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कचरों के बीच कुम्हला रहा बचपन जिम्मेदार विभाग लगा है खानापूरी में

उदासीनता. विभाग सक्रिय रहता, तो शायद बच्चों के हाथों में होती किताब सुपौल : अपनी सी लगती ये धरती अपना ही लगता ये गगन, आसमा की बुलंदियों के एहसास में जीता है मन. जीवन की कहानी का नूर है, वह अतुल्य जीवन, क्या कहें कितना अनमोल है वह प्यारा बचपन. बाल कवि अंशुमन दूबे की […]

उदासीनता. विभाग सक्रिय रहता, तो शायद बच्चों के हाथों में होती किताब

सुपौल : अपनी सी लगती ये धरती अपना ही लगता ये गगन, आसमा की बुलंदियों के एहसास में जीता है मन. जीवन की कहानी का नूर है, वह अतुल्य जीवन, क्या कहें कितना अनमोल है वह प्यारा बचपन. बाल कवि अंशुमन दूबे की यह पंक्ति हर किसी के बचपन की याद ताजा कर रही है. बचपन जीवन का सबसे सुंदर हिस्सा है. यही वो समय है जब हमारी अपनी एक अलग दुनिया होती है. जहां न भाग दौर है और ना किसी चीज की चिंता. अपने में मस्त रहना मुख्य उद्देश्य है. वो बारिश का झूमना, मिट्टी में खेलना, मां की लोरियों व पिता की डांट जवानी में तो ये सब पाप की तरह लगता है. क्या यही जीना है.
जब बचपन याद आता है तब एक पल के लिये दिल करता है कि काश बचपन फिर से आ जाय. ये सारी बातें बचपन को लेकर कही गयी है. लेकिन इन दिनों इन्हीं बचपन से लोग खिलवाड़ करने लगे हैं. तस्वीर में दिख रहे यह बच्चे अपने मौलिक अधिकार से दूर जहां न स्वतंत्रता है और ना कोई उमंग है. किसी के आदेश का पालन अपनी रोजी-रोटी के लिये करना इनकी नीयति बन गयी है.
हालांकि सरकार द्वारा बचपन बचाने को लेकर तमाम तरह की कवायदें की जा रही है. आंगनबाड़ी केंद्र से लेकर प्राथमिक शिक्षा तक पढ़ने के लिये बच्चों को कोई शुल्क नहीं चुकाना पड़े, इसके लिये सरकार कई योजनाएं लागू करती है. लेकिन इसकी नियति ही कहे कि इन बच्चों के पास आते-आते ये योजनाएं दम तोड़ रही है.
या तो इसमें जागरूकता की कमी है या जिम्मेदार इस जिम्मेदारी से भटक गये हैं या फिर कोई ना कोई परेशानी है. जो बचपन को दबा रहा है. गली-चौराहे, बाजार और सड़क पर गुजरते समय किसी दुकान, कारखाने, रेस्टोरेंट या ढ़ाबे में सात-आठ से लेकर 14 साल तक के बच्चे हवा भरते या पंचर बनाते, कहीं जूठे बर्तन साफ करते और कहीं खाना परोसते नजर आ ही जाते हैं. सदर बाजार के बीएसएस कॉलेज के समीप कचरे बीनते ये बच्चे उन्हीं समूहों में से हैं. जिसकी उम्र महज 08 से 14 साल की ही होगी.
इतना ही नहीं पेट की आग बुझाने के लिये हो या ठेकेदारों की बात मानने की हो. दोनों ही स्थिति में इनका बचपन घुंट रहा है. बाल मजदूरी को लेकर भी जिला प्रशासन द्वारा कभी-कभी पहल की गयी है. लेकिन बाल मजदूरी को रोकने के लिये समुचित पहल नहीं होने से आज भी इसके जद में कई बच्चे आ चुके हैं. जिसकी प्रारंभिक शिक्षा तो दूर बचपन की सारी बातें उसके लिये महज सपना बन कर रह गया है. कहीं-कहीं तो अपने स्वार्थ-सिद्धि के लिये लोग बच्चों से भीख भी मंगवाते हैं. हालांकि इस तरह के मामले बड़े शहरों में देखे जाते हैं. सूत्रों की मानें तो जिले के तमाम प्रखंडों में सैकड़ों बच्चे आज भी बाल मजदूरी से जुड़े हुए हैं. जिस पर जिम्मेदार अंकुश लगाने में विफल साबित हो रही है.
शिक्षा से रहते हैं दूर
जिले की आबादी तकरीबन 23 लाख है. विभागीय जानकारी के अनुसार जिले भर में करीब 1111 प्राथमिक विद्यालय, 623 मध्य विद्यालय, 62 संस्कृत विद्यालय व 60 मदरसा सहित कुल 1856 विद्यालय संचालित किये जा रहे हैं. ये आंकड़ें सिर्फ सरकारी विद्यालय का है. जिसमें करीब चार लाख 73 छात्र-छात्राएं नामांकित हैं. विद्यालयों में पठन-पाठन के लिये करीब आठ हजार 514 शिक्षकों की पदस्थापना की गयी है. सरकारी नियम के अनुसार प्रति 40 छात्र-छात्राओं पर एक शिक्षक की पदस्थापना की गयी है. ऐसे में अगर देखे तो नामांकन के आधार पर जिले में 11 हजार 825 शिक्षकों को पदस्थापित किया जाना चाहिए.
लेकिन वर्तमान में 55 छात्रों के पठन-पाठन का कार्य एक शिक्षक के उपर है. इतना ही नहीं यह आंकड़े तो सिर्फ सरकारी विद्यालयों का है. कमोवेश इतने ही छात्र-छात्रा प्राइवेट विद्यालयों में भी अध्ययनरत हैं. खास बात यह है कि बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा नि:शुल्क दी जा रही है. स्कूल में भोजन कपड़े और छात्रवृति के माध्यम से बच्चों को शिक्षा के अलावा भी सुविधाएं दी जा रही है. इसके बावजूद इन बच्चों का स्कूल नहीं पहुंचना कहीं न कहीं विभागीय व्यवस्था की पोल खोल रही है.
बालश्रम को रोकने के लिये भी श्रम विभाग द्वारा इस दिशा में ठोस पहल नहीं किया जाना चिंता का विषय है. जब तक इस दिशा में समुचित पहल नहीं की जायेगी, बच्चों का बचपन घुटता रहेगा. जानकारों की मानें तो श्रम विभाग इस मामले में सिर्फ कागजी खानापूरी में लगे रहते हैं. विभाग सक्रिय रहती तो शायद ऐसे बच्चों के हाथों में किताब व कलम होता.
अपराध की दुनिया में चले जाते हैं ये बच्चे
ऐसे बच्चे जिसे बचपन के किसी भी तरह के अनुभूति न हुई हो, जिसका बचपन बाल मजदूरी में बीता हो, वैसे बच्चे जानकारों के अनुसार जल्द ही नशा के आदि हो जाते हैं और तरह-तरह के नशा के सेवन से उनका शारीरिक संरचना भी बिगड़ जाती है. चूंकि पैसे की लालच इन बच्चों में शुरू से ही बनी रहती है. लिहाजा ऐसे बच्चे जुर्म की दुनिया में जल्द प्रवेश कर जाते हैं. चूंकि इन बच्चों में ना तो मां-बाप का प्यार निहित होता है और ना ही सामाजिकता. इसे भले-बुरे का ज्ञान नहीं रह पाता.
यह बस पैसे के लिये कम करते हैं और वही आगे चल कर आर्थिक संपन्नता की ओर कदम बढ़ाते हैं और इसके लिये सही-गलत कार्य करने की कोई खास बंदिश नहीं होती और पैसा कमाना ही इसका आधार होता है. लिहाजा यही बच्चे आगे चल कर आपराधिक प्रवृति के हो जाते हैं. ऐसे में जिम्मेदार संस्था को चाहिये कि ऐसे बच्चों को ढूंढ कर उसे उसके मौलिक अधिकार से अवगत कराते हुए शिक्षा से जोड़ने का काम करें. ताकि ये बच्चे भी बड़े होकर देश के कर्णधार बन सके.

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