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बस टिकट चाहिए, पार्टी कोई भी हो

जिले में विधानसभा की सात सीटें हैं. इनमें से अमौर व बायसी किशनगंज लोकसभा का हिस्सा हैं, जबकि पूर्णिया सदर, रूपौली, कसबा, धमदाहा और बनमनखी (सुरक्षित), ये पांच सीटें पूर्णिया लोकसभा क्षेत्र में आती हैं.2014 के लोकसभा चुनाव में बायसी से भाजपा के विधायक संतोष कुशवाहा ने पार्टी बदली. उन्होंने जदयू के टिकट पर चुनाव […]

जिले में विधानसभा की सात सीटें हैं. इनमें से अमौर व बायसी किशनगंज लोकसभा का हिस्सा हैं, जबकि पूर्णिया सदर, रूपौली, कसबा, धमदाहा और बनमनखी (सुरक्षित), ये पांच सीटें पूर्णिया लोकसभा क्षेत्र में आती हैं.2014 के लोकसभा चुनाव में बायसी से भाजपा के विधायक संतोष कुशवाहा ने पार्टी बदली. उन्होंने जदयू के टिकट पर चुनाव लड़ा और भाजपा प्रत्याशी उदय सिंह को हराया. जिले से दो महिला विधायक हैं लेसी सिंह और बीमा भारती. एक समाज कल्याण और दूसरी पिछड़ा-अतिपिछड़ा कल्याण मंत्री हैं.

नयी पिच पर पुराने चेहरे

अमौर

अमौर विधान सभा क्षेत्र विकास के मामले में पिछड़ा हुआ है. इस इलाके से कनकई, परमान, दास एवं बकरा ये चार नदियां गुजरती हैं. ये ही यहां के लोगों की किस्मत लिखती हैं. नये परिसीमन के बाद अमौर किशनगंज लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा हो गया है. यह अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्र है और अब तक यहां से अल्पसंख्यक उम्मीदवार ही जीतते रहे हैं. भले पर्टियां अलग-अलग रही हों. भाजपा को इस सीट पर पहली बार वर्ष 2010 में सफलता मिली. उसके उम्मीदवार सबा जफर ने 46.33 प्रतिशत वोट हासिल कर कांग्रेस प्रत्याशी जलील मस्मान को हराया. यह माना जा रहा ह कि 2015 के विधानसभा चुनाव में मुख्य मुकबला भाजपा और महागंठबंधन के ही बीच होगा.

अब तक

2010 से पूर्व तक कांग्रेस व समाजवादियों के बीच मुकाबला होता रहा. सिर्फ 1997 के उपचुनाव में सबा जफर बतौर निर्दलीय निर्वाचित हुए थे. पिछले चुनाव में यहां मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच हुआ था.

इन दिनों
राजनीतिक हलचल चरम पर है. भाजपा ने विधानसभा सम्मेलन आयोजित करने के बाद जनसंपर्क अभियान शुरू कर दिया है. रालोसपा व जदयू विधानसभा सम्मेलन कर कार्यकर्ताओं को सक्रिय कर रहे हैं.
समीकरण : यहां मुसलिम समुदाय के दो उपवर्ग कुलहैया और सुरजापुरी के बीच मुकाबला होता है, पर नतीजा तय करने में दूसरे वर्ग की भी भूमिका महत्वपूर्ण होगी.

उखाड़-पछाड़ की रणनीति तेज

कसबा
राजनीतिक रूप से संवेदनशील इस क्षेत्र में मुख्य रूप से भाजपा बनाम कांग्रेस की लड़ाई रही है. 2010 के चुनाव में कांग्रेस के अफाक आलम ने भाजपा के प्रदीप कुमार दास को पराजित किया. इससे पूर्व इस सीट पर लगातार तीन बार भारतीय जनता पार्टी का कब्जा रहा. 1990 के विधानसभा चुनाव में यहां जनता दल की जीत हुई थी. उससे पूर्व लगातार तीन बार यहां से कांग्रेस जीतती रही. एनडीए में भाजपा का कई बार के चुनाव में यहां कब्जा रहा है. वैश्य मतदाताओं की बहुलता के कारण यहां भाजपा का दावा मजबूत रहा है. उधर, वर्तमान में इस सीट पर कांग्रेस का कब्जा है. लिहाजा उसका दावा स्वाभावित है. महागंठबंधन में अगर यह सीट कांग्रेस को मिलती है, तो जाहिर कि मुकाबला एक बार फिर कांग्रेस और भाजपा के ही बीच होगा.

अब तक
विधानसभा क्षेत्र में सबसे अधिक मौका भाजपा और कांग्रेस को मिला है. हालांकि लोजपा जैसे दल भी यहां अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश करते रहे हैं.

इन दिनों
भाजपा अपनी प्रतिष्ठा को वापस लाने की कवायद में है. उसक विस सम्मेलन और जनसंपर्क अभियान जारी है. कांग्रेस के साथ ही जदयू भी यहां तैयारी में जुटी है.
समीकरण : यह सीट वैश्य बहुल है. उसके बाद यादव एवं मुसलिम मतदाताओं की संख्या है. एनडीए की नजर वैश्यों पर और महागंठबंधन की मुसलिम-यादवों पर होगी.

धमदाहा

टिकट के जुगाड़ में लगे नेता

धमदाहा विधानसभा सीट पर अभी जदयू का कब्जा है. समाज कल्याण सह आपदा मंत्री लेसी सिंह यहां से विधायक हैं. यहां अपनी पार्टी की सबसे बड़ी खेवनहार वही हैं. हाल के दिनों में हुई राजनीतिक उथल-पुथल का यहां बड़ा असर हुआ. राजद के जिलाध्यक्ष दिलीप कुमार यादव अब भाजपा में हैं. यादव वर्ष 1995 और 2000 के विधानसभा चुनाव में यहां से निर्वाचित हुए थे. लिहाजा क्षेत्र में उनकी पहचान भी है और पकड़ भी. सामाजिक समीकरण के हिसाब से भी वह अपनी दावेदारी मजबूत मान रहे हैं. वहीं लेसी सिंह को इस बात का फायदा हो सकता है कि इस बार राजद भी उनकी पार्टी के साथ है. रालोसपा भी इस सीट पर दावेदारी पेश कर सकती है. अब देखना यह होगा कि कौन पार्टी किसे अपना उम्मीदवार बनाती है.

अब तक

दो बार विधायक रहे दिलीप सिंह पार्टी बदल कर राजद से भाजपा में आ गये हैं. कांग्रेस के डॉ इरशाद अहमद खान एक बार किस्मत आजमाने की तैयारी में हैं, जबकि जदयू की मंत्री लेसी सिंह का यहां से चुनाव लड़ना तय माना जा रहा है. से अलग जदयू को राजद का सहारा है. इसलिए चुनावी महाभारत तय है

इन दिनों

सभी राजनीतिक दल संभावनाओं के आधार पर अपनी जमीन पक्की करने में जुटा है. भाजपा, जदयू एवं रालोसपा का विधानसभा कार्यकर्ता सम्मेलन हो चुका है. कांग्रेस बूथ स्तर पर कार्यकर्ताओं को जोड़ने में जुटी है.

इसके अलावा भाजपा जन संपर्क अभियान में तो जदयू घर-घर दस्तक कार्यक्रम में व्यस्त है.इसके अलावा क्षेत्र में दर्जनों ऐसे नेताजी पसीना बहा रहे हैं जो टिकट के दावेदार हैं हालांकि उनका दल अभी तय नहीं है.

समीकरण : मुसलमान व यादव मतदाताओं की संख्या ज्यादा है. ब्राह्मण, कोइरी व कुर्मी की संख्या उनके बाद है. सभी दलों का अपने आधार वोट पर जोर है.

पूर्णिया सदर
लंबी पारी के पक्षधर रहे यहां के वोटर

सदर विधानसभा क्षेत्र राजनीतिक मिजाज के लिहाज से कुछ अलग है. यहां के मतदाता हमेशा लंबी पारी के पक्षधर रहे हैं. यहां 1980 से लेकर 1995 तक सीपीएम के अजीत सरकार का राजनीतिक प्रभाव रहा. जून 1998 को सरकार की पूर्णिया में हत्या हो गयी. तब इस कांड की चर्चा पूरे देश में हुई थी. उनकी हत्या के बाद हुए उपचुनाव में उनकी पत्नी माधवी सरकार विजयी हुई थीं. 2000 से 2010 तक भाजपा के राज किशोर केसरी यहां से जीतते रहे, लेकिन जनवरी 2011 में उनकी भी पूर्णिया में हत्या हो गयी. उसके बाद हुए उपचुनाव में उनकी विधवा किरण केसरी भाजपा के टिकट पर चुनाव जीतीं. 2010 के आम चुनाव और एवं 2011 के उप चुनाव में, दोनों में कांग्रेस के रामचरित्र यादव दूसरे स्थान पर रहे, जबकि अजीत सरकार के पुत्र अमित कुमार तीसरे स्थान पर. पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में यहां जदयू पहले स्थान पर रहा. उसने बड़े मतों के अंतर से भाजपा को दूसरे स्थान पर रोका. लिहाजा भाजपा बनाम महागंठबंधन की लड़ाई निश्चित मानी जा रही है. भाजपा की सीटिंग विधायक होने के कारण किरण केसरी का चुनाव लड़ना तय माना जा रहा है. वहीं महागंठबंधन में किस दल के हिस्से यह सीट जायेगी, इस पर अभी पत्ता खुलना है. हालांकि कई नेता टिकट पाने की उम्मीद में चुनावी तैयारी में जुट गये हैं.

अब तक

वर्ष 2000 तक वाम दलों का गढ़ माना जाता रहा. बाद में भाजपा ने पैठ बनायी. वह अब तक बरकरार है. अन्य दलों की ओर से भी यह कोशिश होती रही.

इन दिनों

भाजपा और जदयू दोनों का विस कार्यकर्ता सम्मेलन संपन्न हो चुका है. जन मुद्दों पर वाम दल और कांग्रेस का धरना प्रदर्शन जारी है.

समीकरण : वैश्य समुदाय की बहुलता है. वहीं बांग्ला भाषा भाषी निर्णायक होते रहे हैं. यादव एवं मुसलमान मतदाताओं की भी अच्छी संख्या है.

बायसी

कोई निश्चित राजनीतिक धारा नहीं

बायसी विधानसभा क्षेत्र कोसी की उपधारा कनकई और परमान से घिरी हुई है. साल में करीब छह माह यह इलाका टापू जैसा हो जाता है. लिहाजा यहां की जिंदगी कठिन मानी जाती है. बायसी है तो पूर्णिया जिले में, लेकिन यह किशनगंज लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है. यहां राजनीति की कोई निश्चित धारा नहीं है. अब तक अधिकांश समय अल्पसंख्यक समुदाय से ही विधायक चुने जाते रहे हैं. अल्पसंख्यकों की आबादी लगभग 60 फीसदी है. पिछली बार भाजपा के संतोष कुमार कुशवाहा ने कांग्रेस के नसर अहमद को पराजित किया था. भाजपा की यह यहां पहली जीत थी. हालांकि 2014 में कुशवाहा ने भाजपा छोड़ी और जदयू के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़े. जीते भी. उनके सांसद बनने से रिक्त हुई इस विधानसभा सीट पर उपचुनाव में राजद के हाजी अब्दुस सुबहान ने कब्जा किया. उन्होंने जदयू के मो रूकनुद्दीन को हराया.

अब तक

पूर्व में कांग्रेस और समाजवादियों के बीच मुकाबला हुआ करता था. 2005 में निर्दलीय जीता. 2010 में भाजपा जीती, मगर अभी यह सीट राजद के खाते में है.

इन दिनों

भाजपा का विधानसभा कार्यकर्ता सम्मेलन संपन्न. जदयू का घर-घर दस्तक कार्यक्रम जारी. राजद की ओर से बूथ लेवल पर तैयारी चल रही है.

समीकरण : यह अल्पसंख्यक बहुत इलाका है. आम तौर पर इसी वर्ग से उम्मीदवार आमने-सामने होते हैं. नतीजा तय करने में हिंदू मत भी निर्णायक होते हैं.

बनमनखी (अजा)

बंद चीनी मिल फिर बनेगी मुद्दा

बनमनखी विधानसभा सीट 1962 से अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित है. 2000 से यहां से भाजपा जीतती आयी है. उसके पहले जनता दल और कांग्रेस का इस सीट पर कब्जा रहा. वैसे तो यह एनएच 31 के किनारे बसा हुआ है, मगर विकास के लिहाज से आज भी हाशिये पर है. यहां की इकलौता चीनी मिल सालों से बंद है. हर चुनाव में यह प्रमुख मुद्दा बनता है, मगर चुनाव के बाद नेता, पार्टी और सरकार सभी इसे भुला देते हैं. रोजगार का बड़ा साधन नहीं है. लिहाजा पलायन बड़ी समस्या है. भाजपा-जदयू के अलग होने से यहां की राजनीतिक फिजां बदली है. हालांकि जीतन राम मांझी फैक्टर को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. फिलहाल भाजपा और महागंठबंधन के बीच ही महामुकाबले के आसार हैं.फिलहाल भाजपा के कृष्ण कुमार ऋषि इस सीट का प्रतिनिधित्व करते हैं. दूसरे स्थान पर रहे धर्मलाल ऋषि अब जदयू का दामन थाम चुके हैं.

अब तक

यह क्षेत्र समाजवादी विचारधारा का गढ़ रहा है. हाल के राजनीतिक उथल-पुथल बड़ा प्रभाव हुआ है. विकास यहां का बड़ा मुद्दा है, जिस पर भरोसा जीतने की सबने कोशिश की है.

इन दिनों

भाजपा, जदयू, राजद और कांग्रेस सब अपने वोट बैंक को मजबूत करने में जुटे हुए हैं. इसके लिए जनसंपर्क अभियान भी सभी

पार्टियों ने तेज करदिया है.

समीकरण : जातीय समीकरण इस सीट पर रंग दिखाती रही है. महादलित-वैश्य संख्या अच्छी-खासी है. यादव व मुसलिम मतदाता निर्णायक हैं.

रुपौली

बाहुबल नहीं, अब बड़ा फैक्टर विकास

यह विधानासभा क्षेत्र कभी नक्सली और आपराधिक संगठनों को लेकर चर्चित रहा. विकास के मामले में यह पिछड़ा हुआ है. राजनीतिक दृष्टि से यहां के लोगों ने करीब-करीब सभी प्रमुख दलों पर भरोसा किया. भाकपा, कांग्रेस और जनता पार्टी को यहां से प्रतिनिधित्व का मौका मिला है. फिलवक्त इस सीट से जदयू की बीमा भारती विधायक हैं. यह राज्य की पिछड़ा-अति पिछड़ा कल्याण मंत्री भी हैं. भारती इससे पहले भी यहां से दो बार निर्वाचित हुई हैं. 2000 में निर्दलीय और 2005 में राजद के टिकट पर वह यहां से जीत कर विधानसभा पहुंची थीं. पिछली बार लोजपा के शंकर सिंह दूसरे स्थान पर रहे थे. लिहाजा लोजपा का यहां दावा बनता है. हालांकि अगर पप्पू यादव एनडीए का हिस्सा बनते हैं, तो इस सीट पर उनकी भी दावेदारी हो सकती है. एनडीए में यह सीट किसे मिलता है, यह देखना दिलचस्प होगा.

अब तक

इस क्षेत्र में बाहुबल एक बड़ा फैक्टर रहा है. मंत्री बीमा भारती के पति अवधेश मंडल बाहुबली हैं. लोजपा के शंकर सिंह भी पूर्व में नॉर्थ बिहार लिबरेशन आर्मी नामक संगठन के अध्यक्ष रह चुके हैं.

इन दिनों

भाजपा व जदयू का विस सम्मेलन पूरा हो चुका है. लोजपा, भाकपा व राजद ग्रास रूट पर कार्यकर्ताओं को जोड़ने में लगे हैं. वोटरों के मन को टटोलने के लिए सभी पार्टयिों के नेताओं ने आमलोगों से मिलना शुरू कर दिया है.

समीकरण : अतिपिछड़ों की संख्या अधिक है. राजपूत व यादवों की संख्या उसके बाद आती है. ऐसे में अल्पसंख्यक किस ओर जाते हैं, यह अहम होगा.

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