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Chhath Puja 2021 Kharna: क्या है खरना और छठ का वास्तविक अर्थ?

भारतीय संस्कृति उत्सवधर्मिणी एवं लोकधर्मिणी है. यहाँ के पर्व-त्योहारों के मूल में प्रकृति के साथ सहकार एक मूल-तत्त्व है. अपेक्षित है कि हम इस मूल-तत्त्व को समझें, इन पर्वों के पीछे की मूल-भावना को समझें.

कमलेश कमल, पटना. भारतीय संस्कृति उत्सवधर्मिणी एवं लोकधर्मिणी है. यहाँ के पर्व-त्योहारों के मूल में प्रकृति के साथ सहकार एक मूल-तत्त्व है. अपेक्षित है कि हम इस मूल-तत्त्व को समझें, इन पर्वों के पीछे की मूल-भावना को समझें.

होना तो चाहिए कि हम इन पर्वों से सन्नद्ध ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ एवं ‘सर्वे सन्तु निरामयाः’ जैसे आर्ष-उद्घोषों को अंगीकार करें; लेकिन हो कुछ और रहा है. कुछ छद्म-बुद्धिजीवियों द्वारा एक फैशन की तरह सनातन-संस्कृति एवं जन-जीवन से जुड़ी आस्थाओं एवं मान्यताओं का मज़ाक उड़ाया जा रहा है। आस्था का महापर्व ‘छठ’ इसका ज्वलंत उदाहरण है.

एक कप चाय मिलने में देर होने पर जिन का मूड ऑफ हो जाता है, वे लोग तीन-तीन दिन तक भूखे रहकर और नदी के ठंडे जल में सुबह-शाम देर तक खड़े रहकर पूजा-उपासना करने वालों का मज़ाक उड़ा कर अपनी चरम बौद्धिकता का परिचय देते हैं. बिना इसकी वैज्ञानिकता और दार्शनिकता को समझे, इसके बारे में टिप्पणी करते हैं.

स्मर्तव्य है कि सनातन-संस्कृति में धर्म का प्रमुख स्थान है। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि से सप्तमी तिथि की सुबह तक मनाया जाने वाला षष्ठी पर्व बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं अन्य राज्यों में बसे लाखों लोगों की आस्था का महान् पर्व है. षष्ठी की संध्या जहाँ अस्ताचल गामी सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, वहीं सप्तमी की सुबह उद्याचल गामी मार्तण्ड को अर्घ्य देकर इस पर्व का उद्यापन होता है.

षष्ठी को सूर्य की बहन भी माना गया है, जिसे मातास्वरूपा मान कर संतान-प्राप्ति हेतु असीम श्रद्धा और विश्वास के साथ यह पर्व मनाया जाता है. आगे ‘षष्ठी’ से छठी और ‘छठी’ से छठ शब्द बना और अब यह ‘छठ-पर्व’ के नाम से ही जाना जाता है.

छठ पर्व को लोक-पर्व भी कहा जाता है. इसमें लोक सामान्य श्रेणी के नर-नारी या आमजन का परिचायक है। इसका निहितार्थ यह है कि आम जनता एवं निचले शिक्षित संस्तर के लोगों की भी आस्था इसमें ख़ूब है. साथ ही, कोई मंत्रोच्चार, कोई पुरोहित वर्ग इसमें अपेक्षित नहीं होता– यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है.

लोक-गीत, लोक-धुन, लोक-आस्था एवं लोक-विश्वास के साथ मनाया जाने वाला यह पर्व बड़ा विशिष्ट है. दूर-दराज में बसे लोग भी घर आने का हर संभव प्रयास करते हैं और जो नहीं जा पाते वे भी किसी विधि इसका प्रसाद प्राप्त हो जाए इसके लिए प्रयास करते हैं.

ध्यान से देखें, तो रामायण काल से लेकर अब तक की अनेक परंपराओं का सुंदर समंजन इसमें मिलता है. लंका विजय के बाद अयोध्या लौटने पर श्रीराम के द्वारा सरयू में ‘छठ-पर्व’ मनाया जाने का वर्णन मिलता है.

महाभारत काल में दुर्योधन द्वारा अपने मित्र कर्ण को अंग प्रदेश का राजा बनाया जाने के बाद सूर्य-पुत्र कर्ण द्वारा गंगा जी में सूर्य की आराधना में छठ-पर्व मनाए जाने का उल्लेख मिलता है. उल्लेख है कि अंगराज कर्ण कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी और सप्तमी को सूर्यदेव की विशेष आराधना करता था. इसके अतिरिक्त, अज्ञात-वास के समय कुंती और द्रोपदी द्वारा भी छठ पर्व का वर्णन मिलता है.

छठ पर्व के प्रतीक को देखें, तो यह प्रकृति की महत्ता को रूपायित करता है. इसमें गन्ना, केला, डाभ नींबू आदि गंगा के मैदानी इलाकों में होने वाले फलों की महत्ता एवं पवित्रता को रेखांकित किया गया है. बाँस से बने सूप का प्रयोग इसमें बहुत ही महत्त्व रखता है. ध्यान दें कि बाँस को वंशवृद्धि का प्रतीक माना गया है और भाषा-विज्ञान के अनुसार दोनों शब्दों का मूल एक ही है. वंश के वाहकों के लिए बाँस के सूप से जीवनदाता-सूर्य को जीवन के आधार जल में खड़े होकर अर्घ्य दिया जाता है.

इसके पकवानों को देखें तो अनाज से कूट-पीस कर बनाए जाने वाले ठेकुआ, खबौनी अदि प्रमुख हैं जिनमें कोई मिलावट नहीं होती, अर्थात् ये परिशुद्ध होते हैं. ध्यान दें कि इन पर पीपल के पत्तों की छाप होती है, जो इस क्षेत्र में फले-फूले बौद्ध धर्म में भी अत्यंत पवित्र माना गया है. इस तरह इसमें धार्मिक सहिष्णुता का भी सूत्र है.

चतुर्थी तिथि को मनाए जाने वाले नहाय-खाय से आरंभ यह व्रत तन की शुद्धि और मन की शुद्धि के लिए है. कामना यही रहती है कि इस शुद्धि से संतान के विचारों में शुद्धता आए और वह स्वस्थ रहे, सूर्य-सम ओजस्वी-तेजस्वी बना रहे.

नहाय-खाय के दूसरे दिन अर्थात् पञ्चमी तिथि को मनाए जाने वाले खरना व्रत के अर्थ को लेकर अलग-अलग अर्थ लिए जाते हैं, जबकि भषा-विज्ञान के आधार पर यह स्पष्ट है कि यह खरा (शुद्ध) होने की क्रिया है. जैसे ‘पढ़’ से पढ़ना है, ‘लिख’ से लिखना है, वैसे ही ‘खर’ से खरना है. खरना अर्थात् व्रत द्वारा शुद्ध होने की क्रिया. इसके इतर किसी तरीके से इसका अर्थ उद्भेदन भाषा-विज्ञान की दृष्टि से असाधु है.

जहाँ तक इसके धार्मिक पक्ष की बात है तो हम जानते हैं कि भारतीय संस्कृति में साधना का प्रारंभ श्रद्धा और विश्वास से होना माना गया है. रामचरितमानस में लिखा भी है–

“बिनु विश्वास भगति नहीं, तेहि बिनु द्रवहिं न राम।

राम कृपा बिनु सपनेहु, जीव न लह विश्राम ।।”

अस्तु, विश्वास के बिना भक्ति होती भी नहीं. इसे समझने के लिए भी शक्ति चाहिए. ऐसे में हम प्रार्थना कर सकते हैं कि छठी मईया सबको इस लोकपर्व की महत्ता को समझने का सामर्थ्य दें, उत्तम स्वास्थ्य एवं धन-धान्य से परिपूर्ण करें!

Posted by Ashish Jha

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