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पुलिस सुधार की जरूरत बता रहीं दिल्ली-भोपाल की घटनाएं

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक नयी दिल्ली की बुधवार की घटना पर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि ‘पूर्व सैनिक के परिजनों को हिरासत में क्यों रखा गया है? दिल्ली पुलिस की कार्रवाई मोदी सरकार की अलोकतांत्रिक मानसिकता का प्रतीक है.’ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंंत्री ममता बनर्जी ने भोपाल कांड पर कहा कि ‘हमलोग कथित […]

सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
नयी दिल्ली की बुधवार की घटना पर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि ‘पूर्व सैनिक के परिजनों को हिरासत में क्यों रखा गया है? दिल्ली पुलिस की कार्रवाई मोदी सरकार की अलोकतांत्रिक मानसिकता का प्रतीक है.’ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंंत्री ममता बनर्जी ने भोपाल कांड पर कहा कि ‘हमलोग कथित मुठभेड़ की कहानी से सहमत नहीं हैं.
लोगों के मन में कई ऐसे सवाल उठ रहे हैं जिनका जवाब अब तक नहीं मिल पाया है.’ ये दोनों बयान एक बार फिर पुलिस और जेल सुधार की जरूरत बता रहे हैं. पर सुधार करेगा कौन? क्या ममता बनर्जी के राज्य में पुलिस की ज्यादतियों का रोना रोने वाली भाजपा मध्यप्रदेश जैसे भाजपा शासित राज्यों में पुलिस सुधार करेगी? क्या खुद ममता जी यही काम बंगाल में करेंगी जहां राजनीतिक व अन्य आधारों पर कार्रवाई करने या नहीं करने के गंभीर आरोप लगते रहते हैं? याद रहे कि जेल और पुलिस की स्थिति देशभर में कमोवेश एक ही तरह की है. कर्नाटका में कांग्रेस सरकार ऐसी कानूनी व्यवस्था करेगी ताकि वहां ‘भोपाल’ नहीं दुहराया जाए? यहां मिलीजुली राज्य सरकारों की बात नहीं की जा रही है.
संकेत तो यही है कि ऐसा कोई राज्य नहीं करेगा. सब सिर्फ वोट बैंक की राजनीति करेंगे और एक-दूसरे को सिर्फ नीचा दिखाने का काम करेंगे.
अब तक तो यही होता भी रहा है. पुलिस सुधार के लिए मोरारजी देसाई सरकार ने 1977 में धर्मवीर के नेतृत्व में राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया था. उस आयोग ने 1979 से 1981 तक अपनी कुल आठ रपटें सरकार को दी थी. साथ ही उसने मॉडल पुलिस एक्ट का मसविदा भी पेश किया था. रपट की मुख्य बात यही थी कि पुलिस व्यवस्था में व्यापक सुधार किया जाना चाहिए. आपातकाल में हुई पुलिस ज्यादतियों की पुनरावृत्ति रोकने के उपाय के तहत धर्मवीर आयोग का गठन किया गया था. पर उस आयोग की सिफारिशों को बाद की किसी भी सरकार ने लागू नहीं किया.
जबकि इस बीच लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दल प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से केंद्र और राज्यों में सत्ता में रहे. अंतत: देश के दो पूर्व डीजीपी ने सुप्रीम कोर्ट में लोकहित याचिका दायर की. उनकी मांग थी कि सरकारें धर्मवीर आयोग की सिफारिशें लागू करें. सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में ऐसा करने का आदेश सरकार को दे दिया. पर आज तक किसी भी सरकार ने इसे लागू नहीं किया. इस बीच कहीं भी जब पुलिस ज्यादतियां करती है तो राजनीतिक दल अपनी राजनीतिक सुविधा के अनुसार बयान दे देते हैं.
वे अपने वोट बैंक को ध्यान में रखकर तत्कालीन सरकारों को कोसते हैं. पर जब वे खुद सत्ता में होते हैं तो पुलिस सुधार की दिशा में कुछ नहीं करते. यदि धर्मवीर आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया गया होता तो पुलिसकर्मी निष्पक्ष ढंग से काम करने को मजबूर होते. अपवादों को छोड़ दें तो अभी तो देशभर की पुलिस मोटे तौर पर सत्ताधारी दल की इच्छा के अनुसार ही काम करती है. जैसा काम पुलिस भोपाल और दिल्ली में कर रही है, वैसा ही काम कर्नाटका और पश्चिम बंगाल में हो रहा है.
जेल मैनुअल भगोड़ों को मारने वालों के पक्ष में
जिन पुलिसकर्मियों ने भोपाल जेल से भाग रहे कथित आतंकियों पर गोलियां चलाईं, जेल मैनुअल की एक धारा उनके बचाव में काम आ सकती है. द प्रिजन एक्ट, 1894 की धारा-433 यह कहती है कि ‘जेल से भागे या भागने की कोशिश करने वालों पर सुरक्षा अधिकारी चेतावनी के बाद तलवार, संगीन, आग्नेयास्त्र या अन्य किसी हथियार से वार कर सकता है.’
वैसी स्थिति में कमर से ऊपर भी वार करने की छूट है. क्योंकि संगीन या तलवार से तो कमर के नीचे वार करना कठिन और अव्यावहारिक ही है. अब सवाल है कि ऐसे प्रावधान वाले जेल मैनुअल को आजादी के बाद बदला क्यों नहीं गया? यह सवाल उन सभी दलों से है जो आज भोपाल कांड पर सवाल उठा रहे हैं. क्यों वे बारी-बारी से सत्ता में रहे हैं. आजादी के बाद जेल मैनुअल में संशोधन की मांग जरूर की गयी. कुछ राज्यों ने संभवत: थोड़ा-बहुत संशोधन किये भी. पर मध्य प्रदेश सरकार की सेवा से हाल में रिटायर हुए एक बड़े जेल अधिकारी ने बताया कि वहां धारा-433 अब भी ज्यों की त्यों है.
याद रहे कि मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भोपाल कांड की न्यायिक जांच की मांग की है. सिंह वहां लगातार दस साल तक पूर्ण बहुमत के साथ मुख्यमंत्री थे. यदि धारा-433 मेंकोई परिवर्तन नहीं हुआ है तो कोई भी न्यायिक जांच आयोग भोपाल जेल के भगोड़े कैदियों को मारने वालों का भला क्या बिगाड़ लेगा?
बिहार में भी उनका कुछ नहीं बिगड़ा : 1971 के जुलाई में हजारीबाग जेल में जेल अधिकारियों के कथित निर्देश पर अपराधी कैदियों ने 15 नक्सलियों को पीट-पीट कर मार डाला.
उस घटना में तो एक जेल अधिकारी ने खुद एक नक्सली को गोली मार दी थी. यानी कुल 16 मरे थे. मई, 1976 में भागलपुर जेल से भागने के प्रयास में चर्चित प्रशांत चौधरी सहित 4 नक्सलवादी कैदी मार डाले गए थे. वे भी विचाराधीन कैदी ही थे. उन घटनाओं में किसी जेल या पुलिस अधिकारी का कुछ बिगड़ा? मुझे तो इस संबंध में अब तक कुछ पता नहीं चल सका है. संभवत: उन अधिकारियों के लिए जेल मैनुअल की धारा-433 ने ही कवच का काम किया होगा.
कितने स्वतंत्रता सेनानी जाली! : आजाद हिंद फौज के अंतिम सिपाही डैनियल काले का गत माह मुंबई में निधन हो गया. वह 95 साल के थे. पर, इस देश के पेंशनधारी स्वतंत्रता सेनानियों और उनके आश्रितों की संख्या अब भी दसियों हजार में है. 2015 में सरकार ने राज्यसभा में बताया था कि स्टेेट बैंक ने तीन हजार से अधिक ऐसे स्वतंत्रता सेनानियोें को वर्षों तक पेंशन दिया जिनका निधन पहले ही हो चुका है. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने मानवीय आधार पर महाराष्ट्र के 298 जाली स्वतंत्रता सेनानियों की पेंशन जारी रखने का आदेश दे दिया. क्योंकि अदालत ने यह महसूस किया कि पेंशन बंद होने पर उनके परिवारों में भुखमरी की नौबत आ जायेगी. पर सुप्रीम कोर्ट के सामने ऐसी नौबत किसने लायी?
जाहिर है कि शासन ने. भ्रष्ट व सड़ी गली व्यवस्था ने. जहां रिश्वत देकर कुछ भी कराया जा सकता है. स्वतंत्रता सेनानी कभी पवित्र शब्द थे. पर भ्रष्ट अफसरों और कर्मचारियों ने लोभी लोगों से मिलकर उन शब्दों को दागदार बना दिया.
खेती की उपेक्षा का परिणाम: महाराष्ट्र के मराठा ,गुजरात के पटेल और हरियाणा के जाट मुख्यत: खेती-बारी पर निर्भर समुदाय हैं. वे सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग के लिए आंदोलित हैं. चूंकि खेती अलाभकर पेशा बनती जा रही है, इसलिए उनका उद्वेलित होना स्वाभाविक है.
देश के ऐसे कुछ अन्य समुदायों के भी सड़कों पर उतरने की संभावना है. खेतिहरों का यह संकट देशभर में राजनीतिक संकट का रूप ले ले, उससे पहले ही केंद्र सरकार को चेत जाना चाहिए. फिलहाल दो उपाय नजर आ रहे हैं. कृषि आधारित उद्योगों को अधिक बढ़ावा मिले और साठ साल से अधिक उम्र के खेतिहरों के लिए सरकार पेंशन का प्रावधान करे.
और अंत में : हाल में भोपाल में जेल के भीतर और बाहर जो कुछ हुआ, वह सामान्य कानून-व्यवस्था का मामला है या फिर इस देश के खिलाफ युद्ध या जेहाद? या दोनों? पहले इन सवालों का जवाब तलाशना होगा. जवाब मिल जाने के बाद यह तय करना होगा कि ऐसी घटनाओं को लेकर हमें कैसा रुख-रवैया अपनाना चाहिए.

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