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एक ओंकार सतनाम: सरवंश दानी श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का मानव-प्रेम

सरवंश दानी श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का मानव-प्रेम श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म माता गुजरी की कोख से 22 दिसंबर सन् 1666 को पटना साहिब में हुआ था. अब संसार में यह स्थान दूसरे तख्त हरमंदिर पटना साहिब के रूप में जाना जाता है. पहला स्थान अकाल तख्त अमृतसर को प्राप्त है. […]

सरवंश दानी श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का मानव-प्रेम

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म माता गुजरी की कोख से 22 दिसंबर सन् 1666 को पटना साहिब में हुआ था. अब संसार में यह स्थान दूसरे तख्त हरमंदिर पटना साहिब के रूप में जाना जाता है. पहला स्थान अकाल तख्त अमृतसर को प्राप्त है. अपने जन्म के बारे में अपनी आत्मकथा विचित्र नाटक (दशम ग्रंथ) में इसका जिक्र किया है.

तही प्रकाश हमारा भयो, पटना शहर विखै भव लयो.

इस समय आपके पिता श्री गुरु तेग बहादुर जी परिवार को पटना में छोड़ कर गुरमत प्रचार के लिए अासाम व ढाका गये हुए थे. परिवार मामा कृपाल चंद व दादी बेबे नानकी के साथ पटना में रहा. सन् 1670 ई. में आसाम यात्रा से वापिस आकर पिता श्री गुरु तेग बहादुर जी परिवार से मिले व बेटे को देखा. तब गुरु जी 3.5 वर्ष के हो चुकी थे. कुछ समय बिता कर गुरु तेग बहादुर जी आनंदपुर (पंजाब) आ गये और धर्म प्रचार में लग गये.

ढाई हजार वर्षों से भी अधिक प्राचीन नगर पाटलीपुत्रा(पटना की पवित्र भूमि) विश्व के पुरातन नगरों में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है, भगवान बुद्ध ने भविष्यवाणी की थी, यहां देव स्वरूप नागरिक निवास करेंगे और यह धन-धान्य से परिपूर्ण होगा. परंतु इसे तीन चीजों से बराबर भय बना रहेगा. वह है, जल प्लावन, अग्निकांड और अंतरकलह. इतिहास इस बात का साक्षी है कि यह नगर इन तीन विपदाओं से बराबर अभिसप्त रहा. इटली व रोम की तरह प्राचीन नगर कई नामों से जाना जाता था, जैसे – पाटलीपुत्रा, कुसुमपुर, कुसुमावती, मौर्य नगर, अशोक नगर, पटला, पटना, आजीमाबाद इत्यादि. पाटलीपुत्रा लगातार एक हजार साल तक देश की न केवल राजनीतिक राजधानी रही वरन संपूर्ण देश की अध्यात्मिक, साहित्य एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का मुख्य केंद्र रहने का सौभाग्य इसे रहा है.

सम्राट अशोक, चंद्रगुप्त, चाणक्य, वर्ष, उपवर्ष, पाणिनी, वरुणी, पतंजलि, वाराहमिहिर तथा आर्यभट्ट आदि राजनेताओं, विद्वानों और ज्ञानियों की यह साधना भूमि रही है. सम्राट अशोक ने इसी पाटलीपुत्र नगर से देश के विभिन्न भागों व सुदूर विदेशों में भी शांति एवं सद्भावना के संदेश वाहक भेजे थे. राजकुमार महेंद्र और राजकुमारी संघमित्रा राजप्रसाद का मोह त्याग कर यहीं से सिंहलदीप महात्मा बुद्ध का संदेश प्रचारित करने गयी थी.

कहते है कि प्राचीन काल में यह इंद्रपुरी से भी सुंदर नगर था. यहां उद्यानों और सरोवरों का जाल बिछा हुआ था. वाणिज्य व्यवसाय का केंद्र होने के साथ-साथ ही यह साहित्य, संस्कृति और संगीत का भी प्रधान केंद्र था. यहां स्थापत्य कला ऐसी विकसित थी कि मगध सम्राट के राज प्रसाद को देख कर चीनी यात्री ह्वेनसांग और फाहियान भी चकित व स्तंभित रह गये थे. उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि ऐसा विशाल और कलात्मक भवन मनुष्यकृत हो सकता है.

पहले सिख गुरु, गुरु नानक देव जी तथा नवें सिख गुरु गुरु तेग बहादुर जी के चरण स्पर्श से पटना की धरती पवित्र हुई. आज से 350 वर्ष पूर्व जब सारी मानवता असंतोष की ज्वाला में धू-धू कर जल रही थी, ऐसे कलिकाल में करुणा और ममता का मधुर संदेश :

’सांच कहो सुन लेहु सयै

जिनि प्रेम कियो तिन्ही प्रभु-पायौ’

देने दशमेश पिता साहिबे कमाल, गुरु गोविंद सिंह जी 350 वर्ष पहले अवतरित हुए. इस स्थान पर भव्य गुरुद्वारा तख्त हरिमंदिर पटना साहिब जी की विशाल और सुंदर इमारत खड़ी है, जहां पाठ-पूजा व शब्द कीर्तन का निरंतर प्रवाह चलता रहता है.

इस बार पांच जनवरी 1917 ई. को (पौष सुदी सप्तमी) को भव्य रूप से 350 वर्ष जयंती मनायी जायेगी. इसमें लाखों की संख्या में देश-विदेश से आने वाले श्रद्धालुओं के रहने व खाने की व्यवस्था, पूजा-पाठ, कीर्तन समागम, आने-जाने की व्यवस्था की जा रही है. सुरक्षा व्यवस्था, रोशनी तथा सीसीटी कैमरों की व्यवस्था भी की जा रही है. गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने बचपन के सात वर्ष पटना में व्यतीत किये. अपने नन्हें-नन्हें पैरों की अमिट छाप वे इस भूमि पर छोड़े गये, पटना में पंडित शिवदत्त, नवाब रहीम बक्श, पीर अरीफोदीन, सैयद भीखन शाह, राजा फतेहचंद मैनी व रानी ऋतंभरा देवी (मैनी), माई जमुना देवी गुरु जी के खास श्रद्धालुओं में से थे.

बालक गोविंद राय जी (बचपन का नाम) जब अपने मित्रों के साथ खेलने के लिए निकलते, तब सारे बालक आपको अपना सरदार मानते. तीर कमान चलाना, सेना बनाकर बनावटी युद्ध करना, इत्यादि खेल खेले जाते. साथी मित्रों में अापने ऐसी वीरता भर दी थी कि जब भी किसी नवाब की सवारी उधर से गुजरती तो सब बालक मिल कर उसको मुंह चिढ़ाते व अन्य बाल सुलभ खेल खेलते थे. वे निडर थे तथा किसी का भय नहीं मानते थे. जहां-जहां जन्म स्थान के निकट उन्होंने खेल रचाये तथा लीलायें की, वहां-वहा तीर्थ स्थल बन गये. तख्त श्री हरिमंदिर जी में स्थित माता गुजरी जी का कुआं, बाल लीला गुरुद्वारा (मैनीसंगत), गुरु का बाग, कंगन घाट, गायघाट, हाड़ी साहिब(दानापुर) के गुरुदारे ऐतिहासिक महत्व रखते है.

यहां बीता गुरुजी का बचपन

माता गुजरी जी का कुआं

बाल गोविंद का जीवन विविधताओं से भरा व रोचक है. गुरु साहिब के जन्मस्थान पर माता गुजरी जी का कुआं है, जिसका पानी मीठा था. पास-पड़ोस व दूर-दराज के लोग भी इससे जल लेने आते. कुएं के पास पानी लेने वाली औरतों की खासी भीड़ रहती थी. गोबिंद राय, पानी ले जाती औरतों के घड़े को गुलेल से ढेले मार कर तोड़ देते. काफी दिनों तक यह क्रम चलता रहा और पानी ले जाती औरतें बाल गोविंद की क्रीड़ा की शिकार होती रहीं.

अंतत: परेशान होकर उन्होंने माता गुजरी जी से शिकायत की, आपका लाडला इतना नटखट है कि वह गुलेल से ढेला मार कर घड़े तोड़ देता है. माता जी ने इन शिकायतों से तंग आकर उन्हें तांबे के घड़े बनवा दिये, जिन पर ढेले का कोई असर न हो. गोबिंद राय जी ने अपना पैतरा बदल दिया, उन्होंने मिट्टी की गोलियों की जगह तीर कमान संभाल लिया तथा तांबे के घड़ों काे अपने तीरों से छेदने लगे. उनकी इन हरकतों से तंग आकर माता जी से जब शिकायत की गयी, तब बाल गोविंद को पूछा गया कि वे ऐसा क्यों करते हैं.

उन्होंने कहा कि इसके घड़े में सांप था. मैंने उसको मारा है ताकि जहर का असर परिवार पर न हो, देखा गया तो उस घड़े में मरा हुआ सांप था जो कि तीर लगने से मारा गया था. माता जी ने रोज-रोज की शिकायतें सुनकर अभिशाप दे डाला कि कल से कुएं का पानी ही खारा हो जाये. माता जी के अभिशाप से पानी खारा हो गया. अब परेशान पीड़ित महिलाओं ने विनती की कि वे अपना शाप वापस ले ले. माता जी ने कहा, जाओ एक दिन यह स्थान बहुत बड़ा तीर्थ बनेगा. यहां देश-विदेश से तीर्थ यात्री आयेंगे और इस कुएं का पानी मीठा हो जायेगा. धीरे-धीरे समय बीतता गया आैर आज भी पानी मीठा है. यात्रीगण अमृत जल का चुल्ला लेते हैं तथा अमृतजल घरों को भी ले जाते है.

हरिमंदिर गली के अंतिम छोर पर काली स्थान के पास गुरुद्वारा बाल-लीला (मैनी संगत) एक भव्य भवन में बना है. राजा फतेह चंद मैनी व उनकी पत्नी रानी ऋतंभरा देवी का यह निवास स्थान था पर उनको कोई औलाद नहीं थी, आसपास के बच्चे उनके आंगन में खेलने आया करते थे. गोबिंद राय जी भी उन सब बच्चों के संग खेला करते थे. राजा मैनी व उनकी पत्नी बाल गोबिंद की तेजस्विता और उनके देदीप्यमान स्वरूप को देखकर पहले से ही मोहित थे. एक दिन राजा-रानी दोनों बरामदे में बैठे गोबिंद राय जी के स्वरूप को निहार रहे थे और मन ही मन भगवान से विनती कर रहे थे कि भगवान उन्हें भी ऐसा एक सुंदर पुत्र दें. अंतर्यामी गोबिंद राय, राजा-रानी की मनोभावना को ताड़ गये. बरामदे में बैठी रानी की गोद में धम से जाकर बैठ गये और कहने लगे ‘’मां मैं तुम्हारा पुत्र हूं. भूख लगी है, कुछ खाने को दो’’.

उनके घर में खाने को उस समय चने की घुघनी के अलावा और कुछ नहीं था. रानी ने उनको चने की घुघनी पेश कर दी, जिसे गोबिंद राय ने प्रेम से खाया आैर अपने मित्रों को भी खिलाया. इस गुरुद्वारे में आज भी संगत को चने की घुघनी का प्रसाद मिलता है. इस गुरुद्वारे में भी रहने तथा लंगर की बहुत अच्छी व्यवस्था है. श्री गुरु गोबिंद सिंह पथ से भी जाया जा सकता है.

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