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बदलते दौर में मश्रिति खेती है महत्वपूर्ण

बदलते दौर में मिश्रित खेती है महत्वपूर्ण पूर्णिया. मौसम के बदलते मिजाज, मानसून की अनिश्चिंतता एवं ऋतुओं के आगमन समय में परिवर्तन की दृष्टि से मिश्रित खेती की अनिवार्यता से इनकार नहीं किया जा सकता है. खरीफ का कृषि कार्य पहली जून से प्रारंभ होने की परंपरा इस क्षेत्र में रही है. मानसूनी बारिश के […]

बदलते दौर में मिश्रित खेती है महत्वपूर्ण पूर्णिया. मौसम के बदलते मिजाज, मानसून की अनिश्चिंतता एवं ऋतुओं के आगमन समय में परिवर्तन की दृष्टि से मिश्रित खेती की अनिवार्यता से इनकार नहीं किया जा सकता है. खरीफ का कृषि कार्य पहली जून से प्रारंभ होने की परंपरा इस क्षेत्र में रही है. मानसूनी बारिश के बाद मूंग के पौधे खेतों में सड़ते थे एवं धान की फसल को कुदरती उर्वरक मिलता था, जिससे धान की फसल अच्छी होती थी. किंतु मानसून की अनिश्चिंतता से सब कुछ गड़-बड़ हो गया. जब क्षेत्र में मिश्रित खेती होती थी तो प्रतिकूल मौसम में भी फसल की पैदावार हो जाती थी. अतिवृष्टि या अनावृष्टि के कारण यदि बाढ़ या सुखाड़ होती थी तो भी मिश्रित खेती में भी अनाज की पैदावार अच्छी होती थी. बाढ़ के बाद भी इन वनस्पति के अवशेषों के सड़ने-गलने से मृदा की उर्वरा शक्ति बढ़ने के कारण रबी की अच्छी पैदावार होती थी और इनमें न्यूनतम रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशी दवाओं का प्रयोग होता था. अब खेती हुई महंगी आत्मा उपनिदेशक हरि मोहन मिश्र कहते हैं कि हरित क्रांति के बाद नयी-नयी फसलों के प्रभेदों के आगमन से फसल पद्धतियों में बदलाव आया है. किसानों ने देशी एवं परंपरागत किस्मों को विलुप्त कर नये प्रभेदों को अपनाया है. नये प्रभेदों में दीर्घकालीन टिकाऊपन एवं निरंतरता का अभाव रहा है. जिस कारण उत्पादन में उत्तरोत्तर ह्रास होना प्रारंभ हुआ है. श्री मिश्र का कहना है कि नये प्रभेदों में सिंचाई की अनिवार्यता, अत्यधिक उर्वरकों की खपत, रोग-व्याधियों से लड़ने की क्षमता का अभाव इत्यादि कई प्रकार के अवगुण होने के कारण किसानों के लिए खेती महंगी होती चली गयी तथा उत्पादों का मूल्य स्थिर रहने के कारण खेती लाभकारी नहीं साबित हुई. बदलते मौसम से बढ़ी है समस्या सभी नये प्रभेदों में किसी खास तापमान एवं नमी की अवस्था में ही अच्छे परिणाम देने की क्षमता है. श्री मिश्र का कहना है कि तापमान और नमी की स्थिति विगत वर्षों में सामान्य की अपेक्षा के प्रतिकूल रही है. उन्होंने कहा कि जो फसल नवंबर में लगाने पर अच्छे परिणाम देते थे, अब नहीं दे रहे हैं. क्योंकि नवंबर में तापमान एवं नमी का वह स्तर नहीं रह पाता है. फरवरी के अंत में तापमान का एकाएक बढ़ जाने के कारण फसलों के पुष्पन एवं दाने भरने की स्थिति काफी प्रभावित होती है. जनवरी और मध्य फरवरी तक ठंड की स्थिति बने रहने पर मक्के में पॉलिकेशन एवं फर्टिलाइजेशन की कमी होने के कारण दाने भरने की समस्या होती है तथा अप्रैल-मई महीने में आंधी-तूफान एवं ओलावृष्टि के कारण खड़ी फसलों की व्यापक बरबादी होती है.

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