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प्रकृति ने बदला रंग चली फाल्गुनी हवा

फोटो है 8 में कैप्सन : आम के बगान से आने लगी मंजर की खुशबू -अपनी संस्कृति भूल रहे लोग-नहीं सुनाई देती है ढोलक के थापप्रतिनिधि, परबत्तासरस्वती पूजा व माघी पूर्णिमा के गुजरने के बाद ऋतुराज वसंत का आगमन दस्तक दे रहा है. सर्द हवाएं अपनी राह ली तथा फाल्गुनी हवा बहने लगी है. इस […]

फोटो है 8 में कैप्सन : आम के बगान से आने लगी मंजर की खुशबू -अपनी संस्कृति भूल रहे लोग-नहीं सुनाई देती है ढोलक के थापप्रतिनिधि, परबत्तासरस्वती पूजा व माघी पूर्णिमा के गुजरने के बाद ऋतुराज वसंत का आगमन दस्तक दे रहा है. सर्द हवाएं अपनी राह ली तथा फाल्गुनी हवा बहने लगी है. इस मौसम की आहट पाकर लोग भी मस्त होने लगे है. आम्रपाली में सुगंधित मंजर लगने लगे है. इसकी खुशबू वातावरण में एक अलग प्रकार की मादकता उड़ेल रही है. पेड़ों ने अपनी पुरानी पत्तियों का चोला उतार फेंका है. नयी पत्तियां पेड़ों को पुन: जवान करने पर तुल गयी है. खेतों में सरसों के पीले पीले फुल तथा गेहूं के लहलहाते खेतों में बालियां निकलने को आतुर हो रही है. कोयल की मीठी बोली लोेगों के कानों में रस घोल रही है. प्रकृति ने सदियों से इस परंपरा को बनाये रखा है. लेकिन लोग अपनी पुरानी पंरपरा को भूलने लगे है. वह परंपरा है ऋतुओं को ध्यान में रख कर गीत संगीत की परंपरा. गांवों में माघी पूर्णिमा के बाद लोग टोली बनाकर प्रतिदिन शाम को बिरहा, नचाई ,लगनी ,फाग ,झूमड़ आदि को ढोलक की थाप पर गाते थे. लोगों का यह खुमार होली में उतरता था, हर गांव में फागुन गाने वालों की टीम बन जाती थी. यह टोली सार्वजनिक स्थान पर प्रतिदिन संध्या में अपने दैनिक क्रियाकलाप से फारिग होने के बाद फागुन गाया करते थे. इस आवाज का लुत्फ लोग अपने घरों से भी लेते थे. इन गांवों में पिरांचे गये शब्द व संगीत बुजुर्गों में भी युवा होने का अहसास भर देता था. ये सभी अब बीते दिन की बात हो गयी है. पूरे महीनों तक चलने वाली यह संस्कृति होली के दो दिनों में सिमट गयी है.

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