सहरसा : महज दो साल की उम्र में सड़क हादसे के शिकार हुए पिता का साया उठ गया व जीवन के तीसरे वर्ष में कदम रखते बीमारी ने मासूम ललिता से मां की ममता भी छीन ली थी. इसके बाद पालनहार बने नाना-नानी को कुसहा त्रासदी ने भी सदा के लिए ललिता को अकेला कर दिया. लगातार मिल रहे जख्म की टीस पर जनजमानस के बजाय वक्त स्वयं मरहम लगाती रही.
वर्तमान में हजारों धावकों के बीच नंगे पांव दौड़ लगाती ललिता को देख बरबस लोग इसे कोसी की उड़नपड़ी कहने लगते हैं. राज्य व राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में बिहार का प्रतिनिधित्व कर चुकी सुमन भारती ललिता का जन्म मधेपुरा जिले के सिंघेश्वर के समीप डंडारी गांव में स्व लक्ष्मी यादव व मीरा देवी के घर हुआ था. बचपन में ही अनाथ हो चुकी ललिता को सुपौल जिले के त्रिवेणीगंज स्थित नानी के घर में पनाह मिली.
जख्म पर मरहम…
प्रकृति को शायद यह भी मंजूर नहीं था. वर्ष 2008 में आयी कुसहा त्रासदी में ललिता को अकेले छोड़ नाना व नानी भी चल बसे. इसके बाद ललिता की जिंदगी में शुरू हुआ संघर्ष का दौर निरंतर जारी है.
चौकीदारी कर देश के लिए सोना की ख्वाहिश : राष्ट्रीय स्तर के मैराथन प्रतियोगिता में जौहर दिखा चुकी ललिता जीवन यापन के लिए भी मोहताज है. नाना-नानी के चल बसने के बाद यत्र-तत्र बच्चों को पढ़ा कर दो वक्त की रोटी बड़ी मुश्किल से मिल पाती थी. जिला से लेकर राज्य मुख्यालय तक के अधिकारी तक गुहार लगा कर थक चुकी ललिता ने कभी जिंदगी से हार नहीं मानी.
फिलवक्त सिर छिपाने के लिए जगह व भोजन की मंशा ने ललिता को मधेपुरा स्थित अल्पावास गृह में नाइट गार्ड की नौकरी के लिए विवश कर दिया. ललिता बताती है कि धावक को जिस प्रकार की भोजन चाहिए, वह नहीं मिल पाता है. नाइट गार्ड की नौकरी में पांच हजार महीना तनख्वाह मिलता है, लेकिन बीते 13 महीने से वह भी नसीब नहीं हुआ है. ललिता कहती है कि पेट में दाना रहे या न रहे, लेकिन देश के लिए ओलिंपिक में सोना जीतने की ललक बरकरार है.
ट्रैक देख भूल जाती है दर्द : ललिता बताती है कि संघर्ष के इस दौर में पार्वती साइंस कॉलेज के प्रिसिंपल रहे डॉ केपी यादव व खेल पदाधिकारी शैलेंद्र कुमार का बहुत सहयोग रहा है. इसके बाद प्रशिक्षक शंभु कुमार प्रेरणा के स्त्रोत बने हैं. उनके मार्गदर्शन व हिम्मत से पुराने जूते एवं नंगे पांव ही सही, जीत की तरफ कदम बढ़ने लगते हैं. रोजाना सुबह-शाम छह घंटे तक पसीना बहाने वाली ललिता को जख्मों ने मजबूत बना दिया है. वह कहती है कि रनिंग ट्रैक पर पहुंचते ही सब कुछ भूल जाती हूं. मन में सिर्फ देश व समाज को सम्मान दिलाने की चाहत कामयाब बनने की प्रेरणा देती है.
पढ़ाई के प्रति कायम रहा रुझान:
बेटियों के प्रति समाज के नजरिया में बदलाव आये हैं, लेकिन ललिता को स्वयं अपना भविष्य निर्माण करना था. ईश्वर प्रदत विडंबनाओं के बीच भी धावक की जीवटता कायम रही. मैट्रिक व इंटर करने के बाद मधेपुरा के पीएस कॉलेज से बीए करने के बाद भी ललिता की शैक्षणिक भूख कम नहीं हुई. वह वर्तमान में जिले के सर्वनारायण सिंह राम कुमार सिंह कॉलेज में स्नातक प्रथम वर्ष की छात्रा है.
मैदान में कमाल कर रही ललिता : वर्ष 2013 में बीएनएमयू में आयोजित 1500 मीटर की रेस में पहली बार तीसरे स्थान पर रही ललिता का सफर निरंतर जारी है. इसके बाद कोलकाता, पटना, कटिहार सहित देश के विभिन्न हिस्सों में आयोजित मैराथन में होने वाले 12 किमी की रेस में ललिता की पहचान कामयाबी से होने लगी. वर्ष 2015 में झांसी में आयोजित राष्ट्रीय स्तर की क्रास कंट्री प्रतियोगिता में शामिल होने वाली बिहार टीम के नेतृत्व का सौभाग्य ललिता को मिला.
मैदान में ललिता.
देश के विभिन्न हिस्सों में आयोजित मैराथन में पदक जीत चुकी है ललिता
बचपन में माता-पिता व कुसहा त्रासदी में पालनहार को खो चुकी है खिलाड़ी
नाइट गार्ड की नौकरी कर रनिंग ट्रैक पर कर रही है कमाल
मदद मिले, तो मेडल की गारंटी
ललिता बताती है कि राष्ट्रीय स्तर पर बेहतर कर रहे खिलाड़ी को भी आर्थिक तंगी की वजह से मुंबई मैराथन जैसे प्रतिष्ठित प्रतियोगिता में शामिल होने का मौका नहीं मिल रहा है. वह बताती है कि दूसरे प्रदेश तक आने-जाने सहित कई ऐसे खर्च है जिन्हें वहन करने में परेशानी है. ज्ञात हो कि दूसरे प्रदेश में बेहतर कर रहे खिलाड़ी को आर्थिक मदद व सरकारी नौकरी देकर भी आत्मनिर्भर बनाने की पहल की जाती है. दूसरी तरफ कोसी की उड़नपड़ी जिला स्टेडियम में बने सरकारी जिम में शुल्क नहीं देने की वजह से प्रवेश नहीं कर पाती है.