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गैर राजग दलों को चाहिए एक स्वामी

सुरेंद्र किशोर कुछ गैर राजग दल परेशान हैं. उनकी शिकायत है कि मोदी सरकार लालू प्रसाद और पी चिदंबरम सहित कई प्रतिपक्षी नेताओं को खामख्वाह परेशान कर रही है. एकतरफा कार्रवाइयां हो रही हैं. ऐसी ही कार्रवाइयां राजग नेताओं के खिलाफ नहीं हो रही हैं. जबकि आरोप उन पर भी हैं, पर जब केंद्र में […]

सुरेंद्र किशोर
कुछ गैर राजग दल परेशान हैं. उनकी शिकायत है कि मोदी सरकार लालू प्रसाद और पी चिदंबरम सहित कई प्रतिपक्षी नेताओं को खामख्वाह परेशान कर रही है. एकतरफा कार्रवाइयां हो रही हैं.
ऐसी ही कार्रवाइयां राजग नेताओं के खिलाफ नहीं हो रही हैं. जबकि आरोप उन पर भी हैं, पर जब केंद्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए की सरकार थी तो प्रतिपक्षी नेता डाॅ सुब्रह्मण्यम स्वामी ने ऐसी शिकायत करने की जगह लोकहित याचिकाओं का सहारा लिया. उन्होंने एक नागरिक के रूप में भी भ्रष्टाचार के किसी मामले में याचिका दायर करने की अनुमति अदालत से ले रखी थी. टूजी घोटाले से लेकर जयललिता तथा नेशनल हेराल्ड जैसे कई मामलों में अदालतों के जरिये अनेक नेताओं को कठघरे में खड़ा कर दिया.
लालू के करीबियों के खिलाफ आयकर महकमे की छापेमारियों के बाद राजद के नेताओं ने न सिर्फ एकतरफा कार्रवाइयों का आरोप लगाया, बल्कि एक प्रवक्ता ने तो भाजपा नेता सुशील मोदी के खिलाफ व्यक्तिगत आरोप को लेकर कागजात भी मीडिया को दिखाये. पर सवाल है कि उन्हें अदालत जाने से कौन रोक रहा है? क्या उनके अधकचरे सबूत उन्हें रोक रहे हैं? सरकारों द्वारा दरअसल एकतरफा कार्रवाइयों का आरोप कोई नया नहीं है.
लगभग सभी दलों के नेतागण यह बात जानते हैं. इसलिए यदि आपके पास सीबीआइ, आयकर, ईडी या फिर पुलिस नहीं है तो आप कोर्ट का सहारा ले ही सकते हैं, पर इसके लिए दो बातें होनी होंगी. एक तो आप जिस पर आरोप लगा रहे हैं, उस पर ऐसे ठोस सबूत एकत्र करने होंगे जो अदालत में टिक सकें. दूसरी बात यह भी कि अपने बीच से एक सुब्रह्मण्यम स्वामी खड़ा करना होगा. गैर राजग दलों के पास एक से एक वकील हैं.
राम जेठमलानी से लेकर कपिल सिब्बल तक. अभिषेक मनु सिंघवी से लेकर प्रशांत भूषण तक, पर कोई ‘डाॅ स्वामी’ नजर नहीं आ रहा है. एक स्वामी खड़ा कीजिए और फिर देखिए कमाल! पर, असली कमाल तो आपके पास सबूत का है. यदि आप कोई स्वामी खड़ा नहीं कर पा रहे हैं तो इससे यह नतीजा निकाला जा सकता है कि आपके पास राजग नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के कोई ठोस सबूत नहीं हैं. ठोस सबूत नहीं रहने पर अदालतें उन्हें भी दोषमुक्त कर देती हैं जिन्हें सरकार कोर्ट में खड़ा करवाती है. ऐसे कई उदाहरण हैं.
मोरारजी देसाई के प्रधान मंत्रित्वकाल में सीबीआइ ने 3 अक्तूबर, 1977 को इंदिरा गांधी को गिरफ्तार करके दिल्ली के कोर्ट में पेश कर दिया था, पर जब आरोपों के मामले में सीबीआइ कोर्ट को संतुष्ट नहीं कर सकी तो अदालत ने इंदिरा गांधी को तुरंत रिहा कर देने का आदेश दे दिया. इसी तरह राजीव गांधी के शासनकाल में कांग्रेस के कुछ लोगों ने वीपी सिंह के पुत्र अजेय सिंह का सेंट किट्स के एक बैंक में जाली खाता खोल कर उसमें अपनी तरफ से काफी पैसा जमा करवा दिया. वीपी सिंह को बदनाम करने के लिए उस खाते का खूब प्रचार किया गया, पर अजेय सिंह का कुछ नहीं बिगड़ा. जबकि सरकार कांग्रेस की थी.
खाता जाली निकला. बिहार में भी कई बार विभिन्न दलों की सरकारों ने बारी-बारी से राजनीतिक कारणों से एकतरफा कार्रवाइयां कीं, पर अपवादों को छोड़ दें तो फंसने ही वाले ही फंसे, लेकिन जिनके खिलाफ पुख्ता सबूत नहीं थे, वे साफ बच गये. चारा घोटाले की सीबीआइ जांच लोकहित याचिका के कारण ही हुई थी.
उस समय लालू प्रसाद के दल की सरकार केंद्र और बिहार में थी. निष्पक्ष कार्रवाइयों के साथ-साथ इस देश में राजनीतिक कारणों से एकतरफा कार्रवाइयां भी चलती रहेंगी और अदालतें अपना काम भी करती रहेंगी.
अदालतों की सक्रियता का लाभ यदि डाॅ स्वामी उठा सकते हैं तो कोई अन्य ‘स्वामी’ क्यों नहीं? यदि कोई नहीं उठा रहा है तो इसका लोगबाग यही मतलब लगाते हैं कि उनके पास सबूत नहीं हैं. लालू के करीबियों के यहां आयकर महकमे ने छापे मारे हैं. यह मामला अंततः कोर्ट में भी जा सकता है. कुछ ठोस मिलेगा तो कार्रवाई होगी. राजद भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी के खिलाफ आरोप लगा रहा है.
बेहतर तो यह होगा कि आरोप लगाने वाले अदालत की शरण लें. निष्पक्ष मतदाता तो यही चाहता है कि चाहे जिस पक्ष के नेता पर आरोप लगे, उसकी सही जांच होनी चाहिए. बेहतर तो यह होगा कि अदालत की निगरानी में सीबीआइ जांच करे. जाहिर है कि सत्ताधारी दल प्रतिपक्षी नेताओं के खिलाफ जांच करायेगा, पर अदालत का फैसला आने पर तो सत्ताधारी दल के नेताओं पर भी जांच करानी ही पड़ेगी.

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