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राजनीतिक उठापटक के बीच लोक लुभावन घोषणाओं की झड़ी, 17 दिन, छह कैबिनेट, 77 फैसले

राज्य की मौजूदा जीतन राम मांझी सरकार को बिहार विधानसभा में आज (20 फरवरी) को विश्वास मत हासिल करना है. बहुमत हासिल करने के एक दिन पहले (19 फरवरी की शाम में) भी सरकार ने कैबिनेट की बैठक में कई फैसले लिये. इस महीने तीन, सात, 10, 14, 18 और 19 तारीख को कैबिनेट की […]

राज्य की मौजूदा जीतन राम मांझी सरकार को बिहार विधानसभा में आज (20 फरवरी) को विश्वास मत हासिल करना है. बहुमत हासिल करने के एक दिन पहले (19 फरवरी की शाम में) भी सरकार ने कैबिनेट की बैठक में कई फैसले लिये. इस महीने तीन, सात, 10, 14, 18 और 19 तारीख को कैबिनेट की बैठक हुई और इसमें कुल 77 फैसलों पर मुहर लगी. इन फैसलों पर अमल हुआ तो खजाने पर 25 से 30 हजार करोड़ का अतिरिक्त वित्तीय भार पड़ेगा. घोषणाओं का यह मामला जब पटना हाइकोर्ट पहुंचा तो उसने व्यवस्था दी कि जब तक मुख्यमंत्री मांझी सदन में विश्वास मत हासिल नहीं कर लेते हैं, तब तक उसके क्रियान्वयन पर रोक रहेगी. लेकिन इससे अलग सवाल नैतिकता का भी है. जब सरकार को विधानसभा में अपना बहुमत साबित करना है तो उसके पहले ताबड़तोड़ लोकलुभावन घोषणाओं का क्या मतलब है? सरकारें तो आती-जाती रहती हैं. मुख्यमंत्री बनते हैं और अतीत का हिस्सा बन जाते हैं, पर बिहार तो रहेगा. आखिर हम बिहार को किधर ले जाना चाहते हैं. यह सवाल वर्तमान पूछ रहा है और इतिहास भी पूछेगा.
अजय कुमार
बिहार ने वह भी दौर देखा है जब खजाने की हालत खराब थी और ओवर ड्राफ्ट का खतरा अक्सर मंडराया करता था. अब यह सवाल खड़ा होने लगा है कि क्या बिहार उसी दौर में पहुंचेगा जब खजाने की आमदनी अठन्नी थी और खर्च रुप्पैया से भी ज्यादा हो जाता था.
मांझी सरकार ने इस महीने मंत्रिपरिषद की छह बैठकों में 77 फैसले लिये हैं. इन फैसलों को अमल में लाये जाने पर खजाने पर भारी वित्तीय बोझ पड़ेगा. हालांकि इन फैसलों-घोषणाओं का क्रियान्वयन सरकार के विधानसभा में बहुमत हासिल करने के बाद भी हो पायेगा, इस पर संदेह है.
अर्थशास्त्र के जानकारों का कहना है कि जब राजनीति वोट केंद्रित हो जाती है, तो वह अर्थव्यवस्था की परवाह नहीं करती. ऐसी हालत राज्य में पहले भी हो चुकी है, जब तत्कालीन सरकारों ने अनेक लोक-लुभावन फैसले किये. 1989 को लोग इसी रूप में याद करते हैं. तब की तत्कालीन सरकार ने अनुत्पादक खर्च बढ़ाने वाले कई सारे फैसले लिये थे. इसकी वजह उसी साल लोकसभा के होने वाले चुनाव थे. 1990 में बिहार विधानसभा के चुनाव होने वाले थे. विधानसभा के चुनाव में नयी सरकार सत्ता में आयी और पुरानी कांग्रेस की सरकार सत्ता से बाहर हो गयी थी.
जब लालू प्रसाद ने 10 मार्च, 1990 को शपथ ली, तो उन्होंने कहा कि उन्हें विरासत में खजाना खाली मिला. दरअसल, यह हर आने वाली सरकार अपने पूर्ववर्ती सरकार के बारे में ऐसे ही जुबले का इस्तेमाल करती रही हैं. यह केवल आरोप-प्रत्यारोप की तरह नहीं होते. इसमें सच्चई भी होती है. पर, दूसरी सच्चई यह है कि वही सरकार अपने पूर्ववर्ती की राह पर चल पड़ती है.
यह सवाल सतह पर है कि आखिर सरकार इन घोषणाओं को पूरा करने के लिए पैसों का जुगाड़ कहां से करेगी? आमदनी का जरिया सीमित है और इसमें ऐसा कोई चमत्कार भी नहीं दिखता है जो रातोंरात खजाने को भर दे. राज्य के खजाने में जो पैसा आता है उसका बड़ा हिस्सा बिक्री कर से प्राप्त होता है. अगर आंकड़ों की बात करें तो 2005-06 के बाद से कर वसूली की रफ्तार काफी बेहतर स्थिति में पहुंची है. तीन हजार करोड़ से करीब 25 हजार करोड़ से भी ज्यादा की छलांग बताती है कि राज्य में संभावनाएं हैं. मगर इसकी भी एक सीमा है.
मौजूदा सरकार की घोषणाओं को गैर विकासात्मक श्रेणी में रखा जाये तो वर्ष 2014-15 में पहले से ही पांच फीसदी की वृद्धि हो चुकी है. रुपये में अगर इस वृद्धि को देखें तो यह 915 करोड़ होता है. हाल की घोषणाओं को इसमें शामिल करने के बाद जो खर्च होता है, वह पांच फीसदी से कहीं ज्यादा होगा. जानकारों का मानना है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकारें लोक लुभावन घोषणाएं तो करती हैं पर उसे पूरा करने के लिए पैसों का इंतजाम कहां से होगा, इसका जिक्र नहीं करतीं. यहीं से असली परेशानी शुरू होती है.
केंद्रीय करों में राज्यों की मौजूदा प्रणाली को बदलने की आवाज लगभग सभी राज्यों ने उठायी है. फिलहाल केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी 32 फीसदी है. कोई एक दशक पहले यह हिस्सेदारी 27 फीसदी थी. 12वे वित्त आयोग की सिफारिश पर यह हिस्सेदारी 32 फीसदी हुई थी और इससे बिहार को हर महीने करीब 600 से 700 करोड़ रुपये अतिरिक्त मिलने लगे थे. एक तथ्य यह भी है कि वर्ष 2011-12 में राजकोषीय घाटा 600 करोड़ था, जो 2012-13 में बढ़कर 6545 करोड़ पर पहुंच गया. चालू वित्तीय वर्ष में इस घाटा के और बढ़ने का अनुमान है.

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