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राज्य में आकार ले रहा गैर राजनीतिक आंदोलन

राज्य में छोटे-छोटे कई जन आंदोलन असर दिखा रहे हैं. ये आंदोलन किसी राजनीतिक दल के बैनर तले नहीं हो रहे, बल्कि लोग खुद इसे शुरू कर रहे हैं. यह समाज की बेहतरी और जागरूकता का संकेत है. सरकार भी इस पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दे रही है. फरकिया में सरकार ने पुल बनाने का आश्वासन […]

राज्य में छोटे-छोटे कई जन आंदोलन असर दिखा रहे हैं. ये आंदोलन किसी राजनीतिक दल के बैनर तले नहीं हो रहे, बल्कि लोग खुद इसे शुरू कर रहे हैं. यह समाज की बेहतरी और जागरूकता का संकेत है. सरकार भी इस पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दे रही है.

फरकिया में सरकार ने पुल बनाने का आश्वासन दिया, इसके बाद आंदोलन समाप्त हो गया. सिमरी बख्तियारपुर के कठडूमर में पुल बनाने को लेकर ग्रामीणों का जल सत्याग्रह चल रहा है. गोपालगंज में नारायणी नदी की त्रासदी से बचाने के लिए 17 फरवरी से शुरू हुआ जल सत्याग्रह आंदोलन भी शुक्रवार को समाप्त हुआ है. यहां अब कटाव रोकने का काम शुरू होगा. मुजफ्फरपुर में बागमती नदी पर तटबंध निर्माण का विरोध एक बार फिर शुरू हो गया है. फरकिया व गोपालगंज के लोगों को राज्य सरकार से मिले आश्वासन के बाद अन्य आंदोलनों से जुड़े लोगों की उम्मीदें बढ़ गयी हैं. इसे एक बड़े फलक पर देखा जाना चाहिए. इस बार के बिग इश्यू में हम ऐसे ही स्वत:स्फूर्त आंदोलनों की पड़ताल कर रहे हैं.

सहरसा

पुल के लिए एक अनशन खत्म तो दूसरा जल सत्याग्रह शुरू

नदी के बीच दशकों से फंसे हुए फरकिया के लोगों में जागरूकता आयी है. ये अब अपने हक के लिए आवाज उठा रहे हैं. डेंगराही में 17 दिनों के अनशन के बाद लोगों की मांग सुनी गयी. इसे बाद कठडूमर में भी पुल की मांग को लेकर लोगों ने जल सत्याग्रह शुरू कर दिया है. दरअसल, फरकिया का यह इलाका आज भी मुलभूत सुविधाओं से पूरी तरह वंचित है. यहां के वाशिंदे आज भी प्रखंड अथवा जिला मुख्यालय से नहीं जुड़ पाये हैं. 1984 से ही फरकियावासियों ने चानन पंचायत के डेंगराही में कोसी नदी पर महासेतु निर्माण के लिए सरकार से मांग की थी, लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया. जब अनशन शुरू हुआ तो जिला प्रशासन चेता और सर्वे टीम पहुंची. फिलहाल डेंगराही में अनशन तो खत्म हो गया लेकिन अब कठडूमर घाट पर जल सत्याग्रह शुरू हो गया है. यहां के लोग भी पुल निर्माण की मांग कर रहे हैं.

अनशन के समर्थन को देख प्रशासन झुका, सर्वे टीम पहुंची

बीते 19 फरवरी को सलखुआ के डेंगराही घाट पर पुल बनाने की मांग को लेकर एक व्यक्ति द्वारा आमरण अनशन की शुरुआत हुई. दिन प्रतिदिन लोग जुटते चले गये और सात दिनों के अंदर इस अनशन में 40 से अधिक लोग शामिल हो गये. आश्चर्य तो यह है कि पुल की मांग को लेकर हुई इस भूख हड़ताल में महिला अनशनकारियों की संख्या पुरुषों की तुलना में तीन गुनी रही. इस आंदोलन की सकारात्मक पहल यह रही कि मांग के समर्थन में पूरे फरकिया के लोग एकजुट हो गये. अनशन स्थल पर रोज हजारों की संख्या में भीड़ जुटती रही.

पक्ष-विपक्ष के सांसद से लेकर विधायक तक वहां अपनी हाजिरी लगाते रहे. 17वें दिन डीएम भी अनशन स्थल पर पहुंचे और लोगों को बताया कि उन्होंने सरकार को प्रस्ताव भेज दिया है. सर्वे के लिए पटना से पुल निर्माण निगम के अभियंताओं की टीम आ गयी है. सर्वे के बाद डीपीआर बनेगा. सरकार स्वीकृति देगी और तब काम शुरू होगा. डीएम के आश्वासन पर अनशन समाप्त हुआ.

कठडूमर में जल सत्याग्रह जारी

डेंगराही के अनशन के समाप्त होने के दूसरे दिन आठ मार्च को सिमरी बख्तियारपुर के कठडूमर में ग्रामीणों ने जल सत्याग्रह व धरना शुरू किया. नदी में बांस गाड़ उसके सहारे लगभग दो दर्जन लोग पानी में अनवरत खड़े हैं. इतने ही लोग वहीं नदी के बीच मचान बना धरना पर बैठे हुए हैं. इन सत्याग्रहियों का कहना है कि ये सभी मानवीय सुविधा व अधिकार से वंचित हैं.

इन्हें अपने गांव जाने के लिए कोसी नदी की दो से चार धारा तक पार करनी होती है. यदि सरकार पुल बना देती है तो इस इलाके के सैकड़ों गांव के लोग तटबंध की कैद से आजाद हो जायेंगे. वे सीधा शहर से जुड़ अपनी तकदीर लिख सकेंगे.

विकास से अछूता रहा है फरकिया का इलाका: मुगल शासक अकबर के जमाने में पूरे देश की पैमाइश करने के आदेश पर टोडरमल जब नापी करते हुए खुशी मिलाकर में पहुंचे तो नदियों से घिरे एवं दुर्गम क्षेत्र होने के कारण हो रही परेशानी को देखते हुए इसे अन्य जमीन से फर्क कर दिया था. उसी जमाने में अन्य जमीन से फर्क किये जाने के कारण यह इलाका फरकिया नाम से जाना जाने लगा. फरकिया का यह इलाका आज भी मुलभूत सुविधाओं से पूरी तरह वंचित है. यहां के वाशिंदे आज भी प्रखंड अथवा जिला मुख्यालय से नहीं जुड़ पाये हैं. 1984 से ही फरकियावासियों ने चानन पंचायत के डेंगराही में कोसी नदी पर महासेतु निर्माण के लिए सरकार से मांग की जाती रही है.

विकास प्राधिकार भी हुआ मृत

1981 में तटबंध निर्माण से हुई क्षति की भरपायी के लिए तत्कालीन जिला परिषद अध्यक्ष चंद्रकिशोर पाठक की अध्यक्षता में एक परामर्श दात्री समिति का गठन किया गया. समिति ने नदी की धारा को नियंत्रित करने के लिए पूर्वी तटबंध से पश्चिमी तटबंध को जोड़ देने का निर्णय लिया था. इस क्षेत्र के सर्वांगीण विकास के लिए 1987 में कोसी पीड़ित विकास प्राधिकरण का गठन भी किया गया था. जिसमें बाढ़ प्रभावित सहरसा, सुपौल, मधेपुरा, मधुबनी, दरभंगा, समस्तीपुर व खगड़िया के विकास के लिए एक ठोस कार्यक्रम बनाये गये थे. साथ ही इन जिलों में सरकारी नौकरी में बहाली के लिए 15 फीसदी आरक्षण देने की बात भी कही गयी थी. प्राधिकरण को कानून का रूप देने के लिए 1989 में शीतकालीन सत्र में विधेयक भी लाया गया था. परंतु सारी बातें कागज व फाइलों में ही सिमटी रह गयीं.

पानी में कैद हैं फरकिया के लोग

जब सरकार द्वारा बड़ी योजना बनायी जाती है और उससे लोग विस्थापित होते हैं या लोगों को क्षति होती है तो उसकी पूर्ति सरकार द्वारा करायी जाती है. लेकिन तटबंध निर्माण के 57 वर्ष बीतने के बाद भी फरकियावासी पानी के कैदखानों में ही बंद हैं . सबसे पहले चानन पंचायत के डेंगराही स्थित कोसी नदी की मुख्य धारा पर महासेतु का निर्माण कराया जाये. इससे तटबंध के भीतर बसे फरकियावासियों को काफी सुविधा होगी. साथ ही सहरसा मुख्यालय से खगड़िया मुख्यालय की दूरी घट कर 38 किलोमीटर रह जायेगी.

साथ ही बलवाहाट के काठो स्थित मटेश्वर धाम तक कांवरियों के जाने के लिए सुलभ पथ भी उपलब्ध हो जायेगा. बता दें कि अभी कांवरिया मुंगेर के छर्रापट्टी से जल भर कर रेलमार्ग का उपयोग कर मटेश्वरधाम पहुंचते हैं.भारत-नेपाल की सीमा पर 1963 में बने कोसी बैराज की अवधि 50 वर्ष निर्धारित थी जो पूरी हो चुकी है. 1987 में आयी बाढ़ और बारिश के कारण पूरे बिहार में 104 जगहों पर तटबंध टूटा था. बांध बांधे जाने के बाद भीतर बसे फरकिया में बाढ़ का कहर बरपाने लगा. सावन भादो में घर-आंगन, खेत-खलिहान सभी जगह कोसी की कल-कल धारा बहती रहती थी. गांव में महामारी फैल जाती थी. ऐसी नौबत आती है कि तटबंध के अंदर गांव के गांव खाली होने लगते हैं.

राजेंद्र प्रसाद ने दिया था आश्वासन

फरकिया क्षेत्र के लोग यदि बीमार पड़ जायें तो उन्हें तपती रेत पर पैदल चल कर और नदी में नाव की सवारी कर पार आना होता है. बाजार जाने के लिए भी इतनी ही मशक्कत करनी होती है. फरकिया के रामभरोस प्रसाद महतो कहते हैं कि 1954 में शुरू हुआ बांध निर्माण कार्य 1963 में पूरा हो गया था. तटबंध निर्माण के समय फरकिया के लोगों ने निर्माण कार्य का विरोध भी किया था. लेकिन 1954 में भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने एक सप्ताह तक सहरसा, समस्तीपुर, दरभंगा, मधुबनी का दौरा कर बांध से संभावित पीड़ितों से मिल उनकी समस्या के समाधान का भी भरोसा दिलाया था. उस समय क्षेत्र के प्रखर कांग्रेसी नेता रहे ललित नारायण मिश्र ने भी मानवीय सुविधा उपलब्ध कराने का आश्वासन दिया था.

गोपालगंज

रंग लाया लोगों का संघर्ष, अब कटाव रोकने का काम शुरू

नारायणी नदी (गंडक नदी) की साल दर साल त्रासदी को झेल रहे दियारे के लोगों को नदी के कोप को शांत करने के लिए 22 दिन भागीरथ तपस्या करनी पड़ी. सरकार की तरफ से राशि के आवंटन होने के बाद नारायणी नदी में पायलट चैनल का निर्माण, अहिरौलीदान से विशुनपुर तटबंध तक गाइड बांध तथा काला मटिहनिया में दो किमी तक बोल्डर पिचिंग के कार्य शुरू कराने के लिए जल सत्याग्रह आंदोलन की शुरुआत करनी पड़ी. जल सत्याग्रह आंदोलन 17 फरवरी से शुरू हुआ था. सत्याग्रह आंदोलन दियारा संघर्ष समिति के संयोजक अनिल मांझी, असगर अली, रोशन साह तथा राजबल्लम कुशवाहा के नेतृत्व में हुआ.

जैसे-जैसे आंदोलन बढ़ता गया, इलाके के लोगों की भीड़ भी बढ़ती गयी. सत्याग्रह आंदोलन शुरू होने के बाद अनुमंडल पदाधिकारी मृत्युंजय कुमार, एसडीपीओ मनोज कुमार, बाढ़ नियंत्रण विभाग के कार्यपालक अभियंता शरद कुमार ने आंदोलन को समाप्त कराने का प्रयास किया.

सत्याग्रही उनकी बातों को नहीं माना और आंदोलन जारी रहा. यहां तक कि जदयू विधायक अमरेंद्र कुमार उर्फ पप्पू पांडेय, जिला पर्षद अध्यक्ष मुकेश पांडेय, पूर्व सांसद काली प्रसाद पांडेय, एमएलसी आदित्य नारायण पांडेय, विधायक मिथिलेश तिवारी ने इनका समर्थन किया. पांच मार्च को सांसद जनक राम पहुंचे. सांसद के पहुंचने पर इलाके के लोगों ने थाली बजा कर सरकार की नींद तोड़ने का प्रयास किया.

छह मार्च से इलाके के लोगों ने सामूहिक उपवास सत्याग्रह के समर्थन में शुरू किया. नौ मार्च से सत्याग्रहियों ने आमरण अनशन की शुरुआत की. इनके अनशन के साथ हजारों की संख्या में महिलाएं और पुरुष उपवास पर बैठ गये. राशि आवंटन के बाद काम शुरू कराने में बाढ़ नियंत्रण विभाग को 22 दिन लग गये. अंत में डीएम राहुल कुमार बाढ़ नियंत्रण विभाग के अधिकारियों के साथ पहुंच कर बोल्डर पिचिंग से बचाव कार्य को शुरुआत कराते हुए अन्य दो प्रोजेक्ट के लिए आश्वासन देकर आंदोलन को 10 मार्च की दोपहर बात समाप्त कराने में सफलता पायी.

आधी आबादी की रही प्रमुख भूमिका

कुचायकोट प्रखंड के कालामटिहनिया में गंडक दियारा संघर्ष समिति के जल समाधि सत्याग्रह आंदोलन में महिलाओं की भूमिका प्रमुख रही. सैकड़ों की संख्या में महिलाओं ने सत्याग्रहियों के साथ नदी में सत्याग्रह की शुरुआत की. इलाके के लोगों में सरकार के खिलाफ आक्रोश बढ़ता जा रहा था.

उधर, सत्याग्रहियों ने स्पष्ट किया था कि जब तक निर्माण कार्य शुरू नहीं होगा तब तक आंदोलन जारी रहेगा. सत्याग्रह के समर्थन में उपवास में मुख्य रूप से दुर्गावती देवी, ज्ञांति देवी, राधा देवी,लालमति देवी, रुमाली देवी, खैरून नेशा, कलावती देवी, गीता देवी, मंसुरिया देवी, सरली देवी, पूनम देवी, रामावती देवी के नेतृत्व में जिला पार्षद पन्ना देवी, मुखिया शायरा खातून, सरपंच मीरा देवी, सामाजिक कार्यकर्ता शैलेश पांडेय, बीडीसी प्रमीला देवी, अमीर पटेल, वार्ड सदस्य मुन्नी देवी, रामाकांत सिंह, शंभु राय, सिपाही बैठा, दिनेश शाह के अलावा महिलाएं उपवास पर रहीं, जबकि समन्वयक राजेश देहाती, रौशन साह, मिथिलेश राय, कृष्णा यादव, अवधेश सिंह, राजद नेता अरुण सिंह, अजय कुशवाहा, मुमताज अली, सचिन स्नेही, नंद किशोर, बिट्टू, नाजिर अली, दिनेश शर्मा, विजय मांझी, जगरनाथ सिंह, मुन्ना पंडित, उमेश यादव, भीम यादव, प्रदीप मांझी, रवि कुमार, राजेश, छट‍्ठू, सुनील, गुड्डू, अर्जुन, रामनारायण, अशोक मानिकपुर के पैक्स अध्यक्ष रामकिशुन यादव, जगीरीटोला के पैक्स अध्यक्ष विरेंद्र सिंह, चंद्रगुप्त सहित सैकड़ों की संख्या में दियारावासी, विस्थापित, महिलाएं व अन्य ग्रामीणों की भूमिका प्रमुख रही.

अगस्त, 16 में ही आवंटित हुई थी बांध निर्माण की राशि

जिस गाइड बांध का निर्माण, पायलट चैनल का निर्माण एवं बचाव कार्य के लिए पिछले 22 दिनों तक सत्याग्रह आंदोलन हुआ, उसके पीछे का सच जान कर आप भी हैरत में पड़ जायेंगे.

गंडक नदी ने जब वर्ष 2014 में तबाही मचायी, तो कालामटिहनिया पंचायत के आधा दर्जन गांव नदी में समा गये. स्थिति विकराल हो गयी. तब गांव दियारा संघर्ष समिति का गठन किया गया. इसके संयोजक अनिल कुमार मांझी बने. शिवजी सिंह कुशवाहा, सत्येंद्र बैठा, सचिन स्नेही, मिथिलेश राय समेत सैकड़ों की संख्या में युवकों ने आंदोलन की शुरुआत की. इसमें तत्कालीन डीएम स्व कृष्ण मोहन की भूमिका भी अहम रही. प्रशासन ने गाइड बांध बनाने के लिए विभाग से स्वीकृति ली. मामला गंगा आयोग तक पहुंचा. अगस्त, 2016 में 63.89 करोड़ की राशि आवंटित हो गयी.

आवंटन मिलने के बाद विभाग ने तकनीकी स्वीकृति भी नवंबर, 2016 में दे दिया. इसके साथ ही वर्ष 2016 में गंडक नदी के कटाव से कालामटिहनिया पंचायत के आधा दर्जन गांव नदी में समा गये. इसे देखते हुए विभाग ने 8.52 करोड़ रुपये का पायलट चैन तथा 6.64 करोड़ में कटाव रोधी कार्य बोल्डर पिचिंग की स्वीकृति दे दी.

स्वीकृति मिलने के बाद विभाग टेंडर की प्रक्रिया में उलझ गया. इधर, बचाव कार्य तत्काल शुरू कराने की मांग को लेकर 17 फरवरी से जल सत्याग्रह आंदोलन की शुरुआत हो गयी. सत्याग्रहियों को भी लगा कि दो-चार दिनों में काम शुरू हो जायेगा. विभाग में पेच फंसता चला गया और 22वें दिन आनन-फानन में कटाव रोकने का कार्य शुरू किया गया.

विधानसभा और लोकसभा तक पहुंचा आंदोलन का मामला

नारायणी नदी में जल सत्याग्रह कर रहे दियारे के लोगों की मांग मंगलवार को विधायक मिथिलेश तिवारी ने विधानसभा में उठाया. उन्होंने तत्काल पहल करने की मांग की. उसके बाद गुरुवार को इस मामले को सांसद जनक राम ने लोकसभा के शून्य काल में उठाते हुए पहल करने की मांग की. लोकसभा तक पहुंचने के बाद विभाग दबाव में आया.इससे पहले सत्याग्रह आंदोलन शुरू होने के बाद अनुमंडल पदाधिकारी मृत्युंजय कुमार, एसडीपीओ मनोज कुमार आदि ने आंदोलन को समाप्त कराने का प्रयास किया था.

मुजफ्फरपुर : बागमती पर तटबंध के विरोध में फिर सुलगी आग

बागमती नदी पर तटबंध निर्माण का विरोध एक बार फिर शुरू हो गया है. गुरुवार को गायघाट में सैकड़ों की संख्या में लोग सड़क पर उतरे. करीब पांच घंटे तक उन लोगों ने मुजफ्फरपुर-दरभंगा फोरलेन व दरभंगा-समस्तीपुर सड़क को केवटसा चौक के समीप जाम रखा. इस दौरान वहां वाहनों की लंबी कतारें लग गयीं. डीडीसी अरविंद कुमार वर्मा के मौके पर पहुंच कर आश्वासन देने के बाद मामला शांत हो गया. लेकिन, इसे अंत मान लेना थोड़ी जल्दबाजी होगी.

आंदोलनकारी बागमती परियोजना के रिव्यू की मांग कर रहे हैं. बागमती बचाओ संघर्ष समिति के संयोजक जितेंद्र यादव कहते हैं कि परियोजना साठ के दशक में बनी. तब बागमती की धारा कुछ और थी. आज इसकी धारा बदल चुकी है. ऐसे में पुरानी रिपोर्ट के आधार पर अब बांध बनवाना तर्क से पड़े हैं. आंदोलनकारी चाहते हैं कि सरकार रिव्यू कमेटी बनाये, जिसमें आंदोलनकारियों की ओर से सुझाये गये तीन विशेषज्ञों को भी शामिल किया जाये. तटबंध निर्माण को लेकर लोगों की नाराजगी का एक और कारण पुनर्वास की व्यवस्था नहीं होनी भी है.

चार दर्जन से अधिक गांवों में तटबंध के लिए किसानों से जमीन ली गयी थी. लेकिन, अभी तक महज औराई के तीन गांवों, उत्तरी बेनीपुर, दक्षिणी बेनीपुर व जीवाजोर के ही विस्थापितों का पुनर्वास हो सका है. पिछले दिनों सरकार ने जिले में विस्थापित लोगों का ब्योरा मांगा था. गंडक प्रमंडल सीतामढ़ी से मिली रिपोर्ट विशेष भू-अर्जन पदाधिकारी ने डीएम को सौंप दी.

इसमें स्वीकार किया कि वर्तमान में औराई, कटरा व गायघाट के 50 गांव के 6,565 परिवार आज भी बागमती नदी पर बने तटबंध के बीच फंसे हैं. इन्हें पुनर्वासित करने के लिए 329.66 एकड़ जमीन की मांग भी की गयी है. आंदोलनकारियों की मांग है कि रिव्यू के बाद यदि तटबंध निर्माण को जरूरी माना जाता है, तो तटबंध का निर्माण बेशक हो. लेकिन, इसके निर्माण से पूर्व जो लोग इससे विस्थापित होंगे, उनके पुनर्वास की व्यवस्था पहले की जाये.

वर्ष 2012 से ही हो रहा है विरोध

साठ के दशक में बागमती में नया तटबंध बनाने का फैसला हुआ था. वर्ष 1970 में भारत-नेपाल बॉर्डर से रुन्नीसैदपुर तक करीब 77 किलोमीटर तटबंध का निर्माण भी हुआ. हालांकि, बाद में इस पर ब्रेक लग गया. वर्ष 2006 में एक बार फिर इस परियोजना पर काम शुरू हुआ. रुन्नीसैदपुर से सोमरमार हाट तक तटबंध का निर्माण भी हुआ. मुजफ्फरपुर जिले की बात करें, तो उसी साल कटरा में भी तटबंध का निर्माण शुरू हुआ, जो काफी हद तक पूरा हो चुका है.

गायघाट में भी तटबंध बनना है, लेकिन स्थानीय लोग इसका लगातार विरोध कर रहे हैं. स्थानीय लोगों ने विरोध के लिए वर्ष 2012 में बागमती बचाओ संघर्ष समिति का गठन किया, जो लगातार सक्रिय है. विरोध के कारण अभी तक गायघाट में तटबंध का निर्माण शुरू नहीं हो सका है. बीते 28 जनवरी को कटरा में अधूरे काम को पूरा करने के लिए एजेंसी ने सामान गिराया. लेकिन, संघर्ष समिति के लोग वहां पहुंच गये व एजेंसी के टेंट को उखाड़ दिया.

‘विकास व सुरक्षा के नाम पर त्रासदी को आमंत्रण’

अनिल प्रकाश

बागमती नदी पर तटबंध निर्माण का विरोध क्यों हो रहा है? इसे समझने के लिए पहले उन जगहों की वास्तविकता जाकर देखनी चाहिए. जहां इस नदी पर तटबंध बन चुके हैं. गांव-के-गांव बरबाद हो चुके हैं. कई तो जमींदोज भी. इसमें ‘कलम के जादूगर’ कहे जाने वाल रामवृक्ष बेनीपुरी जी का गांव भी शामिल है. बागमती नदी काठमांडू के पास नेपाल से निकलती है. बिहार में इसका प्रवेश सीतामढ़ी के ढेंग के पास होता है. शिवहर, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, समस्तीपुर, खगड़िया होते हुए करीब 300 किलोमीटर की यात्रा कर यह नदी गंगा में जाकर मिल जाती है.

सत्तर के दशक में विश्व बैंक की परियोजना के तहत इस नदी पर तटबंध का निर्माण शुरू हुआ. ढेंग से इसकी शुरुआत हुई. मुजफ्फरपुर में औराई प्रखंड के गंगेया तक इसका निर्माण हो चुका है. फिलहाल करीब 100-150 गांव के लाेग तटबंध निर्माण का विरोध कर रहे हैं. ऐसा नहीं है कि यह विरोध पहली बार हुआ. जहां-जहां तटबंध बने, वहां विरोध में आवाज उठी. लेकिन, कभी बंदूक के दम पर, कभी धमकी देकर तटबंध का निर्माण कराया गया. राजनीतिक पार्टियों या एक्टिविस्ट की मदद नहीं मिलने के कारण भी उनका आंदोलन विफल रहा. बागमती अपनी धाराओं के साथ एक करोड़ टन से अधिक मिट्टी लाती है. पहले यह मिट्टी नदी के दोनों किनारों पर 12-14 किलोमीटर एरिया में फैल जाती थी. यह मिट्टी बेहद उपजाऊ थी.

यही कारण है कि पहले महिलाएं बागमती नदी की पूजा करती और बाढ़ आने की मन्नत मांगती. बागमती पर बांध बनने के बाद 12 किमी की जगह उसकी धारा के साथ आयी मिट्टी महज तीन किलोमीटर तक फैलती है. यही कारण है कि आज इस नदी के किनारे बसे मंदिर, मसजिद, स्कूल, मकान सब जमींदोज हो रहे हैं. फिलहाल गंगेया तक बांध बन चुका है. निर्माण जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब रामदयालु सिंह का मकान, खेत व उनके द्वारा बनाया गया स्कूल भी जमींदोज हो जायेगा. तटबंध निर्माण से दूसरी समस्या जल-जमाव की भी है. विकास व सुरक्षा के नाम पर त्रासदी को आमंत्रण दिया जा रहा है.

मुझे याद है दो-ढाई साल पहले पटना में एक सेमिनार का आयोजन हुआ था. उसमें आइआइटी कानपुर के भू-गर्भ विभाग के हेड प्रो राजीव सिन्हा, सातों आइआइटी के जल संसाधन विभाग के विशेषज्ञ, नेपाल की उच्चस्तरीय संस्थान इसिमोड के प्रतिनिधि, डॉ डीके मिश्रा, तेजस विमान का डिजाइन तैयार करने वाले डॉ मानस बिहारी वर्मा जैसी हस्तियां शामिल थीं. वहां तत्कालीन मंत्री विजय चौधरी ने खुद कहा था, हम बागमती नदी पर बांध क्यों बनाते हैं? 88 बार तटबंध टूट चुके हैं. फिर, क्यों पैसा बर्बाद किया जाये? बाद में उन्होंने तटबंध निर्माण का कार्य रोक भी दिया. फिर अब तटबंध बनाने की याद कहां से आयी! जब बागमती नदी पर तटबंध नहीं था, तो इसके आस-पास बसे गांवों में खुशहाली थी.

बाहर से मजदूर यहां मजदूरी करने आते थे. आज जहां तटबंध बन गये हैं, वहां से लोग पलायन करने को मजबूर हैं. सरकार को चाहिए कि एक्सपर्ट की एक टीम तैयार कर तटबंध निर्माण से हुए लाभ व नुकसान का आकलन करवाये. उसके बाद ही कोई फैसला वह ले.

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