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फिर कैसे लौटे बिहार पुलिस का वर्षों पुराना अपना इकबाल
II सुरेंद्र किशोर II राजनीतिक िवश्लेषक साठ के दशक की बात है. बिहार के एक दबंग सत्ताधारी नेता ने अपने पड़ोसी की जमीन पर कब्जा कर लिया. पड़ोसी ने जब कब्जा हटा लेने की उनसे विनती की तो उन्होंने उसे जान से मार डालने की धमकी दे डाली. बेचारा पड़ोसी ने दीघा पुलिस थाने की […]
II सुरेंद्र किशोर II
राजनीतिक िवश्लेषक
साठ के दशक की बात है. बिहार के एक दबंग सत्ताधारी नेता ने अपने पड़ोसी की जमीन पर कब्जा कर लिया. पड़ोसी ने जब कब्जा हटा लेने की उनसे विनती की तो उन्होंने उसे जान से मार डालने की धमकी दे डाली. बेचारा पड़ोसी ने दीघा पुलिस थाने की शरण ली. दीघा थानेदार ने उस व्यक्ति के घर के आगे एक मुड़ेठा धारी सिपाही तैनात कर दिया.
उसके हाथ में सिर्फ एक लाठी थी. पर सरकार की हनक, हैबत और इकबाल के लिए किसी वैसे सिपाही को ही तब पर्याप्त माना जाता था. उधर नेता जी उसी पर आग बबूला हो गये. उन्होंने मुख्यमंत्री से कह कर उस दारोगा का न सिर्फ तबादला करवा दिया, बल्कि उसका डिमोशन भी करवा दिया.
शायद वह घटना बिहार पुलिस का मनोबल तोड़ने के मामले में मील का पत्थर साबित हुई थी. पर क्या एक बार फिर पुलिस को पहले ही जैसा प्रतापी नहीं बनाया जा सकता?
वैसा क्यों नहीं हो सकता है? पर उसकी कुछ शर्तें हैं.
लोकतंत्र के लिए बेहतर कानून-व्यवस्था जरूरी : अपहरण, चोरी और डकैती की घटनाएं तो चिंताजनक हैं ही. पर सबसे अधिक चिंताजनक बात है लगातार पुलिस पार्टी पर हमला. यानी पुलिस का प्रताप काफी घट गया है. इन दिनों जहां कहीं पुलिसकर्मी अतिक्रमण हटाने के काम में सहयोग करने जाते हैं, उन पर हमला हो जाता है. अवैध शराब के अड्डों पर भी यही हो रहा है. अवैध कारोबारी कई बार पुलिस को मार कर भगा देते हैं.
अदालती आदेश के कार्यान्वयन के सिलसिले में भी किसी दबंग अपराधी को पकड़ना पुलिस के लिए टेढ़ी खीर है. एक जगह पुलिस को भगा देने का मतलब होता है कि दूसरी जगह के अपराधियों का मनोबल बढ़ जाता है. वे दोगुने उत्साह से अपने अपराध कर्म में लग जाते हैं. इजरायल सरकार ने एक नियम बना रखा है. वह अपने देश के किसी अपहृत व्यक्ति को छुड़ाने के एवज में न तो किसी को फिरौती देती है और न ही बदले में किसी अपराधी को छोड़ती है. ऐसी ही दृढ़ इच्छा शक्ति वाले देश से उसके दुश्मन डरते हैं.
इजरायल अकेले एक साथ कई देशों का मुकाबला आसानी से कर लेता है. क्या बिहार सरकार यह निर्णय नहीं कर सकती कि वह पुलिस पर हमला करने वाले लोगों को कभी माफ नहीं करेगी? पर हां, इसके साथ एक काम और उसे करना होगा. ऐसा न हो कि पुलिस एक दिन पहले अतिक्रमणकारियों से हफ्ता वसूलने जाये और अगले दिन अतिक्रमण हटाने. यदि यह सब जारी रहा तो सरकार का कोई उपाय काम नहीं आयेगा. ऐसे में तो कानून तोड़कों का पुलिस पर गुस्सा कम नहीं होगा.
कानून के राज से ही अपराधीकरण पर अंकुश : कानून का राज हो तो राजनीति के अपराधीकरण पर भी अंकुश लग सकता है. अनेक बाहुबलियों ने लचर कानून-व्यवस्था का ही लाभ उठाया है.
नब्बे के दशक से पहले तक बिहार के एक चुनाव क्षेत्र में एक ईमानदार स्वतंत्रता सेनानी विधायक हुआ करते थे. पर जब उस क्षेत्र में अपराधियों का उत्पात बढ़ने लगा तो दूसरे पक्ष का एक बाहुबली उस स्वतंत्रता सेनानी से मिला. उसने कहा कि अब राजनीति आपके वश की नहीं है. आप आम लोगों को गुंडों से नहीं बचा पायेंगे. मुझे अब चुनाव लड़ने दीजिए. वह लड़ा और जीता भी. विजयी बाहुबली और भी बड़ा बाहुबली बन गया. दूसरे पक्ष के बाहुबली तो अपना काम कर ही रहे थे. पुलिस लगभग मूक दर्शक थी. ऐसा बहुत दिनों तक चला. सन 2005 के बाद कुछ स्थिति बदली. भला यह भी कोई लोकतंत्र है? ऐसे में कितना जरूरी है कानून का शासन कायम करना! ऐसी पुलिस बने जो सभी पक्षों के कानून तोड़कों के खिलाफ समान रूप से कार्रवाई करे. पुलिस ऐसी कब बनेगी?
लालू प्रसाद की नेक सलाह : लालू प्रसाद ने अपने दल के नेताओं और कार्यकर्ताओं से कहा है कि आप लोग मीडिया को उचित सम्मान दें. वे आपकी बातों को जन-जन तक पहुंचाते हैं. याद रहे कि मंगलवार को लालू प्रसाद की उपस्थिति में उनके दल के एक कार्यकर्ता विजय यादव ने रांची में मीडिया से बदसलूकी की थी. लालू प्रसाद की ताजा नेक सलाह सराहनीय है.
पर इसके साथ इस अवसर पर एक सलाह दी जा सकती है. राजद नेताओं को चाहिए कि वे अपने ड्राइंग रूम में अपने कार्यकर्ताओं से यह न कहें कि उनके नेताओं की परेशानियों के लिए मीडिया ही जिम्मेदार है. मीडिया के खिलाफ आपकी कोई शिकायत हो तो आप खंडन छपवाएं. उससे काम न चले तो प्रेस काउंसिल से शिकायत करें.
मानहानि के मुकदमे का रास्ता भी सबके लिए खुला है. पर यदि आप ही मीडिया के खिलाफ भड़काऊ बातें करेंगे तो बेचारा विजय यादव जैसा कार्यकर्ता क्या करेगा? वही करेगा जो उसने किया था. उसे लगा होगा कि उससे उसका राजनीतिक कैरियर ऊपर जायेगा. एक बात के तो लालू प्रसाद खुद गवाह हैं. 1995 में एक-दो अपवादों को छोड़कर लगभग सारे पत्रकार लिख रहे थे कि बिहार विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद का दल हार रहा है. पर चूंकि उन दिनों अधिकतर जनता लालू प्रसाद के साथ थी, इसलिए बिहार विधानसभा में उनको बहुमत मिल गया. आगे भी जनता साथ देगी तो उनकी पार्टी जीतेगी. नहीं देगी तो नहीं जीतेगी. यह तो उनके और जनता के बीच की बात है. इसमें मीडिया का रोल सीमित है.
नाहक मीडियाकर्मियों को ‘जहां -तहां’ से क्यों धकियाना भई!
तारीख पर तारीख यानी बुढ़ापे में कष्ट : कुछ प्रभावशाली आरोपित तरह-तरह के बहाने बना-बना कर अपने केस को अदालतों में लंबा खींचते रहते हैं. नतीजा यह होता है कि अंतिम निर्णय आने के समय ही वे बूढ़े हो चुके होतेे हैं. यदि सजा से बच गये तब तो ठीक. पर यदि सजा हो गयी तो जेल में बुढ़ापे में बड़ा कष्ट होता है. यदि जवानी में जेल काट लिए होते तो ठीक रहता. क्योंकि जवानी में बर्दाश्त करने की क्षमता अधिक होती है. यदि अदालत एक केस में तीन बार से अधिक सुनवाई की तारीखें बढ़ाने की अनुमति आरोपितों को न दे तो किसी केस की सुनवाई जल्द पूरी हो सकती है. वैसे जल्द सुनवाई के लिए देश में अदालतों की संख्या बढ़ाना और भी जरूरी है.
एक भूली-बिसरी याद : पटना में जन्मे पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री डाॅ विधान चंद्र राय ऐसे डाॅक्टर थे जो मरीज को देखते ही कह देते थे कि क्या रोग है. डाॅ राय के समकालीन व बिहार के मुख्यमंत्री डाॅ श्रीकृष्ण सिंह कई बार किसी गंभीर मरीज को अपने पत्र के साथ विधान बाबू के यहां कलकत्ता भेज देते थे. विधान बाबू 1948 से 1962 तक मुख्य मंत्री रहे.
उन्होंने पटना काॅलेज से स्नातक की पढ़ाई की थी. बाद में तो एफआरसीएस और एमआरसीपी भी बने. यह संयोग ही रहा कि उनका जन्म भी 1 जुलाई और निधन भी 1 जुलाई को ही हुआ. वे 1882 में जन्मे और 1962 में गुजर गये. प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के वे मित्र थे. वे एक-दूसरे को उनके नाम के पहले शब्द से संबोधित करते थे. स्वतंत्रता के तत्काल बाद जवाहर लाल जी उन्हें उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बनाना चाहते थे.
पर उन्होंने इन्कार कर दिया था. वे मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए रोज मरीजों के लिए भी समय निकाल लेते थे. वे अविवाहित थे और महात्मा गांधी, मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू तथा कई बड़े नेताओं के सलाहकार चिकित्सक थे.
और अंत में : खबर है कि दिल्ली में 17 नयी प्रजातियों की तितलियां नजर आयी हैं. बहुत अच्छी खबर है. क्या कभी इस देश में उन प्रजातियों के राजनीतिक कार्यकर्ता और नेता एक बार फिर प्रकट होंगे जिस तरह के कार्यकर्ता आजादी की लड़ाई के दिनों में और आजादी के बाद के कुछ वर्षों तक पाये जाते थे?
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