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नतीजे बता रहे, कदाचार के मोरचे पर करने होंगे और प्रयास
सुरेंद्र किशोर राजनीतिक विश्लेषक इंटर साइंस के नतीजे आ गये हैं. इस बार की परीक्षा में कदाचार को काफी हद तक रोक दिया गया था़ हालांकि पूर्ण सफलता नहीं मिली. रिजल्ट के विश्लेषण से लगता है कि अभी और अधिक प्रयास करने होंगे़ वर्षों से जमी कदाचार की काई को एकाएक साफ करना असंभव सा […]
सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक विश्लेषक
इंटर साइंस के नतीजे आ गये हैं. इस बार की परीक्षा में कदाचार को काफी हद तक रोक दिया गया था़ हालांकि पूर्ण सफलता नहीं मिली. रिजल्ट के विश्लेषण से लगता है कि अभी और अधिक प्रयास करने होंगे़ वर्षों से जमी कदाचार की काई को एकाएक साफ करना असंभव सा काम है़
फिर भी जितना हुआ, उससे लोगबाग खुश है़ शासन का प्रयास सराहनीय रहा, पर उस प्रयास में जो चौतरफा सहयोग मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल सका. कदाचारमुक्त परीक्षा के लिए अगली बार शासन का कुछ और दबाव बने तो शायद कदाचार समर्थक लोग सहयोग करने को मजबूर हो जाएं. उन्हें मजबूर किया ही जाना चाहिए. फिर भी मौजूदा नतीजों से बेहतर शिक्षण-परीक्षण का माहौल बनने की संभावना बढ़ी है.
रिजल्ट के विश्लेषण से उठे सवाल
इन नतीजों को लेकर कुछ सवाल भी हैं. सन 1996 में राज्य में पूरी तरह कदाचारमुक्त परीक्षाएं हुई थीं. तब मैट्रिक के करीब 13 प्रतिशत परीक्षार्थी ही सफल हो पाये थे़ इंटर में तब पास होने वालों का प्रतिशत लगभग 17 था़ इस बार इंटर साइंस में 67 प्रतिशत परीक्षार्थी पास हुए हैं.
कहां 17 और कहां 67 प्रतिशत ! क्या 1996 की अपेक्षा आज इंटर स्तर पर पढ़ाई-लिखाई का स्तर ऊंचा हो गया है? क्या आज के विद्यार्थी पढ़ाई के प्रति अधिक गंभीर हुए हैं या कोई अन्य बात है ? इस बार टॉपरों में वित्तरहित शिक्षण संस्थानों के ही अधिक परीक्षार्थी क्यों हैं ? क्या वित्त सहित की अपेक्षा वित्त रहित संस्थानों में बेहतर शिक्षक और अधिक सुसज्जित प्रयोगशालाएं हैं ? उत्तर पुस्तिकाओं की जांच की अच्छी व्यवस्था कब होगी ? जिन लोगों को उत्तर पुस्तिकाओं की जांच के काम में लगाया जाता है, उनमें से कितने लोग उस काम के योग्य हैं ? यदि शासन इंटर तथा मैट्रिक परीक्षाओं के 20 टॉपरों के स्कूल-कालेजों की सघन जांच कर ले तो पता चल जायेगा कि इस बार की परीक्षाएं कितनी कदाचारमुक्त हो सकी हैं.
इससे सबक लेकर अगली बार शासन को परीक्षा को पूर्ण कदाचारमुक्त बनाने में मदद मिलेगी़ शासन को यह बताना होगा कि कदाचारपक्षी लोग डाल-डाल रहेंगे तो शासन पात -पात रहेगा. हर स्तर की परीक्षाओं को पूर्णत: कदाचारमुक्त कर देने की जिम्मेदारी शासन को उठानी ही पड़ेगी, क्योंकि यह अगली पीढ़ियों के भविष्य का सवाल है़ राज्य की छवि का भी़
नेता पुत्रों को बचाने की
पुरानी परंपरा
गया में हत्या की जघन्य घटना के बाद आजादी के तत्काल बाद की एक कहानी याद आ गयी़ तत्कालीन शासन के एक चर्चित पात्र की बहुचर्चित पुस्तक में यह बात दर्ज है़ एक केंद्रीय मंत्री के पुत्र ने एक व्यक्ति की हत्या कर दी थी़ केंद्रीय मंत्री दक्षिण भारत के थे़ मंत्री पुत्र ने उत्तर भारत के एक राज्य में हत्या की थी़ केंद्रीय मंत्री अपने पुत्र की गिरफ्तारी से परेशान हो गये थे़ उन्होंने तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरु से मदद की गुहार की़
नेहरु ने मदद से इनकार कर दिया़ हत्यारे पुत्र के पिता एक अन्य असरदार केंद्रीय मंत्री के यहां गये़ संबंधित राज्य के मुख्य मंत्री की उस असरदार केंद्रीय मंत्री से घनिष्ठ दोस्ती थी़ मंत्री पुत्र को जमानत मिल गयी़ असरदार मंत्री ने मंत्री पुत्र को तुरंत विदेश भिजवा देने का प्रबंध कर दिया़ उसके बाद उस केस का क्या हश्र हुआ, यह पता नहीं चल सका़
तब तक इस देश के अपराधियों का राजनीतिकरण नहीं हुआ था़ हां,राजनीति के अपराधीकरण की प्रक्रिया जरुर शुरु हो चुकी थी़ उस हत्याकांड में मंत्री पुत्र को साफ बचा लेने की घटना से यह साफ हो गया कि आजाद भारत के सत्ताधारी लोग और उनके परिजन आगे क्या-क्या करेंगे़
समय बीतने के साथ अब तो इस देश और प्रदेश की राजनीति पूरी तरह बदल चुकी है़ ऐसे अपराधी कैसे बच जाते हैं, इसे समझने के लिए किसी रॉकेट साइंस के अध्ययन की जरूरत नहीं है़ राजनीति में पैर जमाये कुछ ही अपराधियों को सजा हो पाती है़ देश के अनेक बाहुबली और माफिया नेतागण आये दिन जघन्य अपराध कर रहे हैं या करवा रहे हैं. कुछ दुर्दांत लोग तो दशकों से इस धंधे में हैं. पर उनका बाल बांका नहीं हो रहा है. उच्चस्तरीय संरक्षण जो है! कुछ मामलों में कानून कमजोर और पुराना पड़ रहा है तो कुछ अन्य मामलों में गवाहों को खरीद लिया जाता है. कई मामलों में अभियोजन पक्ष बिक जा रहा है.
इस पृष्ठभूमि में गया का चर्चित आदित्य सचदेव हत्याकांड अपनी तार्किक पणिति तक पहुंच पाएगा या नहीं ? अनेक लोग यह सवाल उठा रहे हैं.
वोहरा समिति की रपट धूल के हवाले
सन 1993 में ही वोहरा समिति ने अपनी रपट केंद्र सरकार को सौंप दी थी. पर, उस रपट की सिफारिशों पर किसी सरकार ने काम नहीं किया. वोहरा समिति ने कहा था कि देश में नेता, अफसर, माफिया, तस्कर और आर्थिक क्षेत्र में सक्रिय दलालों का गंठजोड़ बन चुका है. इसे तोड़ना देशहित में जरूरी है़ अब तो और भी जरूरी है़, क्योंकि राष्ट्रद्रोही तत्वों के भी इस गंठजोड़ से जुड़ जाने की खबरें मिलने लगी हैं, क्या मोदी सरकार इस दिशा में काम करेगी? गया जैसी घटनाओं को रोकने के लिए भी यह काम जरूरी है़
कहां नेहरू और कहां उनके
वंशज !
प्रथम प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू कहा करते थे कि यदि मैं प्रधानमंत्री नहीं भी रहूंगा, तो भी मेरी पुस्तकों की रायल्टी के पैसों से मेरा गुजारा चल जायेगा़ उनके वंशज के नेतृत्व वाली पार्टी ने हाल में इस बात पर रोष प्रकट किया था कि राजस्थान में स्कूली पाठ्यक्रम से नेहरू का नाम हटा दिया गया़
शुक्र है कि बाद में राजस्थान सरकार को सुबुद्धि आयी और उसने उसे फिर से शामिल कर लेने का वचन दिया़ पर बड़ी संख्या में किसी नेता के नाम पर सिर्फ स्मारक बना देेने या स्कूली पाठ्यक्रम में नाम शामिल कर देने से ही लोग उन्हें याद नहीं करते़ जिन इतिहास पुरुषों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, वे तो यूं ही किवदंती बन जाते हैं. पिछले लोक सभा चुनाव तक देश में नेहरू- इंदिरा परिवार के सदस्यों के नाम से करीब सवा चार सौ स्मारक थे. इसके बावजूद उनके नाम का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश में लगी कांग्रेस को गत चुनाव में मात्र 44 सीटें ही मिलीं. कोई दल या नेता अपने पूर्व के बड़े नेताओं या पूर्वजों के नाम का लाभ तभी उठा पाते हैं, जब वे उन महापुरुषों के आचरण व जीवन शैली का एक हद तक अनुसरण भी करे.
अन्य अनेक गुणों के साथ-साथ नेहरू इतने सुपठित व्यक्ति थे कि उनकी लिखी किताबों की रायल्टी से उनका गुजारा चल सकता था. पर,उस परिवार में अब वैसे कौन लोग हैं ? दूसरी ओर आज के कई शीर्ष कांग्रेसी नेताओं के बारे में जो खबरें आती रहती हैं, उनसे तो यह सवाल उठता है कि क्या वे जनता के सेवक हैं या रियल इस्टेट के कारोबारी ?
और अंत में
आसाराम बापू के मामले ने शासन और राजनीति पर अंतिम रूप से यह जिम्मेदारी डाल दी है कि वे गवाहों की कड़ी सुरक्षा के लिए तत्काल कड़े और कारगर उपाय करें. इसी तरह गया के आदित्य सचदेव हत्याकांड ने राजनीति के अपराधीकरण की गंभीर समस्या को नंगे रूप में एक बार फिर उजागर कर दिया है.
आपराधिक पृष्ठभूमि के कुछ नेताओं का संबंध राष्ट्रद्रोही तत्वों से भी गाढ़ा होता जा रहा है. अब यह शासन और राजनीतिक दलों पर निर्भर है कि वे अब भी इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाते हैं या नहीं. यदि नहीं उठायेंगे तो आज की राजनीतिक सह शासन-व्यवस्था का वर्णन इतिहास में काले अक्षरों में ही होगा.
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