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चॉक एंड डस्टर की व्यथा कथा

चॉक एंड डस्टर की व्यथा कथाविनोद अनुपमपटना में दिसंबर जनवरी में स्कूलों में एडमिशन की खबर सुर्खियों में आ जाती है. बकायदा अखबारों में आवेदन मिलने की तिथि, आवेदन जमा करने की तिथि, टेस्ट की तिथि वगैरह की घोषणाएं प्रमुखता से घोषित की जाती हैं. इन खबरों का महत्व इसी से समझा जा सकता है […]

चॉक एंड डस्टर की व्यथा कथाविनोद अनुपमपटना में दिसंबर जनवरी में स्कूलों में एडमिशन की खबर सुर्खियों में आ जाती है. बकायदा अखबारों में आवेदन मिलने की तिथि, आवेदन जमा करने की तिथि, टेस्ट की तिथि वगैरह की घोषणाएं प्रमुखता से घोषित की जाती हैं. इन खबरों का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि अभी कुछ ही दिन पहले लड़कियों के एक प्रतिष्ठित मिशन स्कूल में आवेदन लेने के लिए मची भगदड़ में कई अभिभावकों तथा छोटे बच्चों को भी चोटें लगी. वास्तव में निजी स्कूल नामांकन के लिए जुटी भीड़ से उत्साहित होकर अनाप शनाप नियम एवं शर्तें गढ़ लेते हैं, जिसका खामियाजा किसी न किसी रुप में अभिभावकों और बच्चों को भुगतना होता है. इसी स्कूल में यह जानते हुए भी कि कितनी भीड़ जुट सकती है, आवेदन के लिए एक ही दिन का अवसर दिया जाता है. कमाल यह कि अभिभावकों को फार्म लेकर गेट से बाहर निकलने की अनुमति भी नहीं दी जाती. उन्हें गोंद, स्टैपलर जैसी जरूरी सामानों के साथ ही आवेदन भरने पहुंचना होता है, ताकि 500 रुपये में वे आवेदन खरीदें और उसे वहीं जमा कर ही निकलें. आखिर कोई शिक्षण संस्थान इतने अवैज्ञानिक नियम कैसे बना सकता है. लेकिन जब ऐसे ही अवैज्ञानिक नियम एवं शर्तों से स्कूल का व्यापार बढ़ रहा हो, तो क्यों नहीं व्यापार के लिए खोले गये स्कूल उसे ही लागू करें?ऐसे मौसम में जयंत गिलातर की ‘चॉक एंड डस्टर’ एक जरूरी फिल्म की तरह आती है. आमतौर पर राजनीति विमर्श वाली फिल्मों को ही वैचारिक फिल्में मानी जाती हैं. ‘चॉक एंड डस्टर’ स्कूली शिक्षा के व्यवसायीकरण को पूरी गंभीरता से उठाती है. यह सही है कि फिल्म एडमिशन जैसे संवेदनशील मुद्दों पर केंद्रित नहीं, लेकिन स्कूलों को किस तरह शिक्षाविदों और संवेदनशील शिक्षकों के बजाय मैनेजरों के हवाले किया रहा है, फिल्म इस विद्रुपता को दिखाने में संकोच नहीं करती. फिल्म सीधे सवाल अभिभावकों से करती दिखती है कि आखिर बेहतर स्कूल का निर्णय हम किस आधार पर लेते हैं ‘कामिनी’ जैसे प्रबंधक द्वारा स्कूलों में उपलब्ध पांच सितारा सुविधाओं के कारण या फिर ‘विद्या’ और ‘ज्योति’ जैसी समर्पित शिक्षकों की उपस्थिती के कारण.

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