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पूजा में मग्न, पर्यावरण की अनदेखी

पटना: दशहरा के उत्साह में लोग पर्यावरण को भूल-से गये हैं. हर तरफ कानफोड़ू संगीत बज रहा है, जिससे वायु प्रदूषण में इजाफा हो रहा है. वहीं, पंडालों में बड़ी व आकर्षक मूर्तियां सज गयी हैं, इनके निर्माण व साज-सज्जा में कई तरह के रंग, केमिकल, चमकीले वस्त्र, पॉलिथीन व धातुओं का इस्तेमाल किया गया […]

पटना: दशहरा के उत्साह में लोग पर्यावरण को भूल-से गये हैं. हर तरफ कानफोड़ू संगीत बज रहा है, जिससे वायु प्रदूषण में इजाफा हो रहा है. वहीं, पंडालों में बड़ी व आकर्षक मूर्तियां सज गयी हैं, इनके निर्माण व साज-सज्जा में कई तरह के रंग, केमिकल, चमकीले वस्त्र, पॉलिथीन व धातुओं का इस्तेमाल किया गया है, जो गंगा नदी की सेहत और बिगाड़ सकती है. यह किसी भी दृष्टि से पर्यावरण व मानव के हित में नहीं है.

लगी 15 हजार ट्रॉली मिट्टी
प्रशासन की मानें, तो राजधानी में 1300 पंडालों के निर्माण के लिए स्वीकृत दी गयी है. इनमें औसतन 12 से 14 फुट की मूर्ति स्थापित है. मां दुर्गा के साथ ही लक्ष्मी, गणोश, सरस्वती, कार्तिकेय, शेर, सांप, राक्षस, शिव-पार्वती, विष्णु, बह्ना आदि की मूर्तियां भी स्थापित हैं, जिनके निर्माण में करीब 15 हजार ट्रॉली मिट्टी लगी है.

उपज पर पड़ेगा बुरा असर
एएन कॉलेज के पर्यावरण एवं जल प्रबंधन विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ एके घोष ने बताया कि एक सेंटीमीटर मिट्टी की परत के निर्माण में करीब एक हजार साल का समय लगता है, जबकि 12 फुट ऊंची मूर्ति के निर्माण में एक से डेढ़ ट्रॉली मिट्टी की खपत होती है. यह मिट्टी पृथ्वी की ऊपरी परत से निकाली जाती है, जो सबसे ज्यादा उपजाऊ होती है. मूर्ति निर्माण से पृथ्वी की यह परत क्षतिग्रस्त हो जाती है, जिससे पेड़-पौधे के साथ खाद्य फसल की उपज पर भी बुरा असर पड़ता है.

मूर्ति में हानिकारक सामग्री
राजधानी में 72 घाट हैं, जबकि मूर्ति प्रवाहित करने के लिए प्रशासनिक रूप से एक घाट का निर्धारण किया गया है. लेकिन, श्रद्धालु इसका ध्यान नहीं रखते और किसी भी स्थान पर मूर्ति का विसजर्न कर देते हैं. इससे हर साल केवल दशहरा में 15 हजार ट्रॉली मिट्टी, करीब 300 बोरे प्लास्टर ऑफ पेरिस, घास-फूस, थर्मोकोल, कपड़े, पॉलिथीन, लकड़ी, धातु के प्रतीक हथियार, पूजा के दौरान होनेवाले हवन की सामग्री के साथ मूर्ति में लगनेवाले केमिकल नदी के पानी को दूषित करते हैं. इसका असर जलीय जीव-जंतु, पेड़-पौधे व मानव जीवन पर पड़ रहा है.

और मैली होगी गंगा
डॉ एके घोष का कहना है कि पहले मूर्तियों के निर्माण में मिट्टी और प्राकृतिक रंग का इस्तेमाल होता था. आज मिट्टी को कड़ा व स्थायी बनाने के लिए मोम का क्लेव मिलाया जाता है, जो जिप्सम का मिश्रण है. साथ ही अधिकतर जगहों पर मूर्ति के निर्माण में मिट्टी की जगह प्लास्टर ऑफ पेरिस का इस्तेमाल किया जाता है. रंग में मरकरी, कैलशियम काबरेनेट, पोटेशियम, लेड, क्रोमियम, मेलनियम का उपयोग किया जाता है. लाल रंग के पेंट को चमकीला करने के लिए मरकरी और काला करने के लिए तारकोल का उपयोग किया जाता है. मूर्ति के सपोर्ट के लिए थर्मोकोल, पॉलिथीन का उपयोग होता है. पुआल, बेलबेट पेपर, लकड़ी का बड़ी मात्र में इस्तेमाल किया जाता है. इससे पानी में केमिकल की मात्र बढ़ जाती है. पानी में ऑक्सीजन की कमी होती है. जलीय जीवन के साथ ही तटवर्ती पेड़-पौधे पर भी इसका प्रभाव पड़ता है. उनकी जड़ें कमजोर हो जाती हैं. उनमें लगनेवाला फल स्वादहीन, कसैला हो जाता है. डॉल्फिन पर भी इसका बुरा असर पड़ता है.

बीमारियों को दावत
चर्म रोग विशेषज्ञ डॉ एमके सिन्हा की मानें, तो दूषित जल के संपर्क में आने पर त्वचा में इन्फेक्शन हो जाता है. सफेद दाग के साथ जलन, कालापन होने लगता है. दूषित जल पीने से शरीर में केमिकल की मात्र बढ़ जाती है, जिसका लीवर, किडनी, हृदय व खून की लाल कणिकाओं पर बुरा असर पड़ता है. ये कई बीमारियों को दावत द े सकता है.

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