दिघवारा : पुरातन काल से समाज में गुरु यानी शिक्षक को सम्मान का स्थान दिया गया है. शिक्षकों की तुलना ईश्वर से भी ऊपर की गयी है. मगर, शायद अब ये बातें महज अतीत के पन्नों का एक हिस्सा बन कर रह गया है. आज के हालात में शिक्षकों की गरिमा में कितनी तेजी से ह्रास हुआ है, यह भी किसी से छिपा नहीं है.
परिस्थितियां तेजी से बदली हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है. समाज को शांति का संदेश देनेवाले शिक्षकों के मन में शांति नहीं है, यह भी हकीकत है. मशरक के गंडामन अवस्थित नवसृजित प्राथमिक विद्यालय में बीते मंगलवार को मध्याह्न् भोजन योजना के जहरीले भोजन को खाने के बाद 23 मासूमों की मौत के बाद से हर चौक–चौराहे पर ‘शिक्षकों की कार्यशैली’ का ‘पोस्टमार्टम’ हो रहा है.
नियोजित हो या नियमित, सभी प्रकार के शिक्षक अभिभावकों के टारगेट पर हैं. ‘हनुमान चालीसा’ पढ़ कर स्कूल को निकलने वाले नियमित शिक्षक सकुशल सेवानिवृत्ति की प्राप्ति की मन्नतें मान रहे हैं. नियोजित शिक्षकों के हालात भी कुछ ठीक नहीं है. ऐसे शिक्षक सरकार से वेतन विसंगतियों को दूर करने व वेतन में एकरूपता लाने के लिए आंदोलन करते हैं, तो पुलिस का डंडा खाते है और ‘बागी’ कहलाते हैं.
क्या पापी पेट को भरने के लिए बढ़ती महंगाई के बीच मानदेय बढ़ाने की मांग सही में नाजायज है? ऐसे प्रश्नों के उत्तर खोजे जा रहे हैं. कमोबेश सरकारी विद्यालयों में पदस्थापित शिक्षकों की गिरती साख के पीछे कई कारण जिम्मेवार हैं.
सरकार विद्यालयों में चलन वाली कई योजनाओं की जिम्मेवारी शिक्षकों को देना, शिक्षकों में तेजी से पनपती व्यक्तिगत स्वार्थ का सोच, वेतन विसंगतियों के कारण नियोजित व नियमित शिक्षकों का दो खेमों में बंट जाना, स्कूल की कार्यप्रणाली में पंचायत प्रतिनिधियों की ज्यादा–से–ज्यादा हो रही दखलअंदाजी, कुछ शिक्षकों में हुए नैतिक ह्रास, चुनिंदा शिक्षकों में योग्यता की कमी आदि कई ऐसे महत्वपूर्ण बिंदु हैं, जिसने शिक्षकों की साख में दीमक लगाया है.
आज सरकारी विद्यालय का हर शिक्षक दोधारी तलवार की नोक पर खड़ा दिखता है, जहां कभी वह अपने विद्यालयों के पोषक क्षेत्र अधीन जनप्रतिनिधियों, पंचायत प्रतिनिधियों व अभिभावकों के अलावा नामांकित बच्चों का डर जुगाता है, तो कभी–कभी उसे विभाग के आला अधिकारियों की कलम की मार सहित टेढ़ी नजरों से बचना पड़ता है.
ज्यादा वक्त नहीं गुजरा, चंद महीने पहले की बात है, जब सरकार द्वारा 75 प्रतिशत उपस्थिति वाले बच्चों को ही पोशाक व साइकिल की राशि देने के फरमान ने शिक्षकों की कौन–सी दुर्गति करवायी, सब को मालूम है. कई शिक्षक अभिभावकों के कोपभाजन के शिकार हुए, तो कई को जान बचाने के लिए थाने में पनाह लेनी पड़ी.
आज आलम यह है कि शिक्षा का मंदिर समझे जानेवाले स्कूलों में पदस्थापित शिक्षकों का मन हमेशा आशंकित रहता है. इस अंदेशा में कि न जाने कब कौन सी आफत..? कई शिक्षकों के मुंह से यह भी सुना जा रहा है कि ‘हे भगवान अगले जनम मुझे मास्टर न कीजो’.
* किसी बात पर लोगों का टारगेट बन जाते हैं शिक्षक
* सरकारी स्कूलों में पदस्थापित शिक्षकों को हमेशा रहता है आफत बरसने का डर