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नोटबंदी का असर दो समाज की अलग अलग तसवीरें

एक जैसी हालत में जी रहे गुजराती व इरानी बस्ती के लाेग धंधा ठप होने के बाद परेशानी में परिवार, जरूरी सामान पर भी आफत कुछ देश के लिए कष्ट सहने को तैयार, ताे कुछ सरकार को मान रहे जिम्मेवार मुजफ्फरपुर : 500 व 1000 रुपये के नोट बंद होने के बाद रोज कमाने-खाने वाले […]

एक जैसी हालत में जी रहे गुजराती व इरानी बस्ती के लाेग

धंधा ठप होने के बाद परेशानी
में परिवार, जरूरी सामान पर
भी आफत
कुछ देश के लिए कष्ट सहने
को तैयार, ताे कुछ सरकार को
मान रहे जिम्मेवार
मुजफ्फरपुर : 500 व 1000 रुपये के नोट बंद होने के बाद रोज कमाने-खाने वाले परिवारों की कमर टूट गयी है. फेरी लगा कर सामान बेचने व फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों की बिक्री ठप हो गयी है. एक तो ग्राहकों की कमी, अगर कोई आये भी, तो दो हजार के नोट के छुट्टे नहीं. बस किसी तरह इनका गुजारा हो रहा है. लोग परेशानी में हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन नोटबंदी के मुद्दों पर लोगों की सोच अलग-अलग है. इस बाबत बुधवार को एक जैसे परिवेश वाले
दो समाज का मुआयना किया गया तो अलग-अलग तस्वीर नजर आयी. कोई बच्चे के इलाज के लिए परेशान है, तो किसी में
भूखे रहकर भी देश के लिए कुर्बानी का जज्बा है. दोनों समाज के लोग बड़े नोटबंदी के बाद कैसे जीवन बसर कर रहे हैं और सरकार के फैसले पर क्या सोचते हैं, इसे जानने की कोशिश की गयी.
पेशा एक, समाज दो, सोच अलग-अलग
देश को संवारने के लिए भूखे रहने को भी तैयार
सरकारी बस स्टैंड से सटा गुजराती बस्ती. रोड के दोनों ओर फुटपाथ पर पुराने कपड़ों की दुकानें. एक संकरे रास्ते से अंदर जाती हुई इन दुकानदारों की गुजराती बस्ती. बुधवार को दोपहर के दो बजे हैं. करीब 250 लोगों की इस बस्ती में रोज की तरह चहल-पहल नहीं है. सड़क पर लगे फुटपाथ की दुकानों पर भी सन्नाटा है. बस्ती के अंदर भोला गुजराती का मकान है. बाजार मंदा है, इसलिए घर पर ही हैं. उनसे जब बड़े नोट बंद होने के बाबत हुई परेशानी के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा,
परेशानी तो बहुत है. पांच दिनों से ग्राहक नहीं आ रहे हैं. बस किसी तरह नमक-रोटी खा कर गुजारा कर रहा हूं. लेकिन पीएम मोदी ने यह ठीक किया है. ब्लैक मनी देश को बर्बाद कर रहा था. देश के लिए मुझे यह परेशानी मंजूर है. ठीक है कि अभी बोहनी नहीं हो रही है, लेकिन सरकार के इस फैसले से हमारा देश संभल जायेगा. पास खड़ी विमला गांधी बताती हैं कि हमलोग फेरी कर के स्टील के बर्तन से पुराने कपड़े बदलते हैं. फिर उन कपड़ों को रिपेयर कर बेचते हैं. लेकिन बड़े नोट बंद होने से हमलोग का कारोबार नहीं चल रहा है. लेकिन जैसे बाजार में रुपया आयेगा, सब कुछ ठीक हो जायेगा.
हमें कोई शिकायत नहीं है. प्रधानमंत्री ने अच्छा काम किया है. अगर हमारा देश अच्छा हो जाये तो मुझे भूखे रहना भी मंजूर है.
सरकार ने भूखे मरने के लिए छोड़ दिया
मेंहदी हसन चौक से ब्रह्मपुरा रोड के दाहिनी ओर फेरी लगा कर धूप का चश्मा बेचने वालों की इरानी बस्ती. दोपहर के तीन बजे हैं. कुछ महिलाएं अभी फेरी लगा कर घर लौटी हैं. चेहरे पर मायूसी है. चश्मे नहीं बिके. घर में आटा-दाल नहीं है. परिवार के अन्य लोगों का इंतजार है, कुछ कमा कर लाएं तो भोजन बने. बड़े नोट बंद होने के बाद दोनों समय भोजन नहीं बन रहा है. पहले फेरी लगा कर रोज डेढ़-दो सौ रुपये कमा लेते थे, लेकिन अब कमाई बंद है. झोपड़ी के बाहर बैठी अरशफी खातून कहती हैं कि अभी फेरी से लौटी हूं. लोग चश्मा नहीं खरीद रहे हैं. कोई खरीदने के लिए तैयार भी होता है तो दो हजार का नोट देता है. हम 1900 रुपये उसको कहां से वापस करें. कई दिन हो गये, बोहनी नहीं हुई. यहां 170 लोगों का परिवार है. सबकी स्थिति एक जैसी है. सरकार ने यह अच्छा नहीं किया. हमलोगों को भूखे रहने को छोड़ दिया. सीमा खातून कहती हैं कि बच्चा बीमार है. डॉक्टर को दिखाने के लिए रुपये नहीं हैं. धंधा ही नहीं चल रहा है तो रुपये कहां से आयेंगे. रुख्तार बानो कहती हैं कि ऐसे तो हमलोग भूखे मर जायेंगे. जब चश्मा ही नहीं बिकेगा तो क्या खायेंगे? कितने दिनों तक भूखे रहें? सरकार ने हम जैसे लोगों पर बड़ा अन्याय किया है.

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