती ताकत को देख करसिर्फ यही कहेंगे कि जमीन हमारी राजनीति तुम्हारी नहीं चलेगी और फिरराजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए स्थानीयता के बंकर में छुप जायेंगे याफिर सत्ता के मद में किसी राष्ट्रीय दल का राजनेता क्षेत्रीय दलों कोचिरकुट कह कर ही केवल संबोधित करेगा! झारखंड में चुनाव करीब है, जरूरत हैराज्य के 10 अहम मुद्दों को चिह्न्ति कर उस पर राजनीतिक-वैचारिक विमर्शको आगे बढ़ाया जाये.
(लेखक प्रभात खबर समूह के साप्ताहिक प्रकाशन पंचायतनामा से जुड़े हैं.)