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भूले झ्रबिसरे गीत की खोज में

भूले –बिसरे गीत की खोज मेंगिरीन्द्र नाथ झागीत का अपना महत्व है. कहते हैं कि जिन्हें गायन का ज्ञान होता है वे लाखों-करोड़ों लोगों को अपनी कला से एक पल में जोड़ लेते हैं. गीत का अपना इतिहास रहा है, अपनी परंपरा रही है. ऐसे में कई गीत खो भी जाते हैं तो कई नये […]

भूले –बिसरे गीत की खोज मेंगिरीन्द्र नाथ झागीत का अपना महत्व है. कहते हैं कि जिन्हें गायन का ज्ञान होता है वे लाखों-करोड़ों लोगों को अपनी कला से एक पल में जोड़ लेते हैं. गीत का अपना इतिहास रहा है, अपनी परंपरा रही है. ऐसे में कई गीत खो भी जाते हैं तो कई नये गीत समय के साथ हमारे कानों तक पहुंचते हैं, जिसमें नयापन होता है. लेकिन नये के साथ पुराने का भी अपना अलग महत्व है. हमारी परंपरा तो यही कहती आई है. यह सब लिखते हुए मुझे आज पारंपरिक गीतों पर बात करने का मन कर रहा है.जरा सोचिए, हजार साल पहले हमारे-आपके घर-आंगन-दुआर में गाये जानेवाले गीत की मिठास फिर से कान में गूंजने लग जाय तो कितना आनंद मिलेगा, खासकर उनलोगों को जिन्हें गीत से लगाव है और इतिहास से प्रेम है. यही वजह है कि बातों ही बातों में आज हम हजार साल पुराने गीतों की खोज में जुटे एक शख्स की बात करने जा रहे हैं.दरअसल पारपंरिक गीतों को सहेजकर रखना कोई आसान काम नहीं है. हम बैंक के लॉकर में दस्तावेज-जेवरात रखते हैं लेकिन क्या हमने कभी हजारों साल पुरानी पारंपरिक गीतों को सहेजने की कोशिश की है या फिर उसके बारे में बात करने की कोशिश की है. तो आइये आज हम विद्यापति, उमापति, साहेब रामदास, गोविंद दास आदि के पदों पर आधारित गीतों को सहेजने की कोशिश कर रहे है गिरिजानंद सिंह की बात करते हैं.इसी कड़ी में गीतों के प्रति खास लगाव रखने वाले गिरिजानंद सिंह को धुन सवार है कि मिथिला के प्राचीन गीतों को एक जगह लाया जाय, ताकि नयी पीढ़ी उन गीतों को सुन सके और उसके महत्व को जानने की कोशिश करे. इसके लिए वे पिछले कई सालों से मेहनत कर रहे हैं. प्राती, बारहमासा, चौमासा या फिर विरह हो, इन विषयों पर आधारित गीतों को सुर-ताल में बांधकर गिरिजानंद सिंह इन दिनों काम कर रहे हैं. हम सब जिस परिवेश में पले-बढ़े हैं उसमें गीत का अपना खास महत्व है. वह चाहे मांगलिक हो या फिर सामयिक या अवसर का गीत, हम सभी इन गीतों के संग पले बढ़े हैं लेकिन उन तथ्यों से अनजान हैं कि आखिर किस तरह से ये गीत हमारे जीवन में बहार बनकर आए. किस अवसर पर कौन सा गीत गाया जाता था, किस ताल में किस सुर में उसे बांधा जाता था.सबसे महत्वूर्ण बात यह है कि हजार साल पुराने इन गीतों को गिरिजानंद सिंह अपने कुछ सहयोगियों के साथ मिलकर ठीक उसी रूप में, उसी राग-ताल में बांधकर तैयार कर रहे हैं जिस तरह प्राचीन काल में ये गीत हमारे कानों तक पहुंचते होंगे. हम इसकी अभी तक केवल कल्पना कर रहे थे लेकिन गिरिजानंद सिंह इसे अब अमली-जामा पहनाने में जुट गये हैं. दरअसल इस तरह के गीतों को सुननेवाले न केवल देश में हैं बल्कि विदेशों में भी है.वहीं दूसरी ओर जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो गांव-देहात में आज से दस साल पहले तक धनरोपनी के मौसम में खेतों से एक स्वर में गीत की आवाज आती थी लेकिन वहां से भी गीत गायब है. गायब करने में हम सब माहिर हैं लेकिन गायब हो जाने के बाद जो तड़प होती है उसे हम फिलहाल महसूस नहीं कर रहे हैं. लेकिन यकीन मानिये हमारी आनेवाली पीढ़ी उन गीतों की खोज करेगी. ऐसे में मुझे फणीश्वर नाथ रेणु की किताब परती-परिकथा के एक पात्र सुरपति राय की याद आती है. सुरपति राय भी भूले-बिसरे गीतों-कहानियों को जमा करते थे. अब जब सोचता हूं तो लगता है कि सुरपति राय तो खुद रेणु ही थे. जीवन की आपाधापी में जड़ को भूलने की आदत हमें छोड़नी होगी नहीं तो हम सबके हाथ केवल पछतावा आयेगा.खैर, मिथिला क्षेत्र के हजार साल पुरानी पारंपरिक गीतों को इकट्ठा करना और फिर उसे उसी सुर-ताल में समाज को देना, यह जहां एक बड़ा काम है वहीं गिरिजानंद सिंह के लिए बड़ी चुनौती भी है. इसके लिए उन्हें काफी मेहनत करनी पड़ी है. उस वक्त के बड़े कवियों के पदों पर आधारित गीतों को ढूंढ़ना और फिर उसे लय में बांधना कोई आसान काम नहीं है. लोक की भाषा में कहें तो लोक-राग को लोगबाग तक पहुंचाने का काम करना एक अर्थ में माटी का ऋण चुकाने जैसा है. गिरिजानंद सिंह का काम आगे बढ़ता रहे, पारंपरिक गीतों का ‘लोक राग’ लोगों की कान तक पहुंचता रहे, हम तो बस यही चाहेंगे क्योंकि हमें फिर से सुनना है वही झुमरा, वही मलार-चौमासा. (लेखक किसान और ब्लॉगर हैं. हाल ही में राजकमल प्रकाशन से इनकी किताब आई है- ‘इश्क में माटी सोना’)

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