सुपौल : कोसी के इलाके में कार्तिक पूर्णिमा को सामा चकेवा के विसर्जन की रात मानी जाती है. पूर्णिमा की शांत स्निग्ध दुग्ध धवल रजनी के बीच सामा के ससुराल चले जाने से जहां एक तरफ महिलाओं में उदासी का माहौल देखने को मिलता है, वहीं खुशी की बात यह होती है कि सामा अपने भाई के फांड़ भर उसके दीर्घ , स्वस्थ व सुखी जीवन की प्रार्थना करती है.
लोक आस्था का त्योहार सामा- चकेवा जिले भर में भाई-बहन के महोत्सव के रूप में मनाये जाने की परंपरा रही है. इसे लेकर महिलाओं द्वारा सामा – चकेवा सहित अन्य की प्रतिमा तल्लीनता के साथ बनायी जा रही है.
इस महोत्सव को लेकर कार्तिक एकादशी तिथि से ही हरेक घरों में सामा से जुड़े लोक गीतों की प्रस्तुति महिलाओं द्वारा की जाती है.सामा चकेवा का स्थान है अनुपमधर्म व संस्कृति के इंद्रधनुषी रंग बिखेरती कोसी की सुवासित धरती अपने विविध सांस्कृतिक अनुष्ठान, लोक रंजन एवं सामाजिक महोत्सव के लिए सुविख्यात रहा है.
लोक आस्था के महोत्सव मंे कार्तिक पूर्णिमा को मनाये जाने वाले सामा – चकेवा का महोत्सव अद्वितीय व अनुपम है. गीतों की सुर सुधा में बेसुध हो बिहंसती शरद चांदनी की दुधिया रात व गीत सरिता में गुंजार करती ग्राम बालाएं कार्तिक मास के मन भावन मौसम के चारों दिशाओं को अपनी ओर खींच रहा है.
साथ ही सामा- चकेवा, खिड़लिच, वनहास, खंजन, फिल्ला, सिल्ली, वन मुर्गी, लालसर, दहियक, अधिंगर, ललमुनिया सहित अनेक किस्म के पक्षी झुंड बांध कर आकाश में उछाले भर रहे हैं. चुगला का पुतला होता है दर्शनीय भाई बहन के स्नेहिल रिश्ते सामा- चकेवा को नमन कर महिलाएं काफी खुश होती है.
महोत्सव को लेकर मिट्टी के बनाये जाने वाले सामा चकेवा सहित अनेक प्रकार के पक्षियों के पुतले यानी सतभैइयां, चुगला, खिड़लिच, वृंदावन, पियरा, पाती, कजरौटा, धूप दीप आदि बनाने में महिलाएं लीन है. पूर्णिमा से पूर्व सभी पुतले को चावल के पिठार से पुताई की जायेगी. साथ ही लाल, हरा, पीला, नीला, जामुनी, सुगापंखी आदि रंगों से पुतले का नक्काशी करने के उपरांत डलिया में प्रतिमाओं को सजा कर रखा जायेगा.
प्रतिमा के समीप पान – सुपारी, फल – फूल व धान की दूध भरी बालियां भी रखी जाती है. यहां तक कि छोटे- छोटे कीट पतंगे जो वृंदावन को सजीव बनायेंगे सभी को करीने से सजाया जाता है. मिट्टी के स्तंभ में नये सरही की मूठ की रोपाई कर वृंदावन का प्रतीकात्मक रूप तैयार किया जाता है.
वहीं डेढ़ हाथ का लंबा मिट्टी का चुगला एक शरीर के उपर दो रंग के चेहरे इसके शिकायती प्रवृति का परिचायक होता है. साथ ही जीभ लंबी, होठ बाहर लटकती हुई व एक दंत लंबा सफेद तो दूसरा काला, सिर पर पटसन की लंबी सी चुटिया और पटसन की ही कमर तक लटकी दाढ़ी व मूछ कुल मिला कर हास्यास्पद रूप प्रतीत होता है.
इन सभी पुतलों में चुगला का पुतला सबसे अधिक दर्शनीय होता है.महोत्सव का है विशिष्ट इतिहासकार्तिक पूर्णिमा को आयोजित होने वाले सामा चकेवा त्योहार का विशिष्ट इतिहास रहा है. इस महोत्सव को लेकर कई कहानियां व किस्से मशहूर है. कुछ समाजशास्त्री इसे उत्तर बिहार का कृषि कर्म से संबद्ध मानते हैं तो कुछ धर्मवादी इसे धर्म से नाता जोड़ कर इसकी समीक्षा करते है. लेकिन स्थान व काल भेद के कारण मत में विभिन्नता का होना स्वाभाविक है.
बावजूद इसके पुराणों में इस महोत्सव से संबंधित जिस प्रकार कथा सूत्र का उल्लेख हुआ है. सामा चकेवा के महोत्सव का मूलाधार माना गया है. इस महोत्सव में धार्मिक अनुष्ठान का आयोजन नहीं किया जाता है.पद्म पुराण में है सामा चकेवा का वर्णन पद्म पुराण में इस लोक त्योहार का वर्णन विस्तार पूर्वक देखने को मिलता है.
लेकिन चकेवा की बहन खिड़लिच के बारे में जिक्र नहीं किया गया है. जबकि कथा गायन के समय महिलाओं द्वारा बहन के नाम पर खिड़लिच का ही नाम लिया जा रहा है. कोसी की महिलाएं आज भी सामा चकेवा को महापर्व मान कर विधान पूर्वक संपन्न करती आ रही हैं. महोत्सव पर दो तरह की गीत की प्रस्तुति इस महोत्सव के आरंभ से लेकर समापन तक महिलाओं द्वारा दो तरीके के विभिन्न गीतों की प्रस्तुति दी जाती है.
लोक गीत रात्रि के प्रथम पहर प्रारंभ हुआ नहीं कि सामा झूमा की सुधा सुरभित कड़ियां सबों को बेसुध करने लगती हैं. साथ ही सिर पर डाला लिये कोसी इलाके के हरेक देहरी से महिलाओं का झुड निकल पड़ता है और इसके बाद किसी उपवन, तालाब तट, नदी, खलिहान व खेत में गोलाकार होकर बैठ जाता है.
सभी महिलाएं अपने अपने डाला काे बीच में रख कर धान की दूध भरी बालियां व फल – फूल का भोग लगा कर काजल पारती हैं. साथ ही सामा व खिड़लिच को काजल लगा कर स्वयं काजल लगाती हैं. पुन: चुगला के गाल पर कालिख पोतती हुई विभिन्न अपशब्द के साथ उसे कोसते हुए सामा चकेवा से संबंधित ‘ सामा चरावे गेल हम सभे भइया के बगिया हे, सामा हेराय गेल हो भैया वो ही उगिया हे, भैया तोरा परु हो भैया पैरो पखारव हे, छोड़ी देहु सामा मोरा रामा छोड़ी देहु हे’ सहित विभिन्न गीत गाती है.
सामा चकेवा के शाप मुक्ति हेतु प्रार्थना महोत्सव के मौके पर महिलाओं द्वारा पक्षियों के आगमन की खुशी, खेतों की हरियाली के उल्लास में गाये जाने वाले गीत की प्रस्तुति की जाती है. गाथा गायन के साथ ही वृंदावन की प्रतिमाओं में आग लगाते हुए ‘ वृंदावन में आग लागल केयो ना बुझावे हे…’ गीत गाते हैं.
इसके बाद चुगला के मूंछ में आग लगा कर उसका उपहास उड़ाते हुए तरह – तरह से कोसती हैं. चुगला के शिकायती प्रवृत्ति व कुटिल स्वभाव के कारण महिलाएं उसे जला जला कर दंडित करती हुई खुशी से ताली बजा कर नाचती व गाती हैं. साथ ही सामा चकेवा के शाप मुक्ति के लिए ईश्वर से कामना करती हैं.