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सुरक्षा मानकों को किया जाता है नजरअंदाज
सरकारी भवन न तो भूकंपरोधी और न हैं मानकों के अनुकूल छपरा (सदर) : जिले में सरकारी स्तर पर होनेवाले निर्माण कार्य खास कर भवन कर्मियों व आम जनों के लिए ‘मौत का घर’ साबित होते रहे हैं या भविष्य में होंगे. इसके पीछे निर्माण कार्य से जुड़े अधिकतर ठेकेदारों व निरीक्षण से जुड़े तकनीकी […]
सरकारी भवन न तो भूकंपरोधी और न हैं मानकों के अनुकूल
छपरा (सदर) : जिले में सरकारी स्तर पर होनेवाले निर्माण कार्य खास कर भवन कर्मियों व आम जनों के लिए ‘मौत का घर’ साबित होते रहे हैं या भविष्य में होंगे. इसके पीछे निर्माण कार्य से जुड़े अधिकतर ठेकेदारों व निरीक्षण से जुड़े तकनीकी पदाधिकारियों की कारगुजारियां व उदासीनता जिम्मेवार हैं.
समय-समय पर निर्माण के दौरान सुरक्षा मानकों को नजरअंदाज करने के कारण या तो उसमें लगे मजदूर काल के गाल में समा जाते हैं या जख्मी होकर विकलांगता का जीवन जीने को विवश होते हैं.
हालांकि निर्माणाधीन मकानों के ध्वस्त होने के दौरान पूरा प्रशासनिक अमला दोषी ठेकेदारों एवं पदाधिकारियों पर कार्रवाई की बात करता है, परंत, कुछ ही दिन बाद फिर मानकों को ताक पर रख कर निर्माण कार्य का जिम्मा विशेषज्ञ व बुनियादी सामान वाले ठेकेदारों को कार्य देने में भी विभागीय पदाधिकारी कोताही नहीं बरतते और न प्रशासन इन कारगुजारियों पर लगाम लगाने की जरूरत नहीं समझता, जिससे आये दिन मानकों को ताक पर रखकर ‘बालू की भीत’ खड़ा करने व निर्माण के दौरान सुरक्षा मानकों को नजरअंदाज करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है.
मानकों के अनुकूल नहीं हो रहा काम: एक ओर सरकार द्वारा आम जनों को नेपाल, भारत में आये भूकंप के बाद भूकंपरोधी मकान बनाने का निर्देश दिया जा रहा है, परंतु भूकंप के चतुर्थ संवेदनशील जोन में शामिल उत्तर बिहार के दर्जन भर जिलों में सरकार ने कभी भूकंपरोधी मकान बनाने की जरूरत नहीं समझी.
वहीं, जो सरकारी भवन बनते हैं, उन्हें भी मानकों के अनुकूल करोड़ों-करोड़ खर्च के बावजूद निर्माण नहीं कराया जाता. इससे सरकारी भवन निर्माण के दौरान, निर्माण के एक-दो साल बाद या पांच साल से 15 साल बाद या तो ध्वस्त हो जाते हैं या उनमें दरारें पड़ जाती हैं, जो निश्चित रूप से कर्मियों व आम जनों के लिए जानलेवा है.
और निर्माण में होता है क्या : समाहरणालय से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक सरकारी स्तर तक टेंडर के दौरान पर्याप्त पानी देने की व्यवस्था के लिए भी एस्टिमेट बनता है. परंतु, अधिकतर ठेकेदार इसे नजरअंदाज करते हैं. इससे निर्माण की गुणवत्ता सारी सामग्री नियमानुसार देने के बावजूद 50 फीसदी निर्माण की ताकत कम हो जाती है. वहीं, अधिकतर ठेकेदार न तो गड्ढा बना कर न तो ईंट को आठ घंटे तक फूलने की लिए डालते हैं, जिससे ईंट के भीतर की हवा निकल जाये.
इसके भीगे रहने पर निर्माण कार्य जहां मजबूत होता है, वहीं ऐसा नहीं होने पर शीघ्र ही निर्माण कार्य खराब व ध्वस्त होने लगता है. वहीं, अधिकतर ठेकेदार कुछ निर्माण कार्यो में एक सप्ताह के भीतर ही नींव से निर्माण से लेकर छत ढलाई तक का काम पूरा कर देते हैं, जिससे दीवारों व छतों में पानी के अभाव में निर्माण के साथ ही दरारें पड़ जाती हैं.
परंतु, किसी-न-किसी मजबूरीवश तकनीकी पदाधिकारी व प्रशासन उस ओर ध्यान देने व कार्रवाई की जरूरत नहीं समझते. वहीं धीरे-धीरे वह मामला शांत हो जाता है तथा ठेकेदार का भुगतान भी हो जाता है.
जेपी विवि के मुख्य द्वार के निर्माण में मरे थे दो मजदूर : चार दिसंबर, 2011 को जेपीविवि के मुख्य द्वार पर सात लाख की लागत से बननेवाले गेट की ढलाई के दौरान ढांचा के ध्वस्त हो जाने से दो मजदूर जहां मर गये, वहीं तीन मजदूर जख्मी भी हुए. इसके अलावा प्रति वर्ष विभिन्न रेलखंडों तथा विभिन्न विभागों द्वारा निर्माण कराये जानेवाली सड़कों के निर्माण स्थल पर कभी ट्रेन से कट कर, तो कभी वाहनों के धक्के से आधा दर्जन मजदूर अपनी जान गंवा बैठते हैं.
शिकायत मिलने पर श्रम विभाग देता है मुआवजा : सारण के श्रम अधीक्षक दिलीप कुमार भारती के अनुसार, किसी भी मजदूर की निर्माण कार्य के दौरान घटनास्थल पर मौत होने की स्थिति में विभागीय प्रावधानों के अनुसार मजदूरों को मुआवजा दिया जाता है. हालांकि उन्होंने इस संबंध में तत्काल पूरा ब्योरा देने में असमर्थता जतायी.
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