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अंधेरे कमरे में सिसकती हैं जिंदगियां
भभुआ सदर. कैमूर को जिला बने लगभग 25 वर्ष हो गये लेकिन, अभी भी स्वास्थ्य विभाग की अनदेखी की चलते जले हुए मरीजों की इलाज की बेहतर व्यवस्था नहीं की जा सकी है. जिला मुख्यालय स्थित सदर अस्पताल के अधिकारी तो इतने वर्षों बाद भी बर्न वार्ड की अलग व्यवस्था न कर सके बल्कि उनके […]
भभुआ सदर. कैमूर को जिला बने लगभग 25 वर्ष हो गये लेकिन, अभी भी स्वास्थ्य विभाग की अनदेखी की चलते जले हुए मरीजों की इलाज की बेहतर व्यवस्था नहीं की जा सकी है. जिला मुख्यालय स्थित सदर अस्पताल के अधिकारी तो इतने वर्षों बाद भी बर्न वार्ड की अलग व्यवस्था न कर सके बल्कि उनके द्वारा तो जले हुए मरीजों को एक साधारण कमरे में भरती कर नर्सों के सहारे उन्हें उनके या भगवान भरोसे छोड़ दिया जा रहा है.
अब अस्पताल स्थित अस्थायी रूप से बने बर्न वार्ड का हाल यह है कि यहां से जिंदा निकलना चमत्कार सरीखा है. सदर अस्पताल में आज भी बर्न वार्ड की व्यवस्था नर्सों के जिम्मे है़ काफी लाख मनुहार करने पर या तो वह स्वयं मलहम पट्टी कर देती हैं या फिर हादसे में जले लोगों के परिजनों को दवाइयां, मलहम व पट्टी उपलब्ध करा देती हैं. उस पर से भी सदर अस्पताल में भरती मरीजों को दवाइयां और मलहम बाहर से खरीदने पड़ते हैं.
एसी, कूलर तो अलग दवाएं भी नहीं
सदर अस्पताल में जले हुए मरीजों के लिए कोई अलग वार्ड की व्यवस्था नहीं है़ जल कर आये मरीजों को महिला वार्ड के एक कोनेवाले अंधेरे कमरे में भरती कर दिया जाता है़ उक्त कमरे में अस्पताल प्रशासन द्वारा न तो जले मरीजों के लिए एसी या कूलर की व्यवस्था नहीं की गयी है और न ही उनके लिए दवाइयां या मलहम की.
अस्पताल प्रशासन द्वारा कमरे में भरती कर मात्र स्लाइन की व्यवस्था कर दिया जाता है बाकि दवाइयां और मलहम की पर्ची मरीज के परिजनों को बाहर से खरीदने के लिए थमा दिया जाता है जबकि, सरकारी स्वास्थ्य नियमों के अनुसार इन्फेक्शन से बचाने के लिए झुलसे लोगों को अस्थायी वार्ड (पोस्ट ऑपरेटिव रूम) के बजाय केज (चारों तरफ से बंद बेड) में रखना होता है. अब सदर अस्पताल में कोई बेहतर व्यवस्था नहीं मिलने के चलते जले हालत में आयी महिलाएं हालात के हाथों मजबूर हो कर या तो सदर अस्पताल के एक कमरे में सिसकती हुई गुजरती हैं या फिर किसी के परिजन व्यवस्था से आजीज आ कर अपने मरीज को बेहतर इलाज के लिए बाहर चले जाते हैं. महिलाओं के लिए तो सदर अस्पताल में नाममात्र की व्यवस्था भी है लेकिन, पुरुषों के लिए तो कोई व्यवस्था ही नहीं है.
हीरावती को वाराणसी रेफर कर दिया
सदर अस्पताल में जले हुए मरीजों के लिए कोई बेहतर व्यवस्था नहीं रहने के चलते कई मरीज व्यवस्था से हार कर अपनी जान गंवा चुके हैं. उदाहरण स्वरूप डुमरैठ गांव की हीरावती देवी खाना बनाते वक्त आग लगने से गंभीर रूप से झुलस गयी थी. सदर अस्पताल के डॉक्टर ने उसे 90 प्रतिशत तक जला बता उसे भरती तो कर लिया लेकिन, बेहतर व्यवस्था नहीं होने के चलते जब परिजन उसे वाराणसी इलाज के लिए लेकर जाने लगे लेकिन, चंदौली के समीप उसकी मौत हो गयी. इसी प्रकार कुछ दिन पूर्व सीवों गांव की सरोज देवी गैस लिक होने की वजह से लगी आग के चलते झुलस गयी. परिजन उसे अस्पताल लेकर आये लेकिन, अस्पताल के इलाज ने उसे असमय मौत दे दी. देखा जाये तो इस प्रकार के मामले हर महीने सदर अस्पताल में दो तीन आते रहते हैं लेकिन, इनमें अधिकतर लोगों की बेहतर इलाज व्यवस्था नहीं मिलने के चलते या तो मौत हो जाती है या फिर उन मरीजों को अन्यत्र जा कर अपनी जान बचानी पड़ती है.
दान के पैसों से हो रहा इलाज
यह कटु सच्चाई है कि सरकार और स्वास्थ्य विभाग ने तो करोड़ों रुपये खर्च कर अस्पताल तो बनवा दिया गया लेकिन, जगह और व्यवस्था रहने के बावजूद अब तक न तो बर्न वार्ड की व्यवस्था की जा सकी और न ही उन मरीजों के लिए दवाइयां और मलहम की. मजबूरन मरीज खूद अपने पैसे से दवाइयां और मलहम खरीदने को मजबूर होते हैं.
भगवानपुर प्रखंड के ओरगांव गांव की विधवा मीना कुंवर दीपावली से पूर्व घर की साफ-सफाई कराने के दौरान आग से झुलस गयी थी. परिजन इलाज के लिए उसे सदर अस्पताल लेकर आये. स्थिति गंभीर नहीं होने के चलते उसका भरती कर इलाज किया जा रहा है लेकिन, पति की मौत और बेटों के साथ नहीं देने के चलते अब महिला का इलाज उसकी बेटी चंदे से कर रही हैं. बेटी सुमन का कहना था कि बाहर से दवा और मलहम खरीदने में काफी रुपये खर्च हो जा रहे हैं और हमलोगों के पास रुपये बचे नहीं हैं. इसके चलते गांव में चंदा इकट्ठा कर मां का इलाज करा रहे हैं.
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